ईश्वर कहते हैं, ''हे मनुष्यों जैसे मानव के भैतिक देह की एवम् सभी देह धारी जीवो की मुख्य चार अवस्थाये होती हैं वेसे ही पृथ्वी की चार अवस्थाये हैं, इन सभी अवस्थाओ को 'काल' नाम दिया है, ऐसा नहीं है केवल ये अवस्थाये पृथ्वी की ही है अन्य ग्रहो की नहीं, ये तो सभी ग्रहो की अवस्थाये है किन्तु जीवन केवल धरती पर होने के कारण धरती की प्रत्येक अवस्था का प्रभाव सीधा धरती के जीवो पर पड़ने के कारण मैं आज इसके जन्म पूर्व से लेकर अंत तक के विषय में संछिप्त ज्ञान दूंगा।
हे मनुष्यों जब धरती विभिन्न परिस्तिथियों में बन रही रही थी एवं सभी गृह उस समय इसी अवस्था में ही थे, ये बिलकुल वेसी ही प्रक्रिया थी जैसे किसी देह धारी के जन्म लेने से पूर्व की होती है, इसके पश्चात् आदि सतयुग व् सतयुग ये वह समय है जब धरती अपने शैशवास्था में थी, जैसे एक शिशु किसी भी बुराई से दूर होता है, ठीक उस युग में धरती अपने शैशव काल के समय थी।
त्रेता युग धरती का बाल्यकाल है, जैसे एक बालक अपने आस पास के वतावरन को देख कर व्यवहार करता है, कभी झूठ बोलता है कभी चोरी करता है, इस प्रकार छोटी छोटी बुराई उसमे आने लगती है, वेसे ही पृथ्वी पर बुराई जन्म लेने लगी, ये धरती का बाल्यकाल था।
द्वापर युग धरती का एक युवा युग था, जिस प्रकार कुछ युवा सत्कर्म करते है तो कुछ बुरे कर्म करते है, एक जोश और ताकत से सदा भरे होते है, ठीक वेसे ही धरती के युवावस्था के काल द्वापर युग में था, तभी उस काल में 'महाभारत' जैसे युद्ध हुए, ये सब यव अवस्था के उस अधिक जोश और शक्ति प्रदर्शन के कारण हुआ जोकि धरती के उस युवा काल द्वापर युग में हुआ।
धरती की अंतिम अवस्था वृद्धवस्था अर्थात कलियुग, जैसे वृद्ध के पास अनुभव का अपार सागर होता है वैसे ही धरती के इस युग 'कलियुग' अर्थात वृद्ध अवस्था
में अनेक अनुभव का अथाह भंडार है किन्तु जैसे वृद्ध अपनी इस अवस्था में कुछ स्वार्थी हो जाते है, सब कुछ जानकर भी अनजान हो जाते है, स्वार्थ में फस कर अंत की चिंता न करते हुए केवल भौतिक सुख को सब कुछ समझ कर उसे पाने में लगे रहते है, वेसे ही कलियुग रुपी धरती की वृद्धवस्था अर्थात कलियुग है, वृद्धवस्था के बाद मृत्यु एक सत्य है फिर नव जीवन भी सत्य है, उसी प्रकार इस युग के बाद फिर धरती की मृत्यु एवं फिर पुनः जन्म होता है,
हे मनुष्यों ये क्रिया अनंत काल से हो रही है और होती रहेगी, किन्तु हे मनुष्यों तुम सोच रहे होंगे ये निम्न अवस्थाये तो धरती की है फिर हम प्रभावित कैसे हुए, धरती को होना चाहिए, किन्तु हे मनुष्यों जैसे तुम्हारे जन्म से पूर्व से ले कर मृत्यु तक तुम्हारे शारीर के अंग प्रभावित होते है वेसे ही धरती पर समय के साथ परिवर्तन से तुम सब प्रभावित होते हो, तुम इसके उन अंगो के समान हो जैसे तुम्हारे शारीर के वह अंग जो तुम्हारी खाल से ढके तो है लेकिन तुम्हारी शारीरिक अवस्था में परिवर्तन के कारण प्रभावित होते है और तुम्हारी मृत्यु के साथ ये भी मृत्यु को प्राप्त होते है।"
कल्याण हो
हे मनुष्यों जब धरती विभिन्न परिस्तिथियों में बन रही रही थी एवं सभी गृह उस समय इसी अवस्था में ही थे, ये बिलकुल वेसी ही प्रक्रिया थी जैसे किसी देह धारी के जन्म लेने से पूर्व की होती है, इसके पश्चात् आदि सतयुग व् सतयुग ये वह समय है जब धरती अपने शैशवास्था में थी, जैसे एक शिशु किसी भी बुराई से दूर होता है, ठीक उस युग में धरती अपने शैशव काल के समय थी।
त्रेता युग धरती का बाल्यकाल है, जैसे एक बालक अपने आस पास के वतावरन को देख कर व्यवहार करता है, कभी झूठ बोलता है कभी चोरी करता है, इस प्रकार छोटी छोटी बुराई उसमे आने लगती है, वेसे ही पृथ्वी पर बुराई जन्म लेने लगी, ये धरती का बाल्यकाल था।
द्वापर युग धरती का एक युवा युग था, जिस प्रकार कुछ युवा सत्कर्म करते है तो कुछ बुरे कर्म करते है, एक जोश और ताकत से सदा भरे होते है, ठीक वेसे ही धरती के युवावस्था के काल द्वापर युग में था, तभी उस काल में 'महाभारत' जैसे युद्ध हुए, ये सब यव अवस्था के उस अधिक जोश और शक्ति प्रदर्शन के कारण हुआ जोकि धरती के उस युवा काल द्वापर युग में हुआ।
धरती की अंतिम अवस्था वृद्धवस्था अर्थात कलियुग, जैसे वृद्ध के पास अनुभव का अपार सागर होता है वैसे ही धरती के इस युग 'कलियुग' अर्थात वृद्ध अवस्था
में अनेक अनुभव का अथाह भंडार है किन्तु जैसे वृद्ध अपनी इस अवस्था में कुछ स्वार्थी हो जाते है, सब कुछ जानकर भी अनजान हो जाते है, स्वार्थ में फस कर अंत की चिंता न करते हुए केवल भौतिक सुख को सब कुछ समझ कर उसे पाने में लगे रहते है, वेसे ही कलियुग रुपी धरती की वृद्धवस्था अर्थात कलियुग है, वृद्धवस्था के बाद मृत्यु एक सत्य है फिर नव जीवन भी सत्य है, उसी प्रकार इस युग के बाद फिर धरती की मृत्यु एवं फिर पुनः जन्म होता है,
हे मनुष्यों ये क्रिया अनंत काल से हो रही है और होती रहेगी, किन्तु हे मनुष्यों तुम सोच रहे होंगे ये निम्न अवस्थाये तो धरती की है फिर हम प्रभावित कैसे हुए, धरती को होना चाहिए, किन्तु हे मनुष्यों जैसे तुम्हारे जन्म से पूर्व से ले कर मृत्यु तक तुम्हारे शारीर के अंग प्रभावित होते है वेसे ही धरती पर समय के साथ परिवर्तन से तुम सब प्रभावित होते हो, तुम इसके उन अंगो के समान हो जैसे तुम्हारे शारीर के वह अंग जो तुम्हारी खाल से ढके तो है लेकिन तुम्हारी शारीरिक अवस्था में परिवर्तन के कारण प्रभावित होते है और तुम्हारी मृत्यु के साथ ये भी मृत्यु को प्राप्त होते है।"
कल्याण हो
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