Monday, 8 August 2016

ईश्वर वाणी-१५०, ईश्वर का प्रसाद

 ईश्वर कहते है, "हे मनुष्यो यध्यपि मै तुम्हारी सच्ची प्रेम पूर्वक की गयी अराधना, स्तुति को स्वीकार करता हू, किन्तू मेरी पूजा मैं दीप, धूप, पुष्प आदि का क्या वास्तिक अर्थ है अर्पण करने एवं प्रज्जवलित करने का तुम्हे़ बताता हूं,

सुगन्ध चाहे पुष्प की हो या धूप अगरबत्ती की, वास्तविकता यही है इनके जैसा तुम्हारा जीवन महकता रहै, चाहे जीवन मै तुम्हैं जैसी भी परिस्तिथी का सामना करना पड़े लेकिन तुम्हारा विश्वास, यकिन न कभी डगमगाये,तुम्हारा विश्वास कायम रहै, तुम्हारा विश्वास ही तुम्हारे जीवन के सभी कष्ट हर कर तुम्हारी ज़िन्दगी महकायगा, कष्ट रूपी दुर्गन्ध को ये विश्वास ही खुशियों की सुगन्ध से महकायेगा,

हे मनुषों यु तो अनेक व्यकति जो खुद को महाग्यानी कहते है दीप जलाने मोमबत्ति जलाने के हज़ार कारण बताते है लेकिन वास्तविकता क्या है वो भी नही जानते,

हे मनुस्यों इनका प्रज्जवलन इसलिये किया जाता है ताकि तुम्हारे जीवन से अग्यान का अन्धेरा दूर हो, तुम्हारे भीतर की सभी बुराई का नाश हो, सत्य एंव सत्कर्म रूपी उजाला तुम्हारे जीवन को रोशित करे,

हे मनुष्यों यही कारण है जो  मुझे ये अर्पित किया जीता है,

मनुस्यों मुझे भोग लगाया जाता मेरी पूजा मैं कुछ न कुछ जिसे प्रसाद रूप मैं तुम सब ग्रहण करते हे, तथा प्रसाद अधिक से अधिक व्यक्ति को देने का प्रयास किया जाता है,

हे मनुष्यों ऐसा इसलिये किया जाता है ताकि तुम्हारे यहा भोजन की कभी कमी न हो, तुम्हारे द्वार से कोई भूखा न जाये, अनाज़ सदा प्रसाद मेरा बनकर तुम्हारे पास रहे, साथ ही तुम्हारे भीतर भी देने की भावना जाग्रत रहे"

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