Friday, 27 January 2017

एक सच्ची कहानी



एक बहुत बड़े खगोलविद थे, भगवन पर बड़ी  आस्था थी, पर उनके एक परम मित्र थे जो कि पूरी तरह नास्तिक थे, अक्सर दोनो के बीच इस बात पर बहस हो जाती थी, खहगोलविद् कहते भागवान है जिन्होंने पूरी श्रष्टि बनाई है, किन्तु उनके मित्र खहते भगवान नही है, सब अपने आप बन गया अचानक।

इक दिन खगलविद् ने अपने मित्र को सबक सिखाने की सोची, एक दिन जब उनके वह दोस्त उनके घर से गये तो एक बड़ा से ग्लोब बनवाया, कुछ दिन बाद जब वह दोस्त उनसे मिलने उनके घर गया और ग्लोब देखा तो पूछा ये पहले तो नही था, ये कब बनवा लिया, इस पर खगोलविद ने कहा ये अपने आप बन गया मैंने नही बनवाया, उनके दोस्त बोले अपने आप कैसे बन सकता है मज़ाक छोडो सच बताओ, इस पर खगोलविद बोले ये सच है ये ग्लोब मैंने ही बनवाया है,अपने आप नही बना, सोचो पूरा ब्रमांड अपने आप कैसे बना होगा, इसे बनाने वाला जो है वो परमेश्वर है।

खगोलविद की बात उनके दोस्त को समझ आ गयी, और वो नास्तिक नही आस्तिक बन गये।

मुक्तक

मिलता नही यहाँ यूँ कुछ भी आसानी से
खो जाता है सब कुछ बस एक नादानी से
अपना कहने वाले मिलते बहुत हे लोग यहाँ
ज़ख्म गहरा वही दे जाते है अपनी बेमानी से

Thursday, 26 January 2017

ईश्वर वाणी-१८९, ब्रह्माण्ड

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों संसार बनाने के लिए उसे
चलाने एवम् विनाश
करने (ताकि पुनः उसे बनाया जा सके) मैंने त्रिदेवोल
को भेजा, ब्रम्हा ने
विशाल अंडे नुमा आकर की रचना की, ये बिलकुल
उसी प्रकार था जैसे एक थैला
तुम लेते हो और उसमे जो तुम्हारी आवश्यकता है उसमे
डालते जाते हो, फिर सब
कुछ डालने के बाद देखते हो सब डाला है या नहीं,
निश्चित समय बाद सब
निकलते हो वो सब वस्तु जो तुमने डाली थी।
ब्रम्हा जी ने भी वही किया, इस विशाल अंडे के
आकर के अंदर जो उन्हें
अच्छा लगा सब दाल दिया, फिर निश्चित समय बाद
एक भयानक विष्फोट हुआ, और उस
विशाल अंडे से समस्त ब्रमांड का अविष्कार, तभी
पृथ्वी सहित सभी गृह अंडे
के आकर के है एवम् सभी गृह अंडे व्यास के अनुसार ही
अंतरिक्ष में भ्रमड
करते है।
हे मनुष्यों अभी तक तुमने यही सुना होगा की
अंतरिक्ष निराकार है किन्तु
आज तुम्हे बताता हूँ ये निराकार नहीं अपितु
अंडाकार है।
जिस प्रकार विशाल सागर में ज़हाज़ निश्चित दुरी
और निर्धारित जल सीमा को
ध्यान में रख कर सागर में घूमते है, वेसे ही आकाश में
सभी गृह उस विशाल
अंडे रुपी सागर में विचरण करते है।
हे मनुष्यों विशाल ब्रमांड की रचना जिस विशाल
अंडे से हुई वही प्रक्रिया
समस्त जीव-जन्तु, पेड़-पोधे की भी है, जीवन की प्रथम
क्रिया अथवा जीवन का
प्रथम चरण अंडा ही है।
अंडा जिसे ध्यान से देखो एक ज्योति अर्थात बिंदु
जैसा आकर नज़र आता है, ये
बिंदु उस विशाल शून्य से निकल आता है, भाव यही है
ब्रह्माण्ड भी जो भले
अंडाकार अथवा विशाल अंडा ही क्यों न हो शून्य से
ही इसका निर्माण हुआ है,
शून्य अर्थात कुछ नहीं किन्तु कुछ न हो कर भी सब
कुछ।
ऐसा ही अंडा जो कहने को कुछ नही पर एक जीवन
देता है जो इससे पहले नही था।
हे मनुष्यों इसलिए ब्रमांड अर्थात ब्रह्या का बनाया
सबसे पहला जीवन और
जीवन योग्य वस्तुओं को देने वाला अंडा।
हे मनुष्यों देश, काल परिस्तिथि के अनुसार तुम ब्रम्हा
पर यकीन करो न करो
पर उस विशाल अंडे पर यकीन अवश्य करना जो ब्रमांड
का जनक है।"

  • कल्याण हो

गीत-फलक से एक तारा


फलक से एक तारा आज टूट गया
आज फिर हमराही मेरा रूठ गया

अपना बना पलको पर बैठाया जिसको
आज वही क्यों ऐसे हमसे दूर गया

फलक से एक तारा आज...............

सपनो की दुनिया से लाये थे उसे हम यहाँ
सारे सपने मेरे वो ऐसे क्यों वो तोड़ गया

पल पल जो दिल में रहा,
हर पल जिसे अपना कहा

दिल को खिलौना समझ खेल गया
आज फिर हमराही मुझसे रूठ गया

बहुत की कोशिश उसे मानाने की
फिर कोशिश करी उसे करीब लाने की

पर वो रूठे ऐसे की हम मना न सके
वो दूर गए ऐसे करीब की आ न सके

बेवफाई का दामन वो कुछ यूँ ऐसे पकड़ बैठे
हम तो रह गए तनहा वो किसी और के बन बैठे

अश्क़ मेरी आँखों से आज दिन-रात गिरते हैं
रोता है दिल जाने कितने सवाल ज़हन में उठते हैं

मोहब्बत करने वाले का हाल क्या हो गया
आज इश्क़ में कितना तू बदहाल हो गया

टूटते तारो सा टूटा है तेरा भी दिल आज
देख तू अपने को तू क्या से क्या हो गया

फलक से एक तारा...............

कितने गिराये मोती इन आँखों से
खेला हमेशा वो तेरे जज़्बातों से

हाय तड़पता कैसे तुझे आज वो छोड़ गया
इन राहों पर तनहा तुझे वो आज छोड़ गया

फलक से एक तारा आज टूट गया
आज फिर हमराही मेरा रूठ गया-२
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Tuesday, 24 January 2017

गीत- यही प्यास थी ज़िन्दगी में

"बस एक यही प्यास थी ज़िन्दगी मे
एक छोटी सी आस थी ज़िन्दगी में
कही तो मिलेगा हमसफ़र मुझे भी
बस उसकी तलाश थी ज़िन्दगी में

हर दिन बस ख्याल उसका ही आता था
हर शख्स में बस वो ही नज़र आता था

कब उनसे नेन मिलेंगे कब वो हमारे होंगे
पल पल बस ये ही सवाल मन में आता था

मिलेगा मुझे भी कही प्यार करने वाला
कही तो होगा मुझ पर भी मरने वाला
बस उसकी ही आस थी ज़िन्दगी मैं
मोहसब्बत की ही प्यास थी ज़िन्दगी में

क्या पता था ये एक कसूर होगा
इस कदर हर शख्स हमसे दूर होगा

मोहब्बत के सपने दिखाने वाला वो
मेरा मेहबूब बेवफाई में मशहुर होगा

खता बस क्या की थी ज़िंदगी में
बस उसकी तलाश थी ज़िन्दगी में

बस एक यही प्यास थी ज़िन्दगी मे
एक छोटी सी आस थी ज़िन्दगी में
कही तो मिलेगा हमसफ़र मुझे भी
बस उसकी तलाश थी ज़िन्दगी में-2"















Monday, 23 January 2017

मुक्तक

"तू है नज़्म मेरी मैं हूँ गीत तेरा
तू है सरगम मेरी मैं हूँ संगीत तेरा
तुझसे ही जुडी है हर ख़ुशी मेरी
तू है ज़िन्दगी मेरी मैं हूँ मीत तेरा"


Friday, 20 January 2017

ईश्वर वाणी-१८८, इश्वरिये क्रीड़ा

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों संसार का प्रथम तत्व मैं हूँ, संसार का प्रथम जीवन मैं हूँ, संसार का प्रथम दिन और रात मैं हूँ, संसार का प्रथम युग अथवा काल मैं हूँ, संसार का प्रथम वर्ष मैं हूँ, संसार की प्रथम रचना मैं हूँ, संसार की प्रथम इच्छा मैं हूँ, संसार की प्रथम आत्मा मैं हूँ, संसार की प्रथम स्वास में हूँ, प्रथम सोच में हूँ, प्रथम रौशनी में हूँ, प्रथम रंग मैं हूँ, संसार का प्रथम जल में हूँ, संसार का आदि में ही हूँ मैं ईश्वर हूँ किन्तु मैं अंत नहीं हूँ, सच तो ये है अंत श्रष्टि में कही नहीं है किन्तु शुरुआत अवश्य है।

"एक बालक जिसके पास उसके माता पिता सगे संबंधियो द्वारा दिए अनेक खिलोने है, प्रतिदिन वो उनसे खेलता है, जब उसका जी भर जाता है तब सभी वो खिलोने एक टोकरी में डाल कर एक तरफ रख देता है ताकि अगली बार फिर इनसे खेल सके, और इस प्रकार अपने खिलोने संभाल के रख देता है।"

हे मनुष्यों उस बालक का खिलोंनो का इस प्रकार खेलने के बाद बंद करके रखने का अभिप्राय ये तो नहीं हो सकता की बच्चे ने सदा के लिये खेलना बंद कर दिया है, अपितु वो बाद में इनसे खेलेगा अभी तो कुछ समय के लिये खेलना बंद इसलिए किया की या तो वह थक चूका था अथवा उसे अब इस खेल में आनंद की अनुभूति नहीं हो रही थी, किन्तु दोबारा जब वह खेलेगा फिर नई ऊर्जा और जोश के साथ जिससे उसे आनंद की अनुभूति की भी प्राप्ति होगी।

हे मनुष्यों वेसे ही संसार के साथ में करता हूँ, समस्त संसार, गृह नक्षत्र धरती आकाश जीव जन्तु सब मेरी ही क्रीड़ा का ही तो एक भाग हैं, जिसे तुम अंत समझते हो वो तो वापस उस टोकरी में मैं डाल देता हूँ ताकि बाद में उससे खेल सकूँ, इस प्रकार जिसे तुम प्रलय और श्रष्टी का अंत समझते हो वो तो उस बालक के समान ही है जो अपने खेल के बाद अपने सभी खिलौने टोकरी में डाल देता है ताकि फिर इनसे खेल सके।

हे मनुष्यों इसी प्रकार सारी श्रष्टि मेरे लिये उस खिलोने के समान ही है और अंत इसका कभी नहीं होता और न होगा अपितु ये तो वो खिलोने है जिनसे खेल कर वापस में फिर अपनी टोकरी में अगली बार खेलने के लिए डाल लेता हूँ, और जिसे अनजाने में तुम अंत समझ बैठते हो, ऐसा हमेशा से हुआ है और होता रहेगा, इस क्रीड़ा में तुम हमेशा मेरे साथी थे और सदैव रहोगे।

कल्याण हो