Friday, 20 January 2017

ईश्वर वाणी-१८७, पिता और पुत्र

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों जब जब धरती पर मानवता एवं प्राणी जाती का दोहन हुआ तब तब मैंने ही संसार में अपने एक अंश को धरती पर मानव एवं समस्त प्राणी जाती की रक्षा हेतु भेज।

"एक राजा था, एक बार उसने अपने पुत्र को अपने सामान अधिकार दे कर कहा 'हे पुत्र तुम जरा राज्य में प्रजा का हाल चाल जान कर आओ, यदि कोई कष्ट में है या दुखी है तो उसका कारन पूछना और दूर करने लायक है तो उसे दूर करना, मैं तुम्हे अपने समान ही अधिकार देता हूँ, और जो तुमसे मदद मांगेगा अथवा तुम जिसकी भी सहायता करोगे अथवा तुम मुझे किसी की सहायता के लिए कहोगे वो पूरी जरूर होगी, आखिर मैं और तुम एक ही तो है, जो तुम्हे सम्मान देगा वो मुझे देगा, जो तुम्हारी निंदा करेगा वो मेरी करेगा, जो तुमसे मांगेगा वो मुझसे मांगेगा, जिनकी तुम सहायता करोगे वो मेरे द्वारा सहायता पायँगे, मैंने तुम्हे वो सब अधिकार दिए हैं जो मेरे पास है, क्योंकि मेरा पुत्र होने के कारण मुझमे और तुममे कोई भेद नहीं है।'

पिता की आज्ञा प्राप्त कर पुत्र राज्य में गया, और जो कष्ट में थे, दुखी और अन्य लोगों द्वारा सताए हुए थे उनकी सहायता की, चूँकि राजा पिता के समान ही उसे अधिकार थे इसलिए उससे जिसने सहायता माँगी न्याय माँगा उसे वो मिला, हालांकि लोगों ने राजा कभी नहीं देखा था, राजा राज्य के अनेक कार्यो में व्यस्त होने के कारण कभी प्रजा के पास नहीं आ पाया था किन्तु तभी उसने अपने प्रिये पुत्र को राज्य में भेज अपने समान अधिकार प्रदान कर यहाँ भेजा ताकि जो वो कार्य करे उसे राजा के समान माना जाये।

इस प्रकार राजा को जिसने नहीं देखा था पुत्र को ही राजा मान सम्मान करने लगे और राजा पिता होने के कारण अपने पुत्र और उसके कार्य एवं उसके सम्मान को देख कर प्रसन्न हुआ।

हे मनुष्यों ऐसे ही मैं जगत का राजा हूँ, मैं ही अपने समान अधिकार दे कर आपने एक अंश को धरती पर प्राणी जाती के हित के लिए भेजता हूँ, तुम जिस पर विश्वाश करते हो, जिसकी आराधना करते हो वो मुझ तक ही पहुँचता है, संसार का राजा में ही हूँ और अपने पुत्र को धरती रुपी प्रजा के उत्थान हेतु भेजता हूँ, जब जब मानव व् प्राणी जाती का दोहन होता है।

कल्याण हो

Wednesday, 18 January 2017

मानव के पास उसका अपना क्या है? आध्यात्मिक सवाल

एक बार सदगुरु से ईश्वर ने पूछा

प्रश्न-: ये बताओ ऐसा क्या है मानव के पास अपना जो वो मुझे दे सकता है, ये धन-दौलत, संतान, परिवार, सेहत, शरीर, रूप, रंग, दिन-रात, सुबह-शाम, उजाला-अंधेरा, पेड़-पोधे, जल-वनस्पति,  तीनो स्थानों (जल, आकाश, भूमि) पर विचरण करने वाले जिव, ये जीवन ये मृत्यु, ये कल आज और आने वाला कल, समस्त ब्रमांड, यहाँ तक की तुम्हारी आत्मा जो तुम्हारे भौतिक शरीर को प्राण देती और मिटटी में मिलने से बचाती मैंने ही तो बनाई, अर्थात सब कुछ तो मैंने ही तुम्हे दिया है, पर ऐसा क्या है जो तुम मुझे दे सकते हो जो केवल तुम्हारा है जिसे तुमने रचा है, ऐसा क्या है जो मुझे तुम दे सकते हो, 
मेरे पास बहुत कुछ है तुम्हे देने के लिए पर एक चीज़ अगर तुमसे कही जाए मांगने को तो क्या मांगोगे?

सदगुरु ने उत्तर दिया

उत्तर:-हे प्रभु मेरे अथवा समस्त मानव के अंदर की बुराई ही केवल उसकी अपनी होती है, केवल वही आपको दे सकता है, और यदि आपसे बहुतो में से केवल एक ही चीज़ मांगने के लिए कहे तो केवल इतना देना की अपने अंदर की अच्छाई का एक छोटा सा अंश मुझे अथवा मानव जाती को दे देना, बदले में जो बुराई हमने अपने इस जीवन में कमाई है वह हमसे ले लेना।

सदगुरु का उत्तर सुन कर ईश्वर मुस्कुरा दिए और तथास्तु कह अंतरधान हो गए

Tuesday, 17 January 2017

ईश्वर वाणी-१८६, आध्यात्म की जीवन मैं आवश्यकता

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों तुम सत्संग करते हो, प्रवचन कहते हो सुनते हो, आध्यात्म की बात कहते और सुनते हो किंतु इसका लाभ तुम्हारे जीवन मैं क्या है तुम्हें पता भी है!!

आध्यात्म व्यकिति को मानवता की शिछा देता है, सभी प्रकार के भेग-भाव से दूर मानव को मुझसे जोड़ता है! तुम्हें मेने क्यौं धरती पर भेजा, तुम्हें क्या करने यहॉ भेजा, तुम कौन हो, तुम्हारा वास्तविक लक्श्य क्या है, संसार मैं तुम्हारा क्या और कितना योगदान होगा, मानव धर्म का प्रचार कैसे करोगे, अग्यानता मिटा कर ग्यान का दीपक कैसे प्रज्जवलित करोगे ये सब तुम्हें आध्यात्म से पता चलता है!!

इसके साथ सही अर्थ मैं मानवता की शिक्छा दे कर नैतिकता के पथ पर चलते हुये अपने कर्तव्यों को पूर्ण करने की प्रेरणा देता है!

हे मनुष्यों तुम धार्मिक पुस्तकें पड़ते हो उनसे भी तुम्हें मानवता की शिक्छा मिलती है, विपरीत परिस्तिथी मैं भी समभलने की प्रेरणा मिलती है, इसलिये आध्यात्म की शिक्छा अतिआवश्यक है जो मानव को उसकी देह से नही अपितु कर्म से मानव बनाती है!

जैसे तुम पाठशाला मैं व विश्वविध्यालय मैं उचित शिक्छा प्राप्त कर अच्छी नौकरी व आय की इच्छा रखते हो और प्राप्त भी करते हो वैसे ही आध्यात्म तुम्हें तुम्हारी आत्मा की तरक्की करता है, उसे श्रेष्ट से सर्वश्रेष्ट बनाता है!

हे मनुष्यों इसलिये आध्यात्म को तुम आत्मसात करो, उसे केवल सुनकर भूलने और फिर सुनने के लिये नही अपितु उस पथ पर चलने के लिये सुनो, यदि ऐसा तुम करोगे तो निश्चित ही खुद को जान लोगे और खुद को जान लिया तो मुझे भी जान लोगे, मैं परमेश्वर!!

कल्याण हो

ईश्वर वाणी-१८५, जगत का पिता

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों युँ तो मैं निराकार हूँ, किंतु जब जब मानव द्वारा मानवता की हानी हुई मैंने ही अपने एक अंश को इसकी रक्छा हेतु भेजा, मैने ही उसे बताया देश, काल, परिस्तिथी के अनसार क्या व्यवहार करना है, कैसा ग्यान प्राणी जाती के कल्याण हेतु देना है, ऐसा ग्यान जब दुनियॉ में जाये तो सबका हित करे,

'एक ज़मीदार था, उसके बहुत सारी जमीन थी, कई गॉव उसके अधीन थे, पहले तो गॉव के लोग उसका सम्मान करते थे, वह इस सम्पूर्ण भुमी का स्वामी है ये कहते थे, उन्हें ये भी मालूम था आखिर ज़मीदार ने उन्हें ये भूमी रहने के लिये इसलिये दी है ताकी इसकी उचित देखभाल कर सके और ज़मीदार अन्य कार्य अपने पूर्ण कर सके,


किंतु समय के साथ ज़मीदार की इस जमीन पर रहने वालों के मन मैं पाप आ गया, वो खुद को ही इसका स्वामी मानने लगे, ज़मीदार को वह कुछ नही समझने लगे, इस प्रकार ताकतवर कमज़ोर को दबा कर उसका शोषण करने लगे, पहले तो ज़मीदार ने सोचा उन्हें समझ आ जायेगी क्यौकि ये भूमी तो उसी की है, उन्हें अहसास हो ही जायेगा इसका असली स्वामी मैं ही हूँ!


किंतु ऐसा नही हुआ और स्तिथी बुरी से बुरी होती गयी, तब ज़मीदार ने सोचा अब समय आ गया है जब गॉव वालों को बताया जाये कि इस भूमि का असली मालिक कौन है और आखिर क्यौ उन्हें यहॉ रहने की अनुमति दी गयी है, इसके लिये ज़मीदार ने अपने एक पुत्र को उस स्थान पर भेजा, उसने बताया कि ये भूमी उसके पिता की है और किसलिये तुम सभी को इस गॉव मैं भेजा गया है, कुछ लोगों ने उस पर विश्वास किया कि ये स़च में ज़मीदार का पुत्र है, जो कमजोर असहाय और शक्तिशालीयौं द्वारा सताये गये थे उन्होने सहर्ष स्वीकार लिया की ये जमीन के स्वामी का पुत्र है किंतु शक्तिशाली शकिति के अहंकार मैं आ कर खुद को ही यहॉ का स्वामी समझ ज़मीदार के पुत्र को पाखंडी कह कर दोष देने लगे, सच तो यह था मन ही मन वो खुद भी भयभीत हो रहे थे कि कहीं ज़मीदार का पुत्र अपने पिता से अनुमति ले उन्हें वहॉ से हटा न दे इसलिये वो उसे नुकसान पहुँचाने व जनसाधारण को उसके खिलाफ करने की कोशिश करते रहे!


किंतु जिसने पुत्र पर विश्वास किया पिता की आग्या अनुसार पुत्र ने उसकी रक्छा की लेकिन जिसने नही किया और बुरे कर्म में पड़ कर दुसरों को सताता रहा उसे ज़मीदार द्वारा दंड मिला! इस प्रकाक जहॉ और जिस गॉव में ज़मीदार की सत्ता को चुनौती दे वहॉ के गॉव वालों ने खुद को ही वहॉ का स्वामी बनने की कोशिश की, अन्य निर्बलों का शोशण किया, ज़मीदार के द्वारा दिये कार्यों की अवह्लेलना की ज़मीदार ने अपने अनेक पुत्रों में से एक किसी भी पुत्र को वहॉ भेजकर वहॉ की स्तिथियॉ सामान्य कर असली स्वामी कौन है और यहॉ रहने वालों के क्या काम है ये बताने भेजा!!


इस प्रकार जब जब ज़मीदार को वहॉ के रहने वालों द्वारा नकारा जाने लगा तब तब ज़मीदार को अपने एक पुत्र को वहॉ भेजकर सबको यह अहसास कराना पड़ा की आखिर असल स्वामी कौन है और तुम सब यहॉ क्यौ हो!!


हे मनुष्यों इस प्रकार मैं ही जगत का स्वामी हूँ, जब जब तुम मेरी सत्ता को चुनौती देते हो मैं ही अपने एक अंश को धरती पर भेजकर मानवता की रक्छा करता हूँ एवम तुम्हे तुम्हारे कर्तव्यों का बोध कराता हूँ, देश, काल, परिस्तिथी, बोली, भाषा, रीति-रिवाज़ो के अनुसार तुम उन्हें अनेक नाम से पुकारते हो, भगवान अथवा मसीह कहते हो, किंतु उन्हें भेजने वाला मैं जगत का जनक और पिता हूँ!

मैं भौतिक देह वाला पिता नही अपितु कण कण को बनाने सवॉरने वाला पिता हूँ, प+इ+त+आ=पिता

प=परम, प्रथम
इ=इच्छा ,ईश्वरिय
त=तत्व
आ=आत्मा

अर्थात परम प्रथम इच्छा ईश्वरीय आत्मा तत्व में ही जगत पिता हूँ, मैं ईश्वर हूँ!

कल्याण हो







Muktak

"Ateet ki fir wahi baat yaad aati,
Ashqo ki fir wahi raat yaad aati hai,
Bewafa se dil lagane ki khata kya ki,
Tanhaiyo ki ye saugat yaad aati hai"

Sunday, 15 January 2017

ईश्वर वाणी-१८४, धरती की अवस्थाये

ईश्वर कहते हैं, ''हे मनुष्यों जैसे मानव के भैतिक देह की एवम् सभी देह धारी जीवो की मुख्य चार अवस्थाये होती हैं वेसे ही पृथ्वी की चार अवस्थाये हैं, इन सभी अवस्थाओ को 'काल' नाम दिया है, ऐसा नहीं है केवल ये अवस्थाये पृथ्वी की ही है अन्य ग्रहो की नहीं, ये तो सभी ग्रहो की अवस्थाये है किन्तु जीवन केवल धरती पर होने के कारण धरती की प्रत्येक अवस्था का प्रभाव सीधा धरती के जीवो पर पड़ने के कारण मैं आज इसके जन्म पूर्व से लेकर अंत तक के विषय में संछिप्त ज्ञान दूंगा।

हे मनुष्यों जब धरती विभिन्न परिस्तिथियों में बन रही रही थी एवं सभी गृह उस समय इसी अवस्था में ही थे, ये बिलकुल वेसी ही प्रक्रिया थी जैसे किसी देह धारी के जन्म लेने से पूर्व की होती है, इसके पश्चात् आदि सतयुग व् सतयुग ये वह समय है जब धरती अपने शैशवास्था में थी, जैसे एक शिशु किसी भी बुराई से दूर होता है, ठीक उस युग में धरती अपने शैशव काल के समय थी।

त्रेता युग धरती का बाल्यकाल है, जैसे एक बालक अपने आस पास के वतावरन को देख कर व्यवहार करता है, कभी झूठ बोलता है कभी चोरी करता है, इस प्रकार छोटी छोटी बुराई उसमे आने लगती है, वेसे ही पृथ्वी पर बुराई जन्म लेने लगी, ये धरती का बाल्यकाल था।

द्वापर युग धरती का एक युवा युग था, जिस प्रकार कुछ युवा सत्कर्म करते है तो कुछ बुरे कर्म करते है, एक जोश और ताकत से सदा भरे होते है, ठीक वेसे ही धरती के युवावस्था के काल द्वापर युग में था, तभी उस काल में 'महाभारत'  जैसे युद्ध हुए, ये सब यव अवस्था के उस अधिक जोश और शक्ति प्रदर्शन के कारण हुआ जोकि धरती के उस युवा काल द्वापर युग में हुआ।

धरती की अंतिम अवस्था वृद्धवस्था अर्थात कलियुग, जैसे वृद्ध के पास अनुभव का अपार सागर होता है वैसे ही धरती के इस युग 'कलियुग' अर्थात वृद्ध अवस्था 
में अनेक अनुभव का अथाह भंडार है किन्तु जैसे वृद्ध अपनी इस अवस्था में कुछ स्वार्थी हो जाते है, सब कुछ जानकर भी अनजान हो जाते है, स्वार्थ में फस कर अंत की चिंता न करते हुए केवल भौतिक सुख को सब कुछ समझ कर उसे पाने में लगे रहते है, वेसे ही कलियुग रुपी धरती की वृद्धवस्था अर्थात कलियुग है, वृद्धवस्था के बाद मृत्यु एक सत्य है फिर नव जीवन भी सत्य है, उसी प्रकार इस युग के बाद फिर धरती की मृत्यु एवं फिर पुनः जन्म होता है,

हे मनुष्यों ये क्रिया अनंत काल से हो रही है और होती रहेगी, किन्तु हे मनुष्यों तुम सोच रहे होंगे ये निम्न अवस्थाये तो धरती की है फिर हम प्रभावित कैसे हुए, धरती को होना चाहिए, किन्तु हे मनुष्यों जैसे तुम्हारे जन्म से पूर्व से ले कर मृत्यु तक तुम्हारे शारीर के अंग प्रभावित होते है वेसे ही धरती पर समय के साथ परिवर्तन से तुम सब प्रभावित होते हो, तुम इसके उन अंगो के समान हो जैसे तुम्हारे शारीर के वह अंग जो तुम्हारी खाल से ढके तो है लेकिन तुम्हारी शारीरिक अवस्था में परिवर्तन के कारण प्रभावित होते है और तुम्हारी मृत्यु के साथ ये भी मृत्यु को प्राप्त होते है।"

कल्याण हो

Saturday, 14 January 2017

ईश्वर वाणी-183, अतुल्य संस्कृति

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यूँ तो तुम्हें में पहले भी चारों युग की जानकारी दे चूका हूँ। किंतु आज आदि सतयुग के विषय के बारे में थोड़ी और जानकरी देता हूँ।

हे मनुष्यों आदि सतयुग वो 'काल' जब संसार में जीवन आ ही रहा था, उस समय इस धरती पर कोई मृत्यु भी नहीं होती थी, सभी जीव प्रेम और भाईचारे से रहते थे, उस समय धरती को मृत्यु लोक का नाम भी नहीं दिया गया था, सभी जीव एक समान ही थे, किसी भी तरह का न भेद भाव और न कोई बुराई थी, सभी आत्माए एक दूसरे का सम्मान करती थी,

हर एक जीव खुद को देह और अन्य को भी देह से नहीं अपितु आत्मा से अपना मानता था, हर तरफ केवल जीवन ही जीवन था।करोडो वर्षो तक ये सब ऐसे ही चलता रहा, बिना किसी बुराई के सभी जीव खुद को एक पवित्र आत्मा मान धरती की रक्षा कर इसे पावन करती रही,

किन्तु सतयुग के समापन और त्रेता के शुरू होने से पूर्व जीव आत्माओ में अनेक बुराइयां उत्पन्न होने लगी, देह के अभिमान में आ कर शक्तिशाली निर्बल को दबा कर उन पर शाशन करने की कोशिश करने लगा।।

किन्तु हे मनुष्यों आदि सतयुग में जहा धरती अनेक खंडो में न बट कर एक ही थी और अथाह सागर दूसरी तरफ,प्राणी जाती के आपसी बेर को देख कर सतयुग के आखिर और त्रेता युग के शुरुआत में भयन्कर भूस्खलन हुआ, फलताह जहाँ कभी भूमि थी वहाँ सागर आ गया और सागर के स्थान पर भूमि, कई जीव इस परिवर्तन को न झेल सके और मृत्यु को प्राप्त हुए, इस प्रकार धरती का नाम मृत्युलोक पड़ा, हर एक काल के बाद इसमें भारी परिवर्तन होता है जिसमे कई प्राणी मृत्यु को प्राप्त होते है, ये क्रिया है जो चलती रहती है साथ ही त्रेता से कलियुग तक सदा जीवन और मृत्यु साथ साथ चलेंगे।

हे मनुष्यों सतयुग आखीरी चरण व् त्रेता के प्रारंभिक चरण से ही मानव ने अपने समुदाय हेतु कुछ व्यवष्ठए और नियम बनाये ताकि कोई किसी का अहित न कर सके

हे मनुष्यों जब सतयुग के आखिर और त्रेता युग के शुरू में भूस्खलन हुआ और नए दीपो का उदय हुआ, वहाँ जो मानव जीवित बचे समय और परिस्तिथि के  अनुसार सभी ने कुछ नियम व् व्यवस्था बनायीं।

हे मानवो यही आगे चल कर रीति रिवाज़ व् संस्कृति कहलायी, समय के साथ बोली बदली भाषा बदली, सब कुछ काल के अनुसार हुआ। किन्तु जब जब जहाँ जहाँ मानव ने अपनी शक्ति के मद में आ कर मेरी सत्ता को चुनोती दी और प्रकति और प्राणी जाती का दोहन किया मैंने ही अनेक स्थानों पर एक अंश के रूप में उन स्थानों पर जन्म लिया।

हे मनुष्यों ये सब जान लेना तुम्हारे लिए अति आवश्यक है क्योंकि तुम ये अभिमान नहीं कर सकते की तुम्हारी संस्कृति सबसे प्राचीन है क्योंकि देश काल परिस्तिथि के अनुसार सारी संस्कृति ही प्राचीन है अतुल्य है किन्तु समय के अनुसार हर सभ्यता संस्कृति में बदलाव तो हुआ है और आगे भी होता ही रहेगा, जो जैसा है हमेशा वैसा नहीं होगा, इसलिए केवल खुद की संस्कृति को प्राचीन न बोल और घमंड मत दिखा, सब सामान है सब श्रेष्ठ है ये याद रख।

कल्याण हो