ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यद्धपि तुमने इन्द्रियों एवम् उनके प्रकार के विषय में सुना व् पड़ा होगा, उनके कार्यो के विषय में सुना होगा, अक्सर ही कहते सुना होगा लोगो से अपनी इंद्रियो को वश में रखो।
इंद्रिया जो सभी जीव मात्र को अपने संवेदनाओ का बोध कराती है जैसे-सुख, दुःख, हसना, रोना, सुनना, देखना, सोना, जागना, बोलना, चुप राहना जैसे अनेक भाव दिमाग तक पहुचाती है और कैसा व्यवहार तब करना है ये दिमाग तय करता है।
किन्तु जो व्यक्ति इन्द्रियों पर नियंत्रण करना सीख जाते है वह हर स्थिति में सदा एक से ही रहते है, उनका दिमाग समय के अनुसार व्यवहार बदलने के निर्देश नही देता, किन्तु ऐसा केवल एक सच्चा सन्यासी ही कर सकता है, बाकी तो सभी माया के अधीन हो कर खुद ही इन्द्रियों के वश में हैं।
हे मनुष्यों यद्धपि प्रत्येक जीव की आत्मा जन्म से पूर्व इंद्री विहीन होती है, इंद्री का जन्म शिशु के जन्म के बाद ही होता है किन्तु जब आत्मा जन्म लेने वाली होती है तब उसमे इंद्री नही होती जिसके कारण उसके किसी भी प्रकार की संवेदना का बोध् नही होता।
किन्तु जैसे ही देह धारण करती है अनेक सवेंदना को महसूस करने लगती है कारण इन्द्रियों के कारण सन्देश मष्तिष्क और मष्तिष्क उसके अनुसार व्यवहार करने लगता है।
हे मनुष्यों आत्मा और उसका बल ही इस पर नियंत्रण कर सकता है, अक्सर मनुष्य सोचते है अच्छे बुरे कर्म तो देह करती है फिर परनाम आत्मा क्यों भोगती है, बुरे कर्म करने पर आत्मा कष्ट क्यों भोगती है जबकि बुरे कर्म तो देह ने करे है।
इसका उत्तर है आत्मा पुरे शरीर की चालक है, ये ही इंद्री और मष्तिस्क को काबू करने में सक्षम है, यदि किसी की देह बुरे कर्म कर रही है तो इसका अर्थ आत्मा का नियंत्रण शरीर पर नही हो रहा, जैसे एक चालक का नियंत्रण उसके वाहन से जब बिगड़ जाये और कोई हादसा हो जाये तो दंड तो चालक ही पाता है न, न की वो वाहन, इसी कारण आत्मा को ही अच्छे बुरे का फल मिलता है।
इसलिये आत्मा का कार्य है शरीर में निरंतर उत्तपन्न होते भावो पर नियंत्रण रखना, यही क्रिया अर्थात इसे ही इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना भी कहा जाता है, यदि इस पर नियंत्रण कर लिया तो न मष्तिष्क तुम पर हावी होगा और न उसके अनुसार व्यवहार करोगे, अपितु सभी स्थितियों में समान बन मेरी कृपा के पात्र बनोगे, एक सच्चे साधू/संत/सन्यासी बन जगत का कल्याण करोगे।"
कल्याण हो
इंद्रिया जो सभी जीव मात्र को अपने संवेदनाओ का बोध कराती है जैसे-सुख, दुःख, हसना, रोना, सुनना, देखना, सोना, जागना, बोलना, चुप राहना जैसे अनेक भाव दिमाग तक पहुचाती है और कैसा व्यवहार तब करना है ये दिमाग तय करता है।
किन्तु जो व्यक्ति इन्द्रियों पर नियंत्रण करना सीख जाते है वह हर स्थिति में सदा एक से ही रहते है, उनका दिमाग समय के अनुसार व्यवहार बदलने के निर्देश नही देता, किन्तु ऐसा केवल एक सच्चा सन्यासी ही कर सकता है, बाकी तो सभी माया के अधीन हो कर खुद ही इन्द्रियों के वश में हैं।
हे मनुष्यों यद्धपि प्रत्येक जीव की आत्मा जन्म से पूर्व इंद्री विहीन होती है, इंद्री का जन्म शिशु के जन्म के बाद ही होता है किन्तु जब आत्मा जन्म लेने वाली होती है तब उसमे इंद्री नही होती जिसके कारण उसके किसी भी प्रकार की संवेदना का बोध् नही होता।
किन्तु जैसे ही देह धारण करती है अनेक सवेंदना को महसूस करने लगती है कारण इन्द्रियों के कारण सन्देश मष्तिष्क और मष्तिष्क उसके अनुसार व्यवहार करने लगता है।
हे मनुष्यों आत्मा और उसका बल ही इस पर नियंत्रण कर सकता है, अक्सर मनुष्य सोचते है अच्छे बुरे कर्म तो देह करती है फिर परनाम आत्मा क्यों भोगती है, बुरे कर्म करने पर आत्मा कष्ट क्यों भोगती है जबकि बुरे कर्म तो देह ने करे है।
इसका उत्तर है आत्मा पुरे शरीर की चालक है, ये ही इंद्री और मष्तिस्क को काबू करने में सक्षम है, यदि किसी की देह बुरे कर्म कर रही है तो इसका अर्थ आत्मा का नियंत्रण शरीर पर नही हो रहा, जैसे एक चालक का नियंत्रण उसके वाहन से जब बिगड़ जाये और कोई हादसा हो जाये तो दंड तो चालक ही पाता है न, न की वो वाहन, इसी कारण आत्मा को ही अच्छे बुरे का फल मिलता है।
इसलिये आत्मा का कार्य है शरीर में निरंतर उत्तपन्न होते भावो पर नियंत्रण रखना, यही क्रिया अर्थात इसे ही इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना भी कहा जाता है, यदि इस पर नियंत्रण कर लिया तो न मष्तिष्क तुम पर हावी होगा और न उसके अनुसार व्यवहार करोगे, अपितु सभी स्थितियों में समान बन मेरी कृपा के पात्र बनोगे, एक सच्चे साधू/संत/सन्यासी बन जगत का कल्याण करोगे।"
कल्याण हो
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