Thursday, 16 February 2017

ईश्वर वाणी-१९७, इन्द्रियाँ

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यद्धपि तुमने इन्द्रियों एवम् उनके प्रकार के विषय में सुना व् पड़ा होगा, उनके कार्यो के विषय में सुना होगा, अक्सर ही कहते सुना होगा लोगो से अपनी इंद्रियो को वश में रखो।

इंद्रिया जो सभी जीव मात्र को अपने संवेदनाओ का बोध कराती है जैसे-सुख, दुःख, हसना, रोना, सुनना, देखना, सोना, जागना, बोलना, चुप राहना जैसे अनेक भाव दिमाग तक पहुचाती है और कैसा व्यवहार तब करना है ये दिमाग तय करता है।

किन्तु जो व्यक्ति इन्द्रियों पर नियंत्रण करना सीख जाते है वह हर स्थिति में  सदा एक से ही रहते है, उनका दिमाग समय के अनुसार व्यवहार बदलने के निर्देश नही देता, किन्तु ऐसा केवल एक सच्चा सन्यासी ही कर सकता है, बाकी तो सभी माया के अधीन हो कर खुद ही इन्द्रियों के वश में हैं।

हे मनुष्यों यद्धपि प्रत्येक जीव की आत्मा जन्म से पूर्व इंद्री विहीन होती है, इंद्री का जन्म शिशु के जन्म के बाद ही होता है किन्तु जब आत्मा जन्म लेने वाली होती है तब उसमे इंद्री नही होती जिसके कारण उसके किसी भी प्रकार की संवेदना का बोध् नही होता।

किन्तु जैसे ही देह धारण करती है अनेक सवेंदना को महसूस करने लगती है कारण इन्द्रियों के कारण सन्देश मष्तिष्क और मष्तिष्क उसके अनुसार व्यवहार करने लगता है।

हे मनुष्यों आत्मा और उसका  बल ही इस पर नियंत्रण कर सकता है, अक्सर मनुष्य सोचते है अच्छे बुरे कर्म तो देह करती है फिर परनाम आत्मा क्यों भोगती है, बुरे कर्म करने पर आत्मा कष्ट क्यों  भोगती है जबकि बुरे कर्म तो देह ने करे है।

इसका उत्तर है आत्मा पुरे शरीर की चालक है, ये ही इंद्री और मष्तिस्क को काबू करने में सक्षम है, यदि किसी की देह बुरे कर्म कर रही है तो इसका अर्थ आत्मा का नियंत्रण शरीर पर नही हो रहा, जैसे एक चालक का नियंत्रण उसके वाहन से जब बिगड़ जाये और कोई हादसा हो जाये तो दंड तो चालक ही पाता है न, न की वो वाहन, इसी कारण आत्मा को ही अच्छे बुरे का फल मिलता है।

इसलिये आत्मा का कार्य है शरीर में निरंतर उत्तपन्न होते भावो पर नियंत्रण रखना, यही क्रिया अर्थात इसे ही इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना भी कहा जाता है, यदि इस पर नियंत्रण कर लिया तो न मष्तिष्क तुम पर हावी होगा और न उसके अनुसार व्यवहार करोगे, अपितु सभी स्थितियों में समान बन मेरी कृपा के पात्र बनोगे, एक सच्चे साधू/संत/सन्यासी बन जगत का कल्याण करोगे।"


कल्याण हो

Tuesday, 14 February 2017

ईश्वर वाणी-१९६, सन्यास का मार्ग


ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यु तो तुम्हे मैं साधू, संत और सन्यासी के बीच क्या भेद है बता चूका हूँ, किन्तु आज बताता हूँ सन्यास और सन्यासी के विषय में थोडा और विस्तार से।
सन्यास एक व्रत है जिसे हर व्यक्ति नहीं कर सकता, इसलिए साधू और संत जग में अधिक मिल जाते है किन्तु सन्यासी नहीं, एक सन्यासी वह होता है जिसने सबसे पहले अपने विषय में सोचना त्याग सभी जीव मात्र के लिए सोचना व् कार्य करना प्रारम्भ कर दिया हो, एक सन्यासी जाती, धर्म, सप्रदाय, भाषा, रंग, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, रीती-रिवाज़ जैसी किसी भी कुरीति को नहीं मानता, सभी जीवो में अपने परिवार को देखता है, पूरी धरती ही उसका घर है, जीवो को वो देह से नहीं अपितु आत्मा से देखता है तभी उसकी दृष्टि में कभी किसी की मृत्यु नहीं होती, क्योंकि आत्मा कभी मरती नहीं, साध ही समाज व् समस्त प्राणी की भलाई के विषय में ही सोचता है, निजी स्वार्थ उसमे नहीं होता, समाज की मुख्या धारा में न हो कर भी वो समाज के कल्याण हेतु की कार्य करता है।
साधू और संत के बाद ही आखिरी पड़ाव आता है सन्यासी का जिसे वैरागी भी कहते है, साधू जो साधक है, जो तुममे से कई होंगे ईश्वर अर्थात मुझ पर असीम आस्था रखने वाले, साधू जो घर में रह कर गृहस्थ जीवन का पालन कर रहे है वो भी है किन्तु गृहस्थी के बाद जो अर्थात गृहस्थ जीवन के बाद मेरी साधना के लिये घर से अलग हो जाते है वो भी है, ये सन्यासी की श्रेणी में नहीं आते क्योंकी कही न कही मन इनका परिवार में ही होता है।
इस पड़ाव के बाद आता है संत, ऐसे व्यक्ति भी गृहस्थ और अग्रहस्थ दोनों ही हो सकते है, जो व्यक्ति अपने परिवार और अपने पर आश्रित परिवार वालो के हित के कार्यो में लग कर भी सदा मेरे ही विषय में निःस्वार्थ सोचता रहे, भजता रहे, उपासना करता रहे, अपने कष्टो में भी मुझे दोष न दे, सभी कुछ सह कर भी मुझ पर असीम श्रद्धा रखे वही संत है, संत में सबसे पहला नाम इसलिए संत सुदामा का आता है।
तत्पश्चात आता है सन्यासी, साधू और संत के पड़ाव पूर्ण करने के बाद किन्तु जो विवाह जैसी संस्था में नहीं बधते एवं ईश्वर की भक्ति के लिये घर, परिवार व् समस्त रिश्तों को त्याग कर समस्त जगत को ही अपना मान लेते है वही सन्यासी है, अपने अंदर की समस्त बुराई का त्याग कर केवल इश्वरिये मार्ग पर चलने वाला, समस्त जीवो से सामान स्नेह रखने वाला, आवश्यकता पड़ने पर समाज के कल्याण के लिये ही कार्य करने वाला ही सन्यासी है।
ये मार्ग बहुत ही कठिन है, अधिकतर व्यक्ति इस मार्ग पर चलते तो है पर टिक नही पाते कारण वो अपने अंदर के कपट का त्याग नही करते, अपने अंदर की बुराई का त्याग कर इन्द्रियों को वष में नही करते, इसलिये इस मार्ग पर भटक जाते है।
हे मनुष्यों यदि कोई तुम्हे पीले, सफ़ेद, नारंगी या विशेष रंग के परिधान में व्यक्ति आ कर कहे की वो सन्यासी है तो उसके वस्त्रो से उसके सन्यासी होने पर यकीं करने से पहले पता लगा लेना की कि आखिर सत्य क्या है, अधिकतर कलयुग में ऐसे छलिया बहुत है।
अगर सच्चे सन्यासियो की बात की जाये तो चैतन्य महाप्रभु और स्वामी विवेकानंद का नाम पहले आता है।
एक सच्चा सन्यासी अपने ज्ञान का निःस्वार्थ प्रचार प्रसार करता है, सभी के कल्याण के विषय में विचरता है, मुझ पर असीम श्रद्धा रखता है, इसलिये मेरी भी विशेष कृपा को प्राप्त कर पाता है, इस व्रत और इस मार्ग पर केवल वही चल सकता है जिसकी आत्मा पावन हो अर्थात अपने पिछले कई जन्म उसने बुराई रहित जिए हो साथ ही जिसे मैंने स्वम इसके लिये चुना हो, तभी बहुदा बहुतो में से केवल एक ही सच्चा सन्यासी होता है।"
कल्याण हो

Saturday, 11 February 2017

कविता


वो ठुकराते रहे हमें हम चोट खाते रहे
जख्मो पर वो मेरे सदा मुस्कुराते रहे,
खता उनकी भी नही खता हमारी थी
उनकी बेरूखी पर भी प्यार लूटाते रहे

उमर भर सदा यूँ वो हमे रुलाते रहे
दर्द दे कर हमेशा मुझे वो सताते रहे
बनी रहे सदा लबो पे मुस्कान उनकी
बेवफाई पर भी उनकी उन्हें चाहते रहे

उन्हें करीब लाने की हम हसरत करते रहे
प्यार भी उन पर यूँ बेशुमार हम लुटाते रहे
 तोड़ कर दिल मेरा खुश बहुत होते थे वो
 उनकी खुशी के लिये हर दर्द छिपाते रहे

गीत

गीत
ज़िन्दगी में कभी मैंने ऐतबार किया था
दिल का सौदा मैंने भी एक बार किया था
ख़ुशी की चाहत दिल में कभी थी मेरे
किसी की मीठी बातो पर इकरार किया था

मुस्कराहट थी लबो पर साथ उसका पा कर
उस बेवफा से इतना जो मैंने प्यार किया था

दर्द दे कर ख़ुशी से हस्ता रहा वो मुझ पर
मीठी ने तो बस इश्क़ का इज़हार किया था

बस एक मोहब्बत भरी नज़रे चाही थी उनसे
आखिर इज़हारे मोहब्बत पहली बार किया था

जीवन में ऐसा बस एक बार किया था
बस मैंने तो सिर्फ तुमसे ही प्यार किया था
ज़िन्दगी में कभी मैंने ऐतबार किया था
दिल का सौदा मैंने भी एक बार किया था-२"

Friday, 10 February 2017

ईश्वर वाणी-१९५, आत्माओ का सागर

ईश्वर कहते है, "हे मनुष्यों मैं ईश्वर सभी आत्माओं में परम होने के कारण परमात्माँ हूँ, मैं सभी आत्माओं का सागर हूँ, जैसे विशाल सागर से जल भाप बन कर बदल में चला जाता है फिर बूँद बन कर फिर सागर में पुनः गिरता जाता है, वैसे ही सभी आत्माये मुझ से ही निकल कर पृथ्वी पर भौतिक देह अपने कर्मो के अनुसार प्राप्त करती है, उसके बाद निश्चित समय के बाद आत्माओ के महासागर अर्थात मुझमे पुनः लीन हो जाती है।

हे मनुष्यों मैं ही इश्वरिये लोक हूँ, मैं ही स्वर्ग हूँ, मैं ही नरक हु, जैसे आत्माओ के कर्म होते है वैसे ही उसे यहाँ स्थान मिलता है, निश्चित अवधि के बाद पुनः जन्म मिलता है, इस प्रकार ये चक्र चलता रहता है, न सृष्टि कभी सदा के लिये ख़त्म होती है न आत्मा आत्मा एक मोक्ष प्राप्त कर जन्म लेना बंद करती है।


चारो युगों के बाद सृष्टि अंधकार में डूब जाती है, शून्य से निकली सृष्टि पुनः शून्य में समां जाती है, सभी आत्माये मुझमे विलीन हो जाती हैं किन्तु फिर से सृष्टि की उत्पत्ति होती है पुनः आत्माये जन्म लेती हैं।

हे मनुष्यों इसलिये ये न समझो तुम पहली बार इस धरती पर आये हो, तुम तो जाने कितनी बार आये हो और आओगे बस ये भोतिक रूप बदलता रहेगा किन्तु तुम तो सदा वही रहोगे जैसे अब तक कितनी बार तुम्हारा भौतिक रूप बदला किन्तु तुम तो वही रहे।
मुझ विशाल आत्मा के सागर से निकल कर पुनः मुझमे तुम मिले फिर निकले फिर मिले सदा यही होगा, सादेव् तुम मेरी इस ज
क्रीड़ा के पात्र रहोगे।"

कल्याण हो


ईश्वर वाणी-१९४, पृत्वी और सूर्या

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यु तो तुम्हे मैं पहले ही
बता चूका हूँ
तुम्हारी देह अर्थात भौतिक रूप के आदि माता पिता सूर्या
देव और पृथ्वी
है।
यद्धपि अनेक शाश्त्रो में सूर्या देव की अनेक
पत्नी और संतान बतलायी गयी
हैं किन्तु भौतिक रूप में सूर्य देव की पत्नी
पृथ्वी का रूप धारण कर सभी
आत्माओ को भौतिक शरीर प्रदान करती है और
सूर्या देव के आवश्यक ताप से ही
जीवन पनपता है।
हे मनुष्यों पृथ्वी का आंतरिक ताप इसलिए सूर्या के ताप
जितना ही गर्म है,
किन्तु प्राणी जाती के जीवन के लिये
पृथ्वी को अपने पति जितने ताप को
अपनी गहराइयो में ले जाना पड़ा ताकि यहाँ आत्माये भौतिक
रूप प्राप्त कर
सके।
माता को शांत व् शीतल करने के उद्देश्य से ही
यमुना व् तपती ने नदी का
रूप धारण किया और पृथ्वी पर बहने लगी,
इसी प्रकार माता पृथ्वी को शांत व्
शीतल रखने के लिये ही पहाड़ो से लेकर विशाल
सागर तक जल किसी न किसी रूप
में विराजित है ताकि धरती शांत व् शीतल
बनी रहे और जीवन यहाँ उत्पन्न
होता रहे।
हे मनुष्यों जिस सूर्या के ताप के साये में तुम सब जिव पलते हो ये तो
उसके वास्तविक ताप ताप का मात्र १६% ही है, यदि
वास्तविक ताप पर वो आ जाए
तो पृथ्वी से जीवन ही नष्ट हो
जाये।
सूर्या देव की पत्नी की प्राथना और
आग्रह पर ही उन्होंने अपने ताप को
पृत्वी पर कम किया और जीवन उतपन्न करने
व् पालन पोषण के लिए मात्र १६% ही
ताप धरती पर भेजने का वादा किया, इस प्रकार
धरती सभी भौतिक देह धारियों
की माता व् सूर्य देव पिता हुये।
कल्याण हो

Tuesday, 7 February 2017

ईश्वर वाणी-१९३, पृथ्वी पर जन्म

ईश्वर कहते है, "हे मनुष्यों यद्यपि तुमने यह तो अवश्य ही सुना होगा की पृथ्वी की आंतरिक सतह बेहद गर्म है, उस पर जीवन तो क्या कोई भी वस्तु गिर जाये या संपर्क में आ जाये तो तुरंत भाप बन कर उड़ जायेगी।

हे मनुष्यों ये एक परम सत्य है की समस्त ब्रह्माण्ड की रचना का करक एक विशाल अंडा ही है, जिसमे से सभी ग्रहो के साथ पृथ्वी का भी अविष्कार हुआ, सभी ग्रहो में से केवल एक इकलोती स्त्री तत्व पृथ्वी ही है, इसलिये सभी जीवो, पेड़-पौधों व् जीवन की जननी यही है, ईश्वर अर्थात मैंने भी धरती पर लीला रचने हेतु समय समय पर अपने ही एक अंश को भेजा।

हे मनुष्यों किन्तु धरती को इस योग्य बनाने के लिये उसे शांत करना अति आवश्यक था जो मैंने किया, सर्व प्रथम धधकते अंगारो सी धरती को शांत करने के लिये आकाशीय दिव्य सागर  से जल वरषा की, इससे जब वह शांत व् शीतल हुई तब उसकी ऊँची ऊँची पथरीली चोटी जो अति गर्म होने के कारन व् जल वरषा से शीतल हो कर जमने के कारन बनी थी वहा बर्फअर्थात जमा हुआ जल एकत्रित किया, एवं सागर के रूप में एक विशाल गड्ढे में (जो पृथ्वी की गर्मी के कारन अनेक विस्फोटों से बना था) अथाह जल एकत्रित किया जो पर्वतो से लगातार नदियो  (पर्वतों  से पिघल कर बहने वाला जल)से हो कर यहाँ जमा होता रहता है और सृष्टि के अंत तक रहेगा इसके साथ ही भूमि के अंदर भी हर स्थान पर निश्चित गहराई पर भी जल उपलब्ध है जिसे तुम पीते भी हो। ये सब इसलिये है ताकि धरती का अंदरुनी ताप ऊपर न आ सके, और धरती जीवन के लिये एक अनुकूल स्थान बनी रहे, जीवन की सभी प्राथमिक व प्राकृतिक  वस्तुये वह उपलब्ध रहे।

हे मनुष्यों कभी तुमने विचार किया है आखिर एक विशाल हिस्से में ही पृथ्वी के सागर क्यों है, आखिर भूमि क्षेत्र इतना कम क्यों है, ऐसा इसलिए ताकि धरती के अंदर का ताप बहार ना आ सके, धरती शीतल व् शांत रहे, ताकि यहाँ जीवन रह सके, इसलिये ऊँची ऊँची पर्वत श्रंखलाओ पर भी बर्फ की मोटी चादर डाली ताकि पहाड़ो के अंदरुनी भाग से गर्मी बाहर न आ सके और जीवन न नष्ट हो सके।

हे मनुष्यों तुमने अक्सर ज्वाला मुखी फूटने की बात सुनी होगी, ये धरती का वही ताप का एक छोटा सा हिस्सा है, सोचो अगर विशाल सागर और बर्फ से इसे मैंने शांत न किया होता तो क्या धरती पर जीवन होता।


कल्याण हो