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Tuesday, 14 February 2017

ईश्वर वाणी-१९६, सन्यास का मार्ग


ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यु तो तुम्हे मैं साधू, संत और सन्यासी के बीच क्या भेद है बता चूका हूँ, किन्तु आज बताता हूँ सन्यास और सन्यासी के विषय में थोडा और विस्तार से।
सन्यास एक व्रत है जिसे हर व्यक्ति नहीं कर सकता, इसलिए साधू और संत जग में अधिक मिल जाते है किन्तु सन्यासी नहीं, एक सन्यासी वह होता है जिसने सबसे पहले अपने विषय में सोचना त्याग सभी जीव मात्र के लिए सोचना व् कार्य करना प्रारम्भ कर दिया हो, एक सन्यासी जाती, धर्म, सप्रदाय, भाषा, रंग, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, रीती-रिवाज़ जैसी किसी भी कुरीति को नहीं मानता, सभी जीवो में अपने परिवार को देखता है, पूरी धरती ही उसका घर है, जीवो को वो देह से नहीं अपितु आत्मा से देखता है तभी उसकी दृष्टि में कभी किसी की मृत्यु नहीं होती, क्योंकि आत्मा कभी मरती नहीं, साध ही समाज व् समस्त प्राणी की भलाई के विषय में ही सोचता है, निजी स्वार्थ उसमे नहीं होता, समाज की मुख्या धारा में न हो कर भी वो समाज के कल्याण हेतु की कार्य करता है।
साधू और संत के बाद ही आखिरी पड़ाव आता है सन्यासी का जिसे वैरागी भी कहते है, साधू जो साधक है, जो तुममे से कई होंगे ईश्वर अर्थात मुझ पर असीम आस्था रखने वाले, साधू जो घर में रह कर गृहस्थ जीवन का पालन कर रहे है वो भी है किन्तु गृहस्थी के बाद जो अर्थात गृहस्थ जीवन के बाद मेरी साधना के लिये घर से अलग हो जाते है वो भी है, ये सन्यासी की श्रेणी में नहीं आते क्योंकी कही न कही मन इनका परिवार में ही होता है।
इस पड़ाव के बाद आता है संत, ऐसे व्यक्ति भी गृहस्थ और अग्रहस्थ दोनों ही हो सकते है, जो व्यक्ति अपने परिवार और अपने पर आश्रित परिवार वालो के हित के कार्यो में लग कर भी सदा मेरे ही विषय में निःस्वार्थ सोचता रहे, भजता रहे, उपासना करता रहे, अपने कष्टो में भी मुझे दोष न दे, सभी कुछ सह कर भी मुझ पर असीम श्रद्धा रखे वही संत है, संत में सबसे पहला नाम इसलिए संत सुदामा का आता है।
तत्पश्चात आता है सन्यासी, साधू और संत के पड़ाव पूर्ण करने के बाद किन्तु जो विवाह जैसी संस्था में नहीं बधते एवं ईश्वर की भक्ति के लिये घर, परिवार व् समस्त रिश्तों को त्याग कर समस्त जगत को ही अपना मान लेते है वही सन्यासी है, अपने अंदर की समस्त बुराई का त्याग कर केवल इश्वरिये मार्ग पर चलने वाला, समस्त जीवो से सामान स्नेह रखने वाला, आवश्यकता पड़ने पर समाज के कल्याण के लिये ही कार्य करने वाला ही सन्यासी है।
ये मार्ग बहुत ही कठिन है, अधिकतर व्यक्ति इस मार्ग पर चलते तो है पर टिक नही पाते कारण वो अपने अंदर के कपट का त्याग नही करते, अपने अंदर की बुराई का त्याग कर इन्द्रियों को वष में नही करते, इसलिये इस मार्ग पर भटक जाते है।
हे मनुष्यों यदि कोई तुम्हे पीले, सफ़ेद, नारंगी या विशेष रंग के परिधान में व्यक्ति आ कर कहे की वो सन्यासी है तो उसके वस्त्रो से उसके सन्यासी होने पर यकीं करने से पहले पता लगा लेना की कि आखिर सत्य क्या है, अधिकतर कलयुग में ऐसे छलिया बहुत है।
अगर सच्चे सन्यासियो की बात की जाये तो चैतन्य महाप्रभु और स्वामी विवेकानंद का नाम पहले आता है।
एक सच्चा सन्यासी अपने ज्ञान का निःस्वार्थ प्रचार प्रसार करता है, सभी के कल्याण के विषय में विचरता है, मुझ पर असीम श्रद्धा रखता है, इसलिये मेरी भी विशेष कृपा को प्राप्त कर पाता है, इस व्रत और इस मार्ग पर केवल वही चल सकता है जिसकी आत्मा पावन हो अर्थात अपने पिछले कई जन्म उसने बुराई रहित जिए हो साथ ही जिसे मैंने स्वम इसके लिये चुना हो, तभी बहुदा बहुतो में से केवल एक ही सच्चा सन्यासी होता है।"
कल्याण हो

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