Monday 28 November 2016

ईश्वर वाणी-१६५, ईश्वर हर स्थान पर हैं

 ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों मै कभी मुर्ति पूजा का विरोध नही करता किंतु जैसे तुम किसी अपने की तस्वीर अथवा चित्र देख तुम उसे याद करते हो, मंगल कामना करते हो और जब वह तुम्हारे संमझ साछात आ जाता है तब तुम उसकी तस्वीर नहीं अपितु उससे बातें करते हो, उसके लीये दुआ व मंगल कामना करते हो!!!!

हे मनुष्यों वैसे ही मुझे कहॉ इन मूर्तियों मैं डूडंते हो जबकि मैं जीवित तुम्हारे सामने हूँ, मैं निराकार रूप मैं हर स्थान पर हूँ, आकाश बन कर पल पल तुम्हारे साथ चलता हूँ, भूमी बन कर पल पल सम्भालता हूँ, तुम्हारे मन की आवाज़ बन कर तुम्हें गलत सही का बोध कराता हूँ,

इसलिये मुझे कहॉ डूंडते हो, कहॉ निर्जीव मूर्तियों मैं डूंडते हो जबकि जीवित मैं तुम्हारे सामने व तुम्हारे अंदर हूँ, तुम मूर्ति पूजा करते हो किंतु मेरे वचनों का पालन न करके पाप करते हो, किंतु अपने अदंर मौजूद ईश्वर तत्व पहचान कर सत्कर्म करो तो मोछ को प्राप्त करोगे,

हे मनुष्यों तुम मूर्ति पूजा करो अथवा न करो किंतु समस्त जगत मैं व्याप्त मेरे जीवित स्वरूप पर विश्वास करो व मेरे दिखाये मार्ग पर चलो, ये मत भूलों ये सब मार्ग हैं मुझे पाने के और मंज़िल केवल मै ही हूँ, मुझे केवल सत्कर्म से ही पाया जा सकता है न कि किसी आडम्बर से"!!!!


कल्याण हो

Thursday 24 November 2016

ईश्वर वाणी-१६४, क्यों मूर्ति पूजा होती है


ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों आज़ तुम्हे मैं मूर्ति पूजा क्यों की जाती है, इसका क्या लाभ है, इसका क्या महत्व है इसके विषय मैं जानकारी देता हूँ!!

हे मनुष्यों जिस प्रकार तुम पर कोई संकट आया, तुम्हे तुम्हारी सहायता हेतु तुमने किसी को समीप न पाया, ऐसे मैं जब सब उम्मीद खोने के बाद भी अचानक तुम्हारी सहायता हेतु आ जाये जब सब रास्ते बंद हो, ऐसे मैं वही व्यक्ति तुम्हारे लिये भगवान हुआ,

जैसे- तुम्हारा करीबी बहुत बीमार हो, अस्पताल मैैं भर्ति हो, ठीक होने की उम्मीद न हो, ऐसे कोई कहे फलॉ चिकित्सक उसे ठीक कर सकता है, तुम उस चिकित्सक से मिले, अपने करीबी का उपचार कराया और वो ठीक भी हो गया, इस प्रकार साधारण सा चिकित्सक तुम्हारे लिये भगवान हो गया जिसकी वज़ह से तुम्हारा अपना ठीक हो गया,

इसी प्रकार यदि तुम्हें धन की अतिआवस्यकता है, कही से कोई सहायता प्राप्ती की आशा नही, ऐसे मैं कोई धन दे कर तुम्हारी सहायता कर दे, वो व्यक्ती तुम्हारे लिये भगवान हुआ,


हे मनुष्यों जिस प्रकार उस चिकित्सक ने तुम्हारे अपने को ठीक किया, जिस प्रकार उस व्यक्ति ने तुम्हारी सहायता की, तुम अपने जानने वालों को  और अधिक से अधिक व्यक्तियों को उन पर विश्वास करने हेतु कहोगे, लोगों को कहोगे ये चिकित्सक अच्छा है, असाध्य रोग भी ठीक कर देता है, ये व्यक्ति अच्छा है मुसीबत मै सहायता करता है, अब ये व्यक्तियों पर निर्भर करता है कौन कौन तुम्हारे कहे अनसार व व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर उन पर कितना विश्वास करते है!!

हे मनुष्यों तुम्हारी सहायता करने वाले चिकित्सक और निम्न व्यक्ति की सूरत के विषय मै तुमसे कोई पूछे, तुम्हारे पास कोई तस्वीर न हो तो तुम मन की कल्पना के आधार पर एक तस्वीर बनाते हो, वही सबको दिखा कहते हो यही है जिसने मेरी सहायता की, वक्त के साथ पीड़ी दर पीड़ी उन तस्वीरों मैं भी बदलाव होता रहता है, किंतु मूल भाव तो वही रहता है,

भाव है जो व्यक्ति भगवान रूपमें मूर्ति पूजा करते है, देश, काल, परिस्तिथी के अनुरूप वहॉ जिस व्यक्ति ने वहॉ की निरीह प्रजा और जीवों की रक्छा की, वहॉ के व्यक्तियों के लिये वे ही भगवान हुये, उन्ही की महिमा का उन्होने गुनगान किया, अपने मन के भाव व कल्पना के आधार पर मूर्ति का निर्माण करा अपने विश्वास के आधार पर उसकी आराधना की,

हे मनुष्यों सच्चे ह्रदय से की तुम्हारी प्रार्थना मुझ तक जब पहुँचती है चाहे मूर्ति के सकझ करो, चित्रों के समझ या निराकार रूप मैं, मैं तुम्हारी सहायता अवस्य करता हूँ किंतु प्रार्थना स्वीकारने से पूर्व मिला दु:ख तुम्हारे बुरे कर्मों का दण्ड मात्र होता है!!,


हे मनुष्यों देश,काल,परिस्तिथी के अनूरूप समाज़ को दुख और विक्रतियों से उबारने हेतु ही मैं अपने से एक अंश को उत्पन्न करता हूँ, उसे अपने समान ही अधिकार देता हूँ, धरती पर वो भौतिक शरीर धारण कर देह धारी माता से जन्म प्राप्त कर, देहधारी समस्त रिश्तों से जुड़ कर जगत व प्राणी कल्याण हेतु कार्य पू्र्ण कर मुझमें ही समा जाता है जैसे-भाप के रूप मैं सागर से निकला जल आकाश मैं जाता है और बारिश की बूँद बनकर फिर सागर मैं मिल जाता है!!

हे मनुष्यों इसी प्रकार जो साकार रूप मैं मुझे मानते है वह मूर्ति पूजक मुझे इसके माध्यम से पूजते है और जो निराकार मानते है उसी मैं पूजते है, चाहे जिस रूप मैं पूजों मैं सभी रूप मैं तुम्हारे साथ हूँ किंतु परम सत्य भी यही है संसार जिसकी इच्छा से बना मैं ईश्वर निराकार हूँ!!

हे मनुष्यों ईश्वर जिसकी इच्छा से जगत का निर्माण हुआ जीव-जंतुऔं का निर्माण हुआ, किंतु जब भी तुमने मेरी सत्ता को चुनौती दी मैने ही निरीहों की सहायता व श्रष्टी की रक्छा हेतु अपने ही एक अंश को अपने समस्त अधिकारों के साथ धरती पर भेजा, जो अपने कार्यों को पूर्ण करने के पश्चात वापस मुझमैं विलीन हो गया, यही अवतारी भौतिक देहधारी भगवान कहलाया,

भगवान जो भौतिक देह के साथ  जन्म लेते हैं, निश्चित समय के बाद उन्हे भी ये भौतिक शरीर त्यागना पड़ता है, किंतु ईश्वर अर्थात मैं अजन्मा अविनाशी हूँ  न जन्म मैं लेता हूँ न देह त्यागता हूँ किंतु श्रष्टी की प्रत्येक जीव आत्मा (देवता, भगवान, मानव व समस्त जीव-जंतु) मुझसे निकल कर निश्चित समय के बाद मुझमैं ही लीन हो जाती है, मैं ही परमधाम हूँ!!


कल्याण हो





Wednesday 23 November 2016

ईश्वर वाणी-१६३, श्री क्या है??

ईश्वर कहते हैं, "हे मनष्यों समस्त संसार को जन्म देने वाली, जीवन देने वाली आदी शक्ती 'श्री' ही है, 

हे मनुष्यों मैंने ही अपने एक अंश से " श्री" का निर्माण किया, जिसने ब्रह्ममा, विश्णु और महेश को जन्म दिया, 'श्री' के ही आदेश से सम्पूर्ण जगत का निर्माण हुआ जीवों की उत्पत्ती हुयी और जीवन चक्र की व्यवस्था बनाई,

हे मनुष्यों समस्त देवताओं (श्री ब्रहम्मा, श्री विश्णु, शिव शंकर, श्री क्रष्ण, श्री राम) सभी के आगे 'श्री' लगता है किंतु शिव के आगे शंकर लगता है, कारण शिव का ही आधा भाग नारी का होकर वो अर्ध नारीस्वर कहलाये, किंतु बाकी सभी देवता अर्ध नारीस्वर न हो कर 'श्री' कहलाये,

'श्री' देवी के साथ मिलकर 'श्रीदेवी' कहलायी, वैसे ही श्री देव के साथ मिलकर श्रीदेव,

हे मनुष्यों प्राचीन समय मैं जगत स्त्री प्रधान था, इसकी वज़ह जीवों जन्म देने पालने व म्रत्यु के बाद भी खुद मैं समाने वाली प्रथ्वी स्त्री तत्व ही है, मैंने जिस शक्ती को खुदसे जन्म दिया वोभी स्त्री तत्व ही है जिसने त्रिदेवों को जगत की उत्पत्ती हेतु जन्म दिया,

हे मनुश्यों सभी देवताऔं व मनुष्य एवं सभी जीवधारीयों मैं नारी तत्व शक्ती के रूप मैं विराजित है, किंतु देवता और मनुष्यों के सम्मान मै 'श्री' शब्द का प्रयोग किया जाता है, देवता पत्नी के साथ मिलकर 'श्री' बने जैसे श्री हरि विष्णु माता लछ्मी के साथ मिलकर श्रीपति कहलाये, बिना लझ्मी के उनका कोई महत्व नही,

उसी तरह मानवों मैं भी श्रीमान लगाया गया, जिनका विवाह हो गया है वे पत्नी के साथ मिलकर श्रीमान हुये जिनका विवाह नही हुआ है वह भी अपने भीतर शक्ती के रूप मैं विराजित स्त्री तत्व के कारऩ श्रीमान कहे गये,


यहॉ मानव द्वारा विछिप्त धारणा के कारण स्रियों के लिये (अविवाहित) के लिये सुश्री और विवाहित के लिये श्रीमती कहा जाने लगा, किंतु आदिकाल मैं पुरूष व स्त्री के लिये केवल 'श्री' ही लगाया गया है, तभी 'श्रीमतभागवत' मैं भी 'श्री' है जो भगवान श्री क्रष्ण के विषय मैं है और 'श्रीदुर्गाचालीषा' मैं भी 'श्री', जो आदी शक्ती जगदम्बा के विषय मैं है,

"श्री" शब्द तीन शब्द 'श', 'र' तथी 'ई' से बना है, जिसका अर्थ है "श" श्रष्टी, "र" रचना "ई" ईश्वरीय अर्थात समस्र श्रष्टी ईश्वरीय रचना है, भौतिक जीवन मैं इसका अर्थ है( ''श्री'' ) जीवन, संपत्ती, वैभव, खुशहाली, तरक्की,


हे मनुष्यों जगत की प्रथम उत्पत्ती एवं जगत की जननी देवताऔ की जननी ''श्री'' ही है"

कल्याण हो




Monday 14 November 2016

ईश्वर वाणी-१६२, सुख और दुख


ईश्वर वाणी-१६२, सु,ख और दुख
Archu Mishra - 9:20 pm
to archana0028
ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यु तो तुम प्रत्येक दिन दुख और सुख का
अनुभव करते हो किंतु तुम्हें पता है ये होता क्या है????
हे मनुष्यों तुम्हारी लालसा, अपेक्छायें, उम्मीदें ही दुख है,
किंतु तुम्हारी संतुष्टी ही सुख है,
हे मनुष्यों यु तो तुम्हारे पास सुन्दर भवन है किंतु किसी जानकार या
पड़ोसी का घर तुम्हारे से अधिक बड़ा और सुंदर है, तो तुम्हारी लालसा वैसे
ही घर को पाने की होगी और पा भी लिया वैसा ही घर पा कर खुश हो ही रहे थे
कि फिर अगले ही पल सुंदर गाड़ी किसी की देखी
तो फिर उसे पाने की लालसा हुयी, तुमने वो भी ले ली, और खुश हो ही रहे थे
कि फिर लालसा जागी कोई नयी पोशाक या आभूषण हेते तो अच्छा होता, तुम उन्हे
न ले सके और दुखी हो गये,
तुम्हारे दुख का कारण आभूषण या पोषाक का न पाना नही अपितु तुम्हारी लालसा है,
किंतु किसी का संदर भवन, गाड़ी, पोषाक, आभूषण देख कर भी तुम्हारे मन मैं
उन्हे लेने की लालसा नही जागी अपितु जो जितना है उसी मैं संतुष्ट रहे,
किसी तरह की " और" जैसी भावना मन मैं न आयी न ही किसी भी प्रकार की
ईर्ष्या मन मैं न आयी जिनके सुंदर भवन, गाड़ी, वस्त्र व आभूषड़ थे तो तुम
सबसे सुखी हो,
हे मनुष्यों को मैं उसकी किस्मत के अनुसार देता हूँ, किस्मत पिछले जन्म
के कर्म पर निर्भर करती है, और जो व्यकती मेरी दी गयी भेटों को पा कर
संतुष्ट रहता है, सदेव जो जितना मिला पा कर मुझे धन्यवाद करता है वोही
सदा खुश व मेरा प्रिय रहता है "
कल्याण हो

Saturday 12 November 2016

कविता-"दिल के पास हो तुम"

"दूर नही दिल पास हो तुम,
जिंदगी मैं हर पल साथ हो तम,

है मेरी हर 'खुशी' अब तुमसे ही,
'मीठी' का ये अहसास हो तुम,

तुम बिन कितना अकेले थे हम,
आज मेरे हर जज़्बात हो तुम,

बहुत रोई 'मीठी' अकेले यहॉ,
अब 'खुशी' की हर बात हो तुम,

गुजरे तन्हाईयों मै हर एक दिन,
बस मोहब्बत की ये रात हो तुम,

वीरान थी ये ज़िंदगी अब तलक मेरी,
भिगाया इश्क की वो बरसात हो तुम

दूर नही दिल के पास हो तुम,
ज़िंदगी मैं हर पल साथ हो तुम-२"

Tuesday 8 November 2016

ईश्वर वाणी-१६१, भगवान के साकार रूप के प्रतीक

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों युं तो मैं निराकार हूँ, किंतु मूर्ति पूजक मेरे जिस स्वरूप की पूजा करते हैं आज उसके विषय मैं कुछ बातें तुम्हें बताता हूँ,

हे मनुष्यों अक्सर तुमने मूर्ति मैं या चित्तों मैं मेरे चार हाथ देखे है, यद्यपि ये कलाकार की कल्पना पर निर्भर करता है कि मेरा कौन सा स्वरूप उजागर करता है किंतु फिर भी चार भुजा धारी ही अधिकतर तुम मुझे देखते हो,

हे मनुष्यों ये चार भुजा चार युग की प्रतीक है, जिस युग मैं मानव की जैसी धारणा, लालसा रही उसी के अनूरूप मैंने उसी हाथ से उसे दिया,

हे मनुष्यों गहनों से लदा मेरा रूप केवल भौतिकता नही दिखाता वरण तुममें धार्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक एवं मानविय गुणों अनुग्रहण करना सिखा पूर्ण मनुष्य बना सम्पन्न बनाता है,

हे मनुष्यों मेरे वस्त्र तुम्हें बोली, भाषा एवं व्यवहार मैं शालीनता की शिक्छा देता है,

हे मनुष्यों मेरे अस्त्र-शस्त्र तुम्हें तुम्हारी सभी बुराई का अंत कर सच्चा मानव बनने की सीख देते हैं,

हे मनुष्यों मुझपर अर्पित पुष्प, माला, धूप, दीप आदि तुम्हारे जीवन को भी एसे ही महकाने का प्रतीक है,

हे मनुष्यों मुझे तुम्हारे द्वारा दिया प्रसाद तुम्हारी अनाज की समपन्नता व वैभव का प्रतीक है,

हे मनुष्यों मुझे दिया दान मुद्रा के रूप मैं तुम्हे आर्थिक मजबूती प्रदान करने का प्रतीक है,

हे मनुष्यों तुम्हारी सच्ची प्राथना, समस्त जीवों के प्रती प्रेम भावना मेरे प्रिय कर मोछ प्राप्ती का प्रतीक है,

इसलिय हे मनुष्यों तुम निम्न गणों को जानो और सत्य के मार्गपर चल मोछ प्राप्त करो,


हे मनुष्यों जिन स्थानों पर (देश, काल, परिस्तिथी) के अनूरूप सादगी पूर्ण अपना रूप प्रस्तुत किया, मेरा रूप वहॉ भौतिकता त्याग ईश्वरीय मार्ग पर चल मोछ पाने का प्रतीक है "..

कल्याण हो

Monday 7 November 2016

ईश्वर वाणी-१६०, 'ऊँ' की ध्वनी

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों संसार की सर्व प्रथम ध्वनी 'ऊँ' ही है, समस्त ब्रहमाण्ड की रचना इसी ध्वनी से ही हुई है, समस्त जगत की रचना एवं शक्ती का संचालक यही संसार का प्रथम शब्द है,

हे मनुषयों सभी जीवों जिह्वा से निकला प्रथम शब्द 'ऊँ' ही है, किसी नवजात के रूदन को तुम देखो, उसके मुख से निकली ध्वनी 'ऊँ' ही है,
किसी पशु-पक्छी के मुख से निकली ध्वनी तुम सुनो वो भी 'ऊँ' ही है, ये वही ध्वनी है जो देह बंधन को त्याग समस्त जीव आत्माऔं को एक दूसरे से जोड़ समस्त भेदों को समाप्त करती है,

हे मनुष्यों इसलिये समस्त मंत्र-श्लोक शुरू ही 'ऊ' की ध्वनी से होते है, ये ध्वनी न सिर्फ तुम्हारे शरीर तुम्हारी जिह्वा से निकलती है अपितु ये ध्वनी तुम्हारी आत्मा से निकल समस्त ब्रहमाण्ड मैं विचरण कर समस्त ब्रहमाण्ड से निकलती हुई 'ऊँ' की इसी ध्वनी से मिलकर मुझ तक पहुँचती है,

ये बिल्कुल वैसी ही प्रक्रिया है जैसे तुम्हारा रक्त विभिन्न कोशिकाऔं से होता हुआ मस्तिष्क तक पहुँता है, ठीक वैसे ही समस्त जगत एवं समस्त जीव कोशिका हैं, ये मंत्र रक्त है और मस्तिष्क मैं ही हूँ,

हे मनुष्यों समस्त जगत समस्त बोली भाषा एवं ध्वनी केवल माया है केवल एक 'ऊँ' ही वही ध्वनी है जो स्रष्टी से पूर्व थी आज भी है और सदा रहेगी, परम सत्य केवल यही है, स्रष्टी निर्माण के समय एवं प्रलय के समय और उसके पश्चात भी यही रहेगी,

समस्त देवताऔं की जननी वेदो की जननी शक्ती की जननी केवल यही ध्वनी है, समस्त जीवों को समान लाने और बनाने वाली ध्वनी यही है, यही वो ध्वनी है जो मुझसे निकती है, ये मेरी ध्वनी है, मैं ईश्वर जगत का जनक, पालन कर्ता एवं संहारक,

हे मनुष्यों विशाल सागर की लहरों, नदियों की धारा, पंछियों की चहचाहट, तुम्हारी श्वास व समस्त जीवों के ह्रिदय से निकलने वाली ध्वनी 'ऊँ' ही है,

'ऊँ' शब्द तीन शब्दों से मिल कर बना है और इन्ही तीन शब्दों मैं समस्त स्रष्टी की उत्पत्ती एवं विनाश एवं पुनरूत्थान जुडा़ हुआ है,

'अ' से जगत व प्राणी जीवन की उत्पत्ती, 'ओ' उसकी क्रियाशीलता, 'म' म्रत्यु एंव पुनरजन्म  यही है 'ऊँ' शब्द का सछिप्त परिचय,

हे मनुष्यो मुझे पूर्ण रूप से कोई नही जान सकता, पूर्ण रूप से जानने के लिये चारों युग भी कम पड़ जायेंगे, इसलिये हे मनुष्यों मै सदैव सभी युग मैं तुम्हैं सदा संछिप्त परिचय ही देता हूँ चाहे देश/काल/परिस्तिथी के अनुरूप मैं जहॉ भी जन्म लेता हूँ सदेव सछिप्त परिचय ही अपने द्वारा धरती पे भेजे अवतारी से तुम्हे बतलाता हूँ, कियौंकी पूर्ण परिचय का न आदि न अंत है!!!!"


कल्याण हो