Friday 10 February 2017

ईश्वर वाणी-१९५, आत्माओ का सागर

ईश्वर कहते है, "हे मनुष्यों मैं ईश्वर सभी आत्माओं में परम होने के कारण परमात्माँ हूँ, मैं सभी आत्माओं का सागर हूँ, जैसे विशाल सागर से जल भाप बन कर बदल में चला जाता है फिर बूँद बन कर फिर सागर में पुनः गिरता जाता है, वैसे ही सभी आत्माये मुझ से ही निकल कर पृथ्वी पर भौतिक देह अपने कर्मो के अनुसार प्राप्त करती है, उसके बाद निश्चित समय के बाद आत्माओ के महासागर अर्थात मुझमे पुनः लीन हो जाती है।

हे मनुष्यों मैं ही इश्वरिये लोक हूँ, मैं ही स्वर्ग हूँ, मैं ही नरक हु, जैसे आत्माओ के कर्म होते है वैसे ही उसे यहाँ स्थान मिलता है, निश्चित अवधि के बाद पुनः जन्म मिलता है, इस प्रकार ये चक्र चलता रहता है, न सृष्टि कभी सदा के लिये ख़त्म होती है न आत्मा आत्मा एक मोक्ष प्राप्त कर जन्म लेना बंद करती है।


चारो युगों के बाद सृष्टि अंधकार में डूब जाती है, शून्य से निकली सृष्टि पुनः शून्य में समां जाती है, सभी आत्माये मुझमे विलीन हो जाती हैं किन्तु फिर से सृष्टि की उत्पत्ति होती है पुनः आत्माये जन्म लेती हैं।

हे मनुष्यों इसलिये ये न समझो तुम पहली बार इस धरती पर आये हो, तुम तो जाने कितनी बार आये हो और आओगे बस ये भोतिक रूप बदलता रहेगा किन्तु तुम तो सदा वही रहोगे जैसे अब तक कितनी बार तुम्हारा भौतिक रूप बदला किन्तु तुम तो वही रहे।
मुझ विशाल आत्मा के सागर से निकल कर पुनः मुझमे तुम मिले फिर निकले फिर मिले सदा यही होगा, सादेव् तुम मेरी इस ज
क्रीड़ा के पात्र रहोगे।"

कल्याण हो


ईश्वर वाणी-१९४, पृत्वी और सूर्या

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यु तो तुम्हे मैं पहले ही
बता चूका हूँ
तुम्हारी देह अर्थात भौतिक रूप के आदि माता पिता सूर्या
देव और पृथ्वी
है।
यद्धपि अनेक शाश्त्रो में सूर्या देव की अनेक
पत्नी और संतान बतलायी गयी
हैं किन्तु भौतिक रूप में सूर्य देव की पत्नी
पृथ्वी का रूप धारण कर सभी
आत्माओ को भौतिक शरीर प्रदान करती है और
सूर्या देव के आवश्यक ताप से ही
जीवन पनपता है।
हे मनुष्यों पृथ्वी का आंतरिक ताप इसलिए सूर्या के ताप
जितना ही गर्म है,
किन्तु प्राणी जाती के जीवन के लिये
पृथ्वी को अपने पति जितने ताप को
अपनी गहराइयो में ले जाना पड़ा ताकि यहाँ आत्माये भौतिक
रूप प्राप्त कर
सके।
माता को शांत व् शीतल करने के उद्देश्य से ही
यमुना व् तपती ने नदी का
रूप धारण किया और पृथ्वी पर बहने लगी,
इसी प्रकार माता पृथ्वी को शांत व्
शीतल रखने के लिये ही पहाड़ो से लेकर विशाल
सागर तक जल किसी न किसी रूप
में विराजित है ताकि धरती शांत व् शीतल
बनी रहे और जीवन यहाँ उत्पन्न
होता रहे।
हे मनुष्यों जिस सूर्या के ताप के साये में तुम सब जिव पलते हो ये तो
उसके वास्तविक ताप ताप का मात्र १६% ही है, यदि
वास्तविक ताप पर वो आ जाए
तो पृथ्वी से जीवन ही नष्ट हो
जाये।
सूर्या देव की पत्नी की प्राथना और
आग्रह पर ही उन्होंने अपने ताप को
पृत्वी पर कम किया और जीवन उतपन्न करने
व् पालन पोषण के लिए मात्र १६% ही
ताप धरती पर भेजने का वादा किया, इस प्रकार
धरती सभी भौतिक देह धारियों
की माता व् सूर्य देव पिता हुये।
कल्याण हो

Tuesday 7 February 2017

ईश्वर वाणी-१९३, पृथ्वी पर जन्म

ईश्वर कहते है, "हे मनुष्यों यद्यपि तुमने यह तो अवश्य ही सुना होगा की पृथ्वी की आंतरिक सतह बेहद गर्म है, उस पर जीवन तो क्या कोई भी वस्तु गिर जाये या संपर्क में आ जाये तो तुरंत भाप बन कर उड़ जायेगी।

हे मनुष्यों ये एक परम सत्य है की समस्त ब्रह्माण्ड की रचना का करक एक विशाल अंडा ही है, जिसमे से सभी ग्रहो के साथ पृथ्वी का भी अविष्कार हुआ, सभी ग्रहो में से केवल एक इकलोती स्त्री तत्व पृथ्वी ही है, इसलिये सभी जीवो, पेड़-पौधों व् जीवन की जननी यही है, ईश्वर अर्थात मैंने भी धरती पर लीला रचने हेतु समय समय पर अपने ही एक अंश को भेजा।

हे मनुष्यों किन्तु धरती को इस योग्य बनाने के लिये उसे शांत करना अति आवश्यक था जो मैंने किया, सर्व प्रथम धधकते अंगारो सी धरती को शांत करने के लिये आकाशीय दिव्य सागर  से जल वरषा की, इससे जब वह शांत व् शीतल हुई तब उसकी ऊँची ऊँची पथरीली चोटी जो अति गर्म होने के कारन व् जल वरषा से शीतल हो कर जमने के कारन बनी थी वहा बर्फअर्थात जमा हुआ जल एकत्रित किया, एवं सागर के रूप में एक विशाल गड्ढे में (जो पृथ्वी की गर्मी के कारन अनेक विस्फोटों से बना था) अथाह जल एकत्रित किया जो पर्वतो से लगातार नदियो  (पर्वतों  से पिघल कर बहने वाला जल)से हो कर यहाँ जमा होता रहता है और सृष्टि के अंत तक रहेगा इसके साथ ही भूमि के अंदर भी हर स्थान पर निश्चित गहराई पर भी जल उपलब्ध है जिसे तुम पीते भी हो। ये सब इसलिये है ताकि धरती का अंदरुनी ताप ऊपर न आ सके, और धरती जीवन के लिये एक अनुकूल स्थान बनी रहे, जीवन की सभी प्राथमिक व प्राकृतिक  वस्तुये वह उपलब्ध रहे।

हे मनुष्यों कभी तुमने विचार किया है आखिर एक विशाल हिस्से में ही पृथ्वी के सागर क्यों है, आखिर भूमि क्षेत्र इतना कम क्यों है, ऐसा इसलिए ताकि धरती के अंदर का ताप बहार ना आ सके, धरती शीतल व् शांत रहे, ताकि यहाँ जीवन रह सके, इसलिये ऊँची ऊँची पर्वत श्रंखलाओ पर भी बर्फ की मोटी चादर डाली ताकि पहाड़ो के अंदरुनी भाग से गर्मी बाहर न आ सके और जीवन न नष्ट हो सके।

हे मनुष्यों तुमने अक्सर ज्वाला मुखी फूटने की बात सुनी होगी, ये धरती का वही ताप का एक छोटा सा हिस्सा है, सोचो अगर विशाल सागर और बर्फ से इसे मैंने शांत न किया होता तो क्या धरती पर जीवन होता।


कल्याण हो

Monday 6 February 2017

कविता

"यही बस एक इतनी सी चाहत थी मेरी
सबके साथ चलने की हसरत थी मेरी

इन फिज़ाओ में खुल कर मुस्कुरा सकूँ
बस एक इतनी सी ही तो ख्वाइश थी मेरी

क्या बता था ये ज़माने को ना मंज़ूर होगा
हर तरफ बस धोखों का ही एक मंज़र होगा

हमराही कहने वाले ही राह भुलाते है यहाँ
क्या पता था हमसफ़र भी यहाँ बेमान होगा

बस एक अपनी पहचान की ही चाहत थी
ज़िन्दगी में बस एक मुकाम की चाहत थी

बन कर मिशाल राह दिखा सकूँ सबको में
बस दिलमे एक यही तो हसरत थी मेरी

यही बस एक इतनी सी चाहत थी मेरी
सबके साथ चलने की हसरत थी मेरी-२"

गीत-शीशा समझ कर

"शीशा समझ कर दिल मेरा वो तोड़ गया
गम और आँसू ही मुझे वो आज दे गया

वफ़ा की सजा दी मुझे उस हर्जाइ ने ऐसे
कितना आज यूँ तनहा मुझे वो छोड़ गया

रुलाया सताया हमेशा तूने उमर भर मुझे 
तेरी बेवफाई की बता क्या सजा  दू तुझे

मोहब्बत की झूठी दुनिया दिखाई तुने मुझे
मझधार में इश्क के क्यू यूँ छोड़ गया तू मुझे

तुझे पा कर मैंने तो पाया था अपने रब को
तुझे दिल में बसा कर पाया था सभी कुछ तो

तू ही तो रब था मेरा तू ही तो था खुदा
दिल मेरा तोड़ कर आखिर तुझे क्या मिला

तू आज खुश है उस गैर को अपना बना कर
भूल चूका मेरी मोहब्बत एक सपना बता कर

आखिर ऐसे क्यों मुझसे तू मुँह मोड़ गया
शीशा समझ कर दिल मेरा वो तोड़ गया

ज़माने में एक तमाशा मेरी आशिकी का बना
जज़्बातों से खेल अकेला मुझे वो  छोड़ गया

शीशा समझ कर दिल मेरा वो तोड़ गया
गम और आँसू ही मुझे वो आज दे गया-2"

Saturday 4 February 2017

ईश्वर वाणी-१९२, आत्मा का आकर

ईश्वर कहते हैं, हे मनुष्यों यूँ तो आत्मा निराकार है, इंद्री विहीन है, न तो चेतना है न अचेतना, इसे कभी किसी भी चीज़ का अहसास नहीं होता, किन्तु जब ये भौतिक देह धारण कर लेती है तब समस्त इन्द्रियों को जान लेती है, जन्म से पूर्व एक नासमझ शिशु के समान होती है जो इस दुनिया में अभी अभी आया हो और सबसे अनजान हो, जन्म से पूर्व आत्मा बिलकुल वैसी ही होती है।

किन्तु जन्म के पश्चात् अपने कर्म के अनुसार जो कुछ पाप और पुण्य अर्जित करती है उसके अनुसार ही देह त्यागने के बाद उसे कहाँ जाना है ये तय होता है, कोन सी आत्मा मोक्ष पायेगी, कोन सी पित्र लोक जायेगी, कोन सी यमलोक जायेगी, किसे भूत, प्रेत, पिशाच बनना है ये तय होता है

हे मनुष्यों जब आत्मा देह को त्यागति है तब अपने सूक्ष्म शरीर के साथ उस भौतिक काया से बहार आती है, ये भौतिक शरीर जैसा ही बिलकुल होता है जैसे मृत्यु पूर्व उक्त व्यक्ति का था, इसके बाद इसके कर्म तय करते हैं इसे कहाँ जाना (स्वर्ग, नरक, ईश्वरीय लोक, पित्र लोक) और क्या बनना (भूत, प्रेत, पिशाच) है। जो आत्मा स्वर्ग व् ईश्वरीय लोक अथवा पित्र लोक जाती है, स्वर्ग लोक जाने वाली आत्मा शीघ्र ही पुण्य पूर्ण करने पर जन्म लेती है एक अच्छे कुल में जहाँ सभी तरह की सुख सुविधा उन्हें मिलती हे।

किंतु पितृ लोक, ईश्वरीय लोक वाली आत्मा कई युगों तक जन्म नही लेती, किन्तु ऐसी आत्माये सतयुग में अवश्य जन्म लेती है, और धर्म का प्रसार करती हैं। किंतु नरक जाने वाली एवं भूत, प्रेत, पिशाच जन्म धारी आत्माये अपने बुरे कर्म के अनुसार कठोर दंड प्राप्त कारती हैं, जो आत्मा सीधे ही नरक पहुची उन्हें यमदूत द्वारा कठोर दंड मिलता है, ऐसा इसलिये ही नही की इसने बुरे कर्म कर जीवन गवाया बल्कि अब जो भी जन्म इसके कर्म अनुसार मिले सत्कर्म करे और मोक्ष को पाये।ऐसे ही भूत, पिशाच, प्रेत जन्म धारी आत्माओ को नरक भोगना पड़ता है, कठोर यातना सहनी पड़ती है ताकि अगला जन्म और उसके कर्म मोक्ष उसे दिला सके।

हे मनुष्यों ये सब होता है तुम्हारी आत्मा उस सूक्ष्म शरीर को धारण किये रहती है, नरक जाने वाली, पित्र लोक जाने वाली व् भूत, प्रेत, पिशाच ये सब अपने भौतिक देह जैसे ही रूप में सूक्ष्म शरीर में होते हैं, किंतु अपने कर्म (पितरों को छोड़कर) यमराज द्वारा कठोर दंड प्राप्त कर जब दुबारा जन्म लेते है तब पिछले जन्म के भौतिक रूप को त्याग एक निराकार आत्मा बन शिशु देह में प्रवेश कर नया जीवन प्राप्त करते है।

हे मनुष्यों मैंने तुम्हें यहाँ पितरो के विषय में बताया की सूक्ष्म शरीर धारण वो भी करे होते हैं किन्तु नरक प्राप्त आत्मा की भाति फिर दोबारा जन्म नहीं लेते, ऐसा इसलिये नरक भोग चुकी आत्मा अपनी सजा काट कर, यातना से तप कर निराकार रूप में आ कर फिर दोबारा कर्म करने के लिये नयी देह की अभिलाषी होती है जो कर्म अनुसार मिलता भी है, किन्तु पितृ लोक की आत्मा सूक्ष्म शरीर धारण अवश्य करती है किन्तु श्रेष्ट कर्म होने के कारन सुख प्राप्त करती है न सिर्फ अपितु अपने कुल को भी निहारती है, उन्हें आशीर्वाद देती है, इसके साथ जब पुनः सृष्टि का निर्माण होता है तब सतयुग में पुनः जन्म लेती है किन्तु इससे पूर्व इसे भी निराकार रूप पहले धारण करना पड़ता है, इसके पश्चात इश्वरिये लोक की आत्मा के साथ मिल कर एक श्रेष्ट युग का निर्माण करती है जो धरती पर ही स्वर्ग की अनुभूति प्रदान करता है।"💐

कल्याण हो

Thursday 2 February 2017

ईश्वर वाणी-१९१, आत्मा जो परम है अर्थात परमात्मा को पहचानो

ईश्वर कहते है, "हे मनुष्यों यद्धपि संसार में मैंने अपने ही एक अंश को अपने समान अधिकार व् शक्तियाँ दे कर धरती पर भेजा जब जब जहाँ जहाँ मानवता की हानि व् प्राणी जाती का दोहन और जगत का शोषण हुआ, शक्तिशालियो ने निरीहों को सताने की सभी सीमाये जब भी पार हुई, धरती से जब जब रक्त के अश्रु गिरे, जहाँ जहाँ इसका रंग लाल हुआ मैंने अपने एक अंश को सभी अपने समान शक्ति व् अधिकार दे कर देश, काल, परिस्तिथि के अनुरूप भेजा, जिसे तुमने अपने रीति-रिवाज़ व् भाषा के अनुरूप कही मसीह कही खुदा कही भगवान कहा।

हे मनुष्यों मेरे इन्ही अंश ने देश, काल, परिस्तिथि के अनुरूप जो ज्ञान व् शिक्षाये संसार व् मानव जाती व् प्राणी जाती के लिए दी, उन्हें अपना कर चलने वालो को उन पर विश्वाश करने वालो को नाम दे दिया गया इंसान द्वारा ही 'धर्म', अर्थात वो व्यक्ति उक्त धर्म का अनुयायी है, इस प्रकार तुम्हारे द्वारा जन्म हुआ तुम्हारे द्वारा बनाये गए इस भेद-भाव पूर्ण धर्म का जो खुद को सदा श्रेष्ट और अन्य को नीचा कहता है।

हे मनुष्यों तुम आज धर्म के आधार पर लड़ते हो, इसलिये क्योंकि वो लोग मेरे अंश द्वारा दी गयी उस शिक्षा का पालन कर रहे है जिसका तुम  नहीं कर रहे, इसलिये तुम उसे नीची निगाह से देख रहे हो उसकी निंदा कर रहे हो क्योंकि वो मेरे उस अंश अथवा रूप पर आस्था रख मेरे वचनो का पालन कर रहे है जिसका तुम नहीं कर रहे, किन्तु ऐसा करके अपने ही पापो को बड़ा रहे हो।

ऐसा इसलिये तुम कर रहे हो क्योंकि तुमने मेरे द्वारा धरती पर भेजे मेरे अंश को उसके भौतिक रूप से जाना, देश, काल, परिस्तिथि, भाषा, रीती-रिवाज़, पहनावा जो उसने वहाँ के अनुरूप अपनाया उसे उसके ही आधार पर समझा, किन्तु तुमने उस आत्मा को नही देखा जो अनंत वषो से एक है,
'जैसे तुम किसी वस्त्र को धारण करते हो, फिर कल दूसरा फिर अगले दिन तीसरा किन्तु तुम तो वही रहे न केवल वस्त्र ही बदला',
'जैसे तुम शहर से गाँव रहने गये वहा के अनुरूप ही भाषा, रीती, रिवाज़, वेशभूषा तुम्हे अपनी पड़ती है, वैसे ही गाँव से शहर आने पर यहाँ के अनुरूप खुद को ढालना पड़ता है।
यदि तुम दूर देश जाओ रहने तब भी तुम्हे वहाँ के अनुरूप ही खुद को ढालना पड़ता है, देश, काल, परिस्तिथि के अनुसार भाषा, वेशभूषा, रीती-रिवाज़ सब बदल जाते  है जब तुम अपने एक स्थान से दूसरे दूर किसी स्थान पर जाते हो किन्तु मूल भाव तुम रहते तो वही हो न, न की बदल गए, कुछ और बन गये, परिवार और मित्रों के लिये तुम प्रेम भाव तो वही रखोगे न चाहे कितनी भाषा बदल जाये, वेशभूषा, रीती रिवाज़ दूसरे स्थान और वहा की परिस्तिथि के अनुसार बदल जाए।

हे मनुष्यों जब तुम नही बदले तो मेरा ही अंश जो मुझसे ही निकला है, अर्थात एक रूप से मैं स्वम अपने अंश के रूप में धरती पर देश, काल, परिस्तिथि के अनुसार जन्म ले कर आता हूँ मैं खुद कैसे बदल सकता हूँ।

हे मनुष्यों ये तुम्हारी बड़ी ही अज्ञानता है जो तुम सिर्फ इसलिए अपने बंधुओं से लड़ते हो व् उनके धार्मिक स्थानो को नुकसान पहुचाते हो जो मुझे अल्लाह, मसीह या भगवान कहते है, क्योंकि तुम्हारे पापो ने तुम्हारी आँखों को अँधा कर दिया है, तुम मुझे केवल भौतिक देह के आधार पर ही मान रहे हो, केवल उसे ही और उस रूप को ही सत्य मान रहे हो जिस पर तुम्हारी आस्था है, बाकी मेरे स्वरुप को नकार कर मुझपर विश्वाश करने वालो को नुक्सान पंहुचा रहे हो ऐसा करके तुम मुझ पर ही अश्रद्धा दिखा रहे हो और अपने पुण्यो को कम कर रहे हो।

हे मनुष्यों यही अज्ञानता और मूर्खता तुम्हारे अंत का कारण बनेगी, संभल जाओ और मेरे भौतिक नहीं वास्तविक रूप को पहचानो उसकी उपासना करो, मानव धर्म का पालन करो तभी उद्धार पाओगे, आत्मा जो परम है परमात्माँ मुझे पहचानो, मुझे मेरे अंश अथवा भौतिक रूप से नहीं उस सत्य से पहचानो से अनंत काल से है और रहेगा और जो तुम्हारा और समस्त जीवो व् समस्त ब्रह्माण्ड का जनक है।"

कल्याण हो