Sunday 24 April 2016

मीठी-खुशी

"मिले दोखे खुशी तेरी ही जुदायी मैं,
छोड़ गया मीठी को इस तन्हाई मैं,

रोई दिन रात मीठी कर तुझे याद,
क्या मिला तुझे इस बेवफाई मैं,

खुशी तुझमे ही ढूडती है ये मीठी,
पर तू खुश है उसकी रुलाई मैं,

खुशीसे ज़िन्दगी लुटा दी तेरे लिये,
कसर न छोड़ी तूने किसी सताई मै,

यादों को सज़ोये है आजभी ये मीठी,
क्या मिला उसे इश्क की दुहाई मैं,

मोहब्बत मैं खाली हाथ यहॉ खुशी के,
पर अश्क भरे है मीठी की कलाई मैं,

करती है सवाल आज़ मीठी खुशी से,
कमी क्या लगी तुझे मेरी वफाई मैं,

जो तूने की बेवफाई मुझसे मेरे हमदम,
क्या करी कमी मैने तेरी हर भलाई मैं,

जो कर दिया तूने आज़ मुझे यू तन्हा,
मिली जो तुझे जिन्दगी जग हसाई मैं,


मिले दोखे खुशी तेरी ही जुदायी मैं,
छोड़ गया मीठी को इस तन्हाई मैं-२"

Saturday 23 April 2016

ईश्वर वाणी-१४०, ईश्वर की देह और अंग

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों मैं समस्त प्राणियों की देह हूं और तुम सब इस देह के अंग हो,

हे मनुष्यों जैसे की तुम्हे पहले ही मैं बता चुका हूं की संसार मैं मैने कुछ भी अनावस्यक नही बनाया है,

हे मानव जाती ज़रा सोच तेरे शरीर पर केवल ऑख ही ऑख हो तो तू सुनेगा कैसे, या तेरे शरीर पर केवल कान ही कान हो तो तू देखेगा चलेगा अन्य कर्म कैसे करेगा, जैसे तेरे शरीर के सभी अंग आवश्यक हैं वैसे ही मेरे लिये तुम सब आवश्यक हो,

ये निम्न मत जिनके आधार पर तुम अक्सर लड़ते रहते हो, एक दूसरे को नीचा दिखाते हो ये सब मेरे ही शरीर का ही तो एक अंग है,

है मानवो तुम जिस हाथ से भोजन करते हो उसी से नित क्रिया करते हो फिर भी उसे अशुद्ध नही समझते, अब तुम कहोगे नित स्नान एंव नित हाथ साफ करते है, ऐसे मैं हाथ अशुद्ध कैसे हुये?

हे मानवों तुम जिस प्रकार शरीर का अंग धो कर साफ करते हो तो तुम्हे क्या लगता है मै अपने अंग साफ़ नही करता,

तुम लोंगों के जीवन मैं आने वाला कष्ट और दुख ही वो पल है जब मैं अपने गन्दे दूषित अंगो की सफाई करता हूँ,

हे मानवों तुम्हारा जाति-धर्म-समप्रदाय-भाषा-सभ्यता-संस्क्रति के लिये लड़ना मुझे दुख पहुँचाता है,

जैसे अगर कोई तुम्हारी किसी एक ऑख पर वार करे कष्ट तो पूरे शरीर को होगा, वैसे ही यदि तुम किसी निरीह जीव अथवा मनुष्य को ठेस पहुँचाते हो वो चोट मुझे लगती है"!!




Thursday 14 April 2016

ईश्वर वाणी-१३९- सच्चा धर्म

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों तुम निम्न मतानुयायों से उनके मत को लेकर झगड़ते रहते हो किन्तु वास्तविक धर्म क्या है तुम्हें पता है,

तुम्हारे कर्म ही तुम्हारा असल धर्म है, माता-पिता की सेवा, गुरू और देश की सेवा, समस्त प्राणी जाति के प्रती दया एंव प्रेम की सच्ची भावना ही धर्म है,

है मनुष्यों इसलिये अपने धर्म का पालन करते रहो, याद रखो मैने तुम्हें किसी जीव को नुकसान पहुचाने की सीख तुम्हे नही दी है क्यौकि ये धर्म के बाहर है, मैने पवित्र गृन्थों मैं भी इसका उल्लेख किया है",

ईश्वर कहते है, "हे मनुष्यों समस्त प्राणी जाती मैं सत्री तत्व विद्धमान है, भगवान शंकर का अर्ध नारीश्वर स्वरूप इसका ही उल्लेख करता है, हे मानवो इसलिय सभी धार्मिक शास्त्रौं मैं मैने तुम्हें नारी का सम्मान करने के आग्या दी है,

है मानवों तुम्हरे अन्दर मौज़ूद शक्ति भी तुम्हारे अन्दर मौज़ूद नारीत्व का ही एक अंश है, इसलिये ये ना समझौं एक नारी जिसे तुम मॉ कहते हो, जिसने तुम्हें जन्म दिया इसके बाद तुम्हारे अन्दर से नारीत्व नष्ट हो गया, हे मनुष्यौं  इसलिये तुम कभी स्त्री से दूर नही हो सकते ना ही उसे दोयम बता सकते हो, तुम्हारे अंदर मैज़ूद नारी तत्व जिसे शक्ति कहते है  उसके बिना तुम कुछ भी नही,

हे मानवों इसलिये समस्त नारी जाती का सम्मान करो जो ऐसा नही करता वो खुद अपना भी सम्मान नही करता"!!

Wednesday 13 April 2016

मेरी कलम से

"मैं जब आज अपने अतीत के बारे मैं सोचती हूं तो लगता है मैं क्या थी और आज क्या हूं, भले मेरे नाम कोई खास उपलब्धी न हो पर जो हूं जैसे हूं खुश हूं!!

आज से नौ साल पहले मै और लडकियों की तरह ही सोचती थी केवल अपने विषय और अपनी खुशी के बारे मैं, शायद इसलिए मोहब्बत जैसी दोखे वाली तीज़ को मैने हकी़कत समझा और नतीज़ा वही फरेब निकला, फिर वही रोना धोना भावुक होना!!

पर आज़ लगता है जो हुआ सही हुआ, वैसे भी ये सब मेरे बस से बाहर था, सिर्फ अपने लिये जीने की भावना मेरी कितनी गलत थी, मुझे तारीख तो नही पता पर शायद मार्च २०११ था वो जब आध्यात्म मै मेरी दिलचस्पी बडी और मैने सन्यास लेने का मन बनाया, लेकिन मोह माया मैं बंधा मेरा मन सन्यास न ले सका, फिर सितम्बर २०/२०११ को मेरी प्यारी बच्ची मुझे छोड ईश्वर के पास चली गयी, बहुत दुख हुई मुझे साथ ही अहसास हुआ दुख का कारण ये रिस्तौं के बन्धन ही है, यदी इनसे मुक्त हो जाये तो कभी दुख न मिलेगा,

इसलिए चर्च मैं नन बनने मैं गयी पर वहॉ भी मना कर दिया गया, आज सोचती हूं सही किया जो उन्हौने मुझे रखा नही क्यौकी मैं किसी एक मत या धर्म मै विश्वास नही करती, खैर मुझपर ईश्वर की विशेष कृपा थी, मुझे मेरे गुरू मेरे ईश्वर मिले जो आध्यात्म मैं मेरा आज मार्गदर्शन कर हमेशा नयी नयी बाते बताते रहते हैं,

आज देखा जाये तो मै अभी आधी सन्यासी और आधी संसारिक हूं, आज सत मैं मै अपने लिये जीती हूं, मेरी खुशी संसारिक भोगों मै नही बल्की प्राणी जाती की भलाई मै है, अगर कोई जीव दुखी है मैरी कोशिश होती है उसकी मदद करू शायद ईश्वर ने मुझे ईसीलिए चुना है, तभी बचपन से ही मैरे विचार सबसे अलग और प्राणी जाती के हित के ही रहै है,

हॉ संगत के कारण एक समय था जब मैने औरौं की तरह अपने बारे सोचा था पर वक्त ने मुझे बदल दिया, बहुत से लोग कहते है ये तुमने क्या किया सन्यास क्यौ ले लिया, बड़ा दीन समझते है वो, पर सच्चा सन्यासी/साधु/संत/महात्मा दीन नही क्यौकी उनके पास कीमती चीज़ होती है वो है संतुषटी, कुछ हद तक मैने भी उसे पा लिया है और उसे पाने मै अग्रसर हूं, दुनिया की सबसे कीमती वस्तु है ये पर जिसे न चोर ले जा सकते न ही किसी की नज.र इसे लगती है,

इसलिए अतीत से कई गुना आज़ मैं खुश हूं, अच्छा हुआ जो भी हुआ!!"

Saturday 9 April 2016

संत अर्चू की वाणी

यदि किसी के साथ हम भला करते हैं तो न तो इसका गुनगान करो न ही अपने मुह से अपनी तारीफ करो,
याद रखो किसी का बुरा तुम अवस्य कर सकते हो किन्तु भला करने वाले तुम नही अपितु वो परमेश्वर एंव उस प्राणी का भाग्य है, यदि तुम किसी की भलाई के काबील होते तो क्या संसार मैं दुख भोग कर अपने पूर्व जन्मों का फल जीव भोग रहा होता,
हमने किसी का भला किया इसलिये नही हम इसके काबिल थे अपितु हमें उस परमेश्वर ने उस जीव की सहायता हेतु चुना अनियथा जाने अनजाने कितने निरदोष जीव हमारे द्वारा मारे जाते है,
इसलिये मानव के केवल उसके पाप ही अपने है अन्यत्र कुछ नही उसका पुन्य भी नही!!

ईश्वर वाणी-१३८, महात्मा

ईश्वर कहते है, "हे मनुष्यो यध्यपि मै तुम्हे इससे पूर्व साधू, संत, सन्यासी के विषय मैं विस्तृत जानकारी दे चुका हूं, किन्तु आज तुम्हे 'महात्मा' के विषय मैं बताता हूं,

ये आवश्यक नही एक महात्मा वन वन भटकने वाला, भिछा मॉगने वाला अथवा एक सन्यासी जैसा दिखने वाला उनके जैसा वसत्र धारण करने वाला  हो,

हे मनुष्यों 'महात्मा' शब्द दो शब्द 'महान' और 'आत्मा' से मिलकर बना है, जैसा की नाम से पता चलता है महान आत्मा यानी महात्मा,

महात्मा वो व्यक्ति होता है जो अपने जीवन को अपने निजी स्वीर्थ मैं न लगाकर सम्पूर्ण प्राणी जाती के हित के लिये समर्पित कर देते हैं,
वो गृहस्थ भी हो सकते हैं और अगृहस्थ भी,  किन्तु वो मानव द्वारा निर्मित किसी व्यवस्था का अनुसरण नही करते अपितु ईश्वरीय व्यवस्था का अनुसरण कर अपने जीव और समाज के कल्याणकारी कार्यो मैं सलग्न रहते है,

महात्मा व्यक्ति का पूरा जीवन केवल प्राणी जाती की सेवा और उनका कल्याण करना होता है, उनका जीवन किसी भी प्रकार के भेद भाव से दूर सभी जीव जन्तुऔं से प्रेम और उनका कल्याण करना ही मात्र होता है, कोई इनकी आलोचना करे या समर्थन ये किसी पर ध्यान नहीं देते और निरन्तर प्राणी जाती के हित एंम कल्याणकारी कार्यों मैं निरन्तर सलग्न रहते हैं"

Wednesday 6 April 2016

ईश्वर वाणी-१३७, ईश्वर की द्रश्टी मैं सब समान


ईश्वर कहते हैैं, "हे मनुष्यों मेरी द्रश्टी मैं सब जीव समान है, मानव का मानव से भेद और अन्य जीवों मै भेद केवल तुम ही कर सकते हो जो मेरे द्वारा बनाई व्यवस्था मैं नही है, जिस प्रकार का भेद-भाव मानव सहित तुम अन्य जीवों के साथ करते हो!!
हे मनुष्यों तुम जीव की भौतिक काया, मानव मैं जाति धर्म समप्रदा़य भाषा सभ्यता संस्क्रति रंग रूप अमीर गरीब देख कर उनमें भेदभाव करते हो,
किन्तु मेरी द्रश्टी मैं सभी जीव समान है इसलिये मैं सभी से समान प्रेम करता हूँ, क्यौकि मै किसी भी जीव को उनके भैतिक शरीर के आधार नही अपितु आत्मा के आधार पर देखता हूँ,
आत्मा जिसकी न जाति न धर्म न रूप न रंग न आकार न भाषा होती है, और इसलिए आत्मा मेरा ही एक अंश कहलाती है,
धरती पर अपने भैतिक स्वरूप में आने पर ही जीव पशु-पछी, पेड-पैधे, स्त्री-पुरुष, के साथ विभिन्न जाति-धर्म-समप्रदाय, भाषा, सभ्यता-संस्क्रति, अमीर-गरीब (देश/काल/
परिस्तिथी) के अनुसार होता है,
किन्तु अपने भौतिक शरीर मै होने के बाद भी सभी जीव मेरे लिये आत्मा ही है,
है मनुष्यौ तभी तुम जीवन से प्रेम और मृत्यु से भय खाते हो, तुम्हारी द्ष्टि में भौतिक शरीर का अन्त ही मृत्यु है किन्तु मेरे समझ इसका कोई मोल नही और न ही किसी को मृत्युआती है बस आत्मा वस्त्र के समान शरीर बदलती रहती है, हे मनुष्यौ ये न समझना ये तुम्हारा पहला जन्म है, न जाने कितनी बार और कितने रूपों मै तुम जन्म ले चुके हो"!!