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Sunday, 16 October 2016

ईश्वर वाणी-१५६, मानव जीवन के कर्म

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों अपने स्वार्थ को त्याग, केवल अपने हित के विषय मैं सोचना त्याग, क्यौकि ऐसा तू अपनी पशु यौनी मैं कर चुका है, इस मानव जीवन मैं तो वही कर जिसके लिये ये जीवन मिला है जगत और प्राणी जाती का कल्याण,

हे मनुष्यों मैं ये नही कहता की सब कुछ त्याग कर वैरागी बन जाओ, अपितु तुम मानव जीवन के सम्सत कर्म करो किंतु स्वार्थ बुराई, घ्रणा, अपवित्रता, अवहेलना, भेद-भाव, ऊँच-नीच भाषा, संस्क्रति, सभ्यता, जाती, धर्म, सम्प्रदाय, देश, समुदाय, द्वेश के साथ काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से दूर रह कर सभी जीवों से प्रेम कर उनके कल्याण हेतु कार्य करना,

हे मानव यदि किसी जीव से तुम घ्रणा करते हो ये न भूलो हो सकता है पिछले जन्म का ये तुम्हारा अनुज हो, हे मनुष्यों यदि तुम स्वं इनकी भलाई हेतु शारीरिक रूप से सहायता न कर पाओ तो उन व्यक्तयों को दान दो (श्रध्धा अनुसार) जो प्राणी कल्याण मैं नि:स्वार्थ सलग्न है, किंतु परख कर ही दान दो साथ ही समय निकाल कर जो लोग अथवा तुम दान देते हो उनके कार्य को देखने अवश्य जाओ, प्रयास करो उनके साथ प्राणी कल्याण मैं सहयोग का,


तुम्हारा कल्याण हो"

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