Thursday 8 December 2016

कविता-दौड़ा चला आया

सारे बंधन तोड़ आया, दुनिया से मुह मोड़ आया
आया मैं आया तेरे पास दौड़ा चला आया,

तुझको ही मैंने अपना माना, सबको किया बेगाना,
हर रिश्ता छोड़ मै तेरे पास दौड़ा चला आया

जादू तेरे हुस्न का मुझपे कुछ ऐसे चला
भूला हर नाता और तेरे पास दौड़ा चला आया

मासूम तेरी अदा किया जिसने तुझे सबसे जुदा
तुझपे हो फिदा मैं तेरे पास दौड़ा चला आया

'मीठी' मुस्कान लबों पर तेरी करती दीवाना मुझे
'खुशी' के साथ मै पास तेरे दौड़ा चला आया

रोका बहुत मुझे जमाने ने, लिया बहुत हर्जाने मैं
दे अपनी जिंदगी मैं पास तेरे दौंड़ा चला आया

मिले जख्म नज़राने मैं, गम ही थे मेरे खज़ाने मै
लुटा वही खजा़ना मै पास तेरे दौंड़ा चला आया

सारे बंधन तोड़ आया, दुनिया से मुह मोड़ आया
आया मैं आया तेरे पास दौड़ा चला आया,

कविता-हवाओं मैं हो तुम

"इन  हवाऔं मैं हो  तुम,
इन  घटाऔं  मैं  हो  तुम
है   ये  अहसास  तुम्हारा
इन  फिज़ाऔं  मैं हो तुम,

मेरी  हर  बात मैं हो  तुम
हर  शुरूआत  मैं हो  तुम
हो जुदा कहॉ तुम  मुझसे
इन  जज़्बात  मैं  हो  तुम,

इन चहचाहटों  मैं हो  तुम
मेरी  हर आहटों  मैं हो तुम
दूर होकर भी तुम दूर कहॉ
'खुशी' की चाहत मैं हो तुम,

चॉद  की  चॉदनी  मैं हो तुम
मेरी  हर रवानगी  मैं हो  तुम
मौत भी जुदा कैसे करे  हमें
'मीठी' दीवानगी मैं हो तुम"

ईश्वर वाणी-१६९, आत्मा क्या है

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों जैसे मैने तुम्हें 'परमात्मा' का अर्थ बताया वैसे ही आज आत्मा का अर्थ ब॒ताता हूँ, वही आत्मा जिसके बिना ये देह केवल एक मिट्टी का पुतला है,

आत्मा जो प्रत्येक देह को जीवन प्रदान करती है, आ+त+म+आ अर्थात आत्मा,
आ= आदि
त=  तत्व
म=  मैं
आ= आदि, अनादी, अनंत,अदभुत, अंश, आवश्यक

अर्थात श्रष्टी को व समस्त जीवों को जीवन देने हेतु मैने ही अपने एक आदि अंश को तुम सभी जीवों मैं प्राण डालने हेतु भेजा, इसलिये न इसकी म्रत्यु होती है न कही आत्मा बिना देह के जन्म लेती है, येये आवश्यक आदी से तत्व यानी मुझसे निकल कर अनादी व अनंत काल तक रहती है और एक दिन पुन: मुझमैं मिल जाती है!!

हे मनुष्यों ये आत्मा जो प्रत्येक जीव मैं है वो मेरा ही एक अंश है किंतु मैं उनका अंश नही, मैं उनमैं हूँ पर वो मुझमैं नही, अर्थात जैसे तुम्हारे बालक तुम्हारा ही अंश हैं किंतु वो तुम्हारे माता पिता तो नही आखिर वो बालर ही रहे तुम्हारे, वैसे ही मैं उनमैं हूँ, कन कन मैं हूँ जैसे किसी बहुत बड़े घर का स्वामी, घर की प्रत्येक वस्तु उसकी, हर वस्तु पर उसका अधिकार किंतु वस्तुऔं का स्वामी पर कोई अधिकार नही,

हे मनुष्यों इस पूरी श्रष्टी और जीवन का स्वामी मैं ही हूँ, मेरी द्रष्टी मैं जिस देह त्याग को तुम म्रत्यु कह भय खाते हो ये तो एक प्रक्रिया है जैसे तुम वस्त्र बदलते हो आत्मा भी देह रूपी वस्त्र बदलती है, और धरती पर अपने कर्म पूर्ण कर मुझमैं मिल जाती है, मैं ईश्वर हूँ!!"

कल्याण हो

कविता

दूर नही बस दिल के पास हो तुम
मेरी 'खुशी' का हर अहसास हो तुम

सब कहते हैं तुम हो ही अब नही
पर 'मीठी' की हर सॉस हो तुम

जब चलती हवा छुए मझे जाती है
लगता है यही कही पास हो तुम

'मीठी' है अधूरी तुम्हारे बिना कितनी
'खुशी' का पल-पल अहसास हो तुम

इन नजा़रो मैं आज़ भी तुम दिखते हो
फिर उस मिलन की एक आस हो तुम

कहने वाले कुछ भी कहते रहें तेरे लिये
उन्हे क्या पता मेरे कितने खास हो तुम

जिन्दगी ने मिलाया मौत जुदा कैसे करेगी
क्या अब जिन्दा नही सिर्फ लाश हो तुम

दिल मैं रहता है जो धड़कन बनकर मेरे
इस जीवन लीला का हसीं वो रास हो तुम

मौत भी हार गयी हमारी मोहब्बत को देख
वही मिलन का जीता हुआ पत्ता ताश हो तुम




Monday 5 December 2016

ईश्वर वाणी-१६८, मैं ईश्वर हूँ

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुषयों यु तो मैं अजन्मा, अनंनत, अविनाशी हूँ, मैं पावन जल से भी अधिक निर्मल, वायु से भी अधिक पारदर्शी, एक पौधे के सूखे हुये पत्ते से भी हल्का हूँ!!

मैं आकाश से भी अनंनत, सागर से गहरा, तारों से भी चमकीला, अंधेरे से भी गहरा हूँ!!
मैं ही जगत को बनाने वाला, जीवो को बनाने व जीवन देने वाला हूँ, मै ही श्रष्टी हूँ और श्रष्टी की प्रथम रचना मैं ही हूँ मै ही आत्माऔं मैं परम हूँ, जीवो मैं शक्ती मैं सर्व हूँ, आकारों मैं निराकार हूँ, ग्यानियों मै 'महा' हूँ, प्राणियों मै 'श्रेष्ट' हूँ, दिशाऔं मै 'केन्द्र' हूँ, जीवो मैं 'जीवन' हूँ, ऊँचाई मैं 'गगन' और गहराई मैं 'सागर' हूँ, सखों मैं 'संतुष्टी' मैं ही हूँ मैं परमात्मा!!

आज साधारण शब्दों में तुम्हे इसका अर्थ बताता हूँ,

प+र+म= परम
आ+त-म+आ= परमात्मा

प= प्रथम
र= रचना
म= मैं

आ= आदि
त= तत्व
म= मैं
आ= आदी, अनंनत, अजन्मा, अवनाशी, अतिआवश्यक

हे मनुष्यों मै ही श्रष्टी का प्रथम तत्व हूँ, मैने ही श्रष्टी निर्माण किया है जीवो को उत्पन्न किया है, ये सब मुझसे निकल कर मुझमें ही विलीन हो जाते है जैसे सागर के जल से वाष्प बूँद बन जल पुन: सागर मैं गिर उसमैं मिल जाता है,

मैं ही शून्य हूँ जिसका कोई छोर नही होता, जो जहॉ से शुरु वहॉ खत्म होता है, जो कुछ न होकर भी खुद में पूर्ण हूँ, मैं ही सत्य हूँ, मैं ही जीवन हूँ मैं ईश्वर हूँ!!"

कल्याण हो


ईश्वर वाणी१६७, जन्मों के कर्म व जीवन

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों मैं तुम्हें सतयुग मैं जैसी आत्माये प्रवेश करेंगी उनके विषय मै बता चुका हूँ किंतु आज तुम्हें उन मनुष्यों के विषय मैं बताता हूँ जौ कलियुग मै घोर पाप कर्मों मैं लग कर मानव जीवन नष्ट करमद हे है, साथ ही मैं बताता हूँ उन मनुष्यों के विषय मैं जो सतयुग मैं मानव जन्म ले चुके हैं एवं आने वाले युगों मैं वो क्या भूमिका निभाते है साथ ही वह आत्मायें जो सतयुग मैं मानव रूप मैं नही थी आने वाले युग मैं क्या भूमिका निभाती हैं!!

हे मनुष्यों जो व्यक्ति सतयुग मै मानव जीवन प्राप्त कर चुके है वह ही आने वाले युग मैं सच्चे साधु, संत व सन्यासी बन जगत व प्राणी जाति के कल्याण मैं योगदान देते है (जैसे स्वामी विवेकानंद), ऐसे ही व्यक्ति अंतत: मोछ प्राप्त कर निश्चित समय बाद मुझमें ही मिल जाते है एवं जब मै फिर श्रष्टी का निर्माण कर युग प्रथा का चलन प्रारम्भ करता हूँ वे ही आत्मायें पुन: सतयुग मैं मानव जीवन पाते हैं!/

कितु जो आत्माये सतयुग मैं मानव जीवन प्राप्त नही कर पायी वह अन्य युग मैं मानव जीवन प्राप्त करते हैं, केवल यही आत्मायें ही सच्चे साधु, संत व संयासीयों का सानिध्य पा कर नेक कर्म करके सतयुग मैं अपना श्रेष्ट स्थान सुनिश्चित करते है, इनके कर्म ही उस युग क्या जीवन पायेंगे ये तय करते है!!

किंतु जो मनुष्य केवल पाप कर्म और स्वार्थ सिध्धी मैं निहित रहते हैं वह मानव जीवन के पुन्यों का नाश कर युगों तक विभिन्न जन्म प्राप्त कर दुख भोगते हैं, इन्हें मानव जीवन अपने पिछले कर्मों का प्रायश्चित कर सतयुग मैं तथा स्वर्ग मैं स्थान प्राप्त करने हेतु मिलता है किंतु इस बात को भुला कर शक्ति के मद मैं आकर अपने पुण्यों को नष्ट कर सदा जन्म जनमातंर के फेर मैं घूमते हुये दुख पाते हैं!!

किंतु प्रलय युग मै् मानव के अतिरिक्त जो भी जीव जंतु है निश्चित काल के बाद मानव जीवन मै प्रवेश पायेगे, और जो आज मानव है अपने बुरे कर्मो के अनुसार अन्य जीव जंतु का जीवन पायेंगे!!

हे मनुष्यों यु तो सारी श्रष्टी और सभी जीवों को जीवन मैं ही देता हूँ इसलिय कोई कम या अधिक मेरे समछ नही जैसे  तुम्हारी संतान जो बहुत तेज तर्रार है तो दुसरी मंद बुध्धी किंतु जब प्रेम की बात आती रै तो तुम दोनों से समान करते हो लेकिन मंद बुध्धी बालक के साथ अधिक समय बिताते हो क्यौकि उसे तुम्हारी आवश्यकता अधिक होती है,

वैसे ही मैं तुम्हारे साथ तब हूँ जब तुम मुझे पुकारते हो किंतु पशु-पछियों के साथ सदा हूँ, किंतु मनुष्यों तुम्हें मैने जगत व इन प्राणियों के कल्याण हेतु भेजा है ताकि मेरी बनायी रचना की उचित देख रेख कर तुम खुद भी उध्धार पाओ!!"

कल्याण हो


Saturday 3 December 2016

ईश्वर वाणी-१६६, भौतिक व ईश्वरीय स्वर्ग व नरक

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों  यध्यपि मैं तुम्हें पहले ही स्वर्ग व परमधाम के विषय मैं बता चुका हूँ किंतु आज तुम्हे अपने भोतिक शरीर मैं प्राप्त स्वर्ग व आत्मा द्वारा प्राप्त स्वर्ग व नरक के विषय मैं बताता हूँ,

हे मनुष्यों तुम्हारे भोतिक शरीर द्वारा प्राप्त सभी सुख, तुम्हारी सफलता व संतुष्टी ही भोतिक देह द्वारा प्राप्त धरती पर स्वर्गीय सुख है जो तुम्हैं सभी भौतिक सुख की सुखद अनुभूती देता है!!

इसके विपरीत तुम्हारे दुख, भोतिक सुख का अभाव, असंतुष्टी, संघर्ष, निराशा, हताषा, असफलता, क्लेश धरती पर ही प्रप्त नरक है, जो तुम्हैं पिछले जन्मों के कर्मों से मिला है, किंतु मानव जीवन मिला ताकी तुम अपने पिछले जन्मों के पापों का प्रायश्चित कर स्वर्ग प्राप्त कर सको जहॉ का सख वैभव धरती के सुख वैभव अनंतगुना अधिक है,

हे मनुष्यों यदि प्रथवी पर सभी दुख झेल कर भी सदा मेरे बताये मार्ग पर चलते है, गलत मार्ग नही चुनते, ईश्वर पर आस्था रखते हुये पाप कर्मों से भय खाते हुये उनसे दूर रहते हैं वही उस स्वर्ग को प्राप्त करते है,

हे मनुष्यों सच्चे मन से मेरी उपासना करने वाला, सदैव दूसरों से अपने समान प्रेम करने वाला, जरूरतमंदों की निस्वार्थ सहायता करने वाला ही परमधाम मैं प्रवेश पाता है, परमधाम स्वं मै ही हुँ, मुझमें लीन व्यक्ती युगों तक जन्म नही लेता, किंतु स्वर्गीय आत्मा फिर निश्चित काल के बाद जन्म लेते हैं जो उच्च व श्रेष्ट जीवन जी कर समाज व प्राणी जाती का कल्याण करते हैं!!

हे मनुष्यों जो आत्मा परमधाम यानी मुझमें लीन हो जाते है वह आदी सतयुग व सतयुग मैं पुन: जन्म लेते हैं और धरती को अपने श्रेष्ट गुणों से ईश्वीय व पावन बना देते हैं,तभी आदी सतयुग को व सतयुग को ईश्वरीय युग कहा जाता है तथा उस युग मैं भगवान रहने की बात कही गयी है,

अर्थात मानव मै इतने श्रेष्ट गुण होते हैं की उन्हें भगवान का स्थान प्रापत है, मानवों इसलिये अपने कर्म ऐसे बनाओ जो उस युग मैं प्रवेश पा सको,

हे मनुष्यों बुरे कर्म के कुछ व्यक्ति भी उस युग मैं प्रवेश पायेंगे जिन्होंने पिछले जीवन अथवा इस जीवन मैं जाने अनजाने कोई श्रेष्ट कर्म किया होगा, किंतु वह मानव नही अन्य जीव-जंतु के रूप मै ही तब वहॉ जीवन पायेंगे, इसलिय अपने कर्म सुधार कर उस युग मैं अपने लिये स्थान सुनिशचित करो जिसे दैविय युग भी कहा है"

कल्याण हो