Thursday, 26 January 2017

गीत-फलक से एक तारा


फलक से एक तारा आज टूट गया
आज फिर हमराही मेरा रूठ गया

अपना बना पलको पर बैठाया जिसको
आज वही क्यों ऐसे हमसे दूर गया

फलक से एक तारा आज...............

सपनो की दुनिया से लाये थे उसे हम यहाँ
सारे सपने मेरे वो ऐसे क्यों वो तोड़ गया

पल पल जो दिल में रहा,
हर पल जिसे अपना कहा

दिल को खिलौना समझ खेल गया
आज फिर हमराही मुझसे रूठ गया

बहुत की कोशिश उसे मानाने की
फिर कोशिश करी उसे करीब लाने की

पर वो रूठे ऐसे की हम मना न सके
वो दूर गए ऐसे करीब की आ न सके

बेवफाई का दामन वो कुछ यूँ ऐसे पकड़ बैठे
हम तो रह गए तनहा वो किसी और के बन बैठे

अश्क़ मेरी आँखों से आज दिन-रात गिरते हैं
रोता है दिल जाने कितने सवाल ज़हन में उठते हैं

मोहब्बत करने वाले का हाल क्या हो गया
आज इश्क़ में कितना तू बदहाल हो गया

टूटते तारो सा टूटा है तेरा भी दिल आज
देख तू अपने को तू क्या से क्या हो गया

फलक से एक तारा...............

कितने गिराये मोती इन आँखों से
खेला हमेशा वो तेरे जज़्बातों से

हाय तड़पता कैसे तुझे आज वो छोड़ गया
इन राहों पर तनहा तुझे वो आज छोड़ गया

फलक से एक तारा आज टूट गया
आज फिर हमराही मेरा रूठ गया-२
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Tuesday, 24 January 2017

गीत- यही प्यास थी ज़िन्दगी में

"बस एक यही प्यास थी ज़िन्दगी मे
एक छोटी सी आस थी ज़िन्दगी में
कही तो मिलेगा हमसफ़र मुझे भी
बस उसकी तलाश थी ज़िन्दगी में

हर दिन बस ख्याल उसका ही आता था
हर शख्स में बस वो ही नज़र आता था

कब उनसे नेन मिलेंगे कब वो हमारे होंगे
पल पल बस ये ही सवाल मन में आता था

मिलेगा मुझे भी कही प्यार करने वाला
कही तो होगा मुझ पर भी मरने वाला
बस उसकी ही आस थी ज़िन्दगी मैं
मोहसब्बत की ही प्यास थी ज़िन्दगी में

क्या पता था ये एक कसूर होगा
इस कदर हर शख्स हमसे दूर होगा

मोहब्बत के सपने दिखाने वाला वो
मेरा मेहबूब बेवफाई में मशहुर होगा

खता बस क्या की थी ज़िंदगी में
बस उसकी तलाश थी ज़िन्दगी में

बस एक यही प्यास थी ज़िन्दगी मे
एक छोटी सी आस थी ज़िन्दगी में
कही तो मिलेगा हमसफ़र मुझे भी
बस उसकी तलाश थी ज़िन्दगी में-2"















Monday, 23 January 2017

मुक्तक

"तू है नज़्म मेरी मैं हूँ गीत तेरा
तू है सरगम मेरी मैं हूँ संगीत तेरा
तुझसे ही जुडी है हर ख़ुशी मेरी
तू है ज़िन्दगी मेरी मैं हूँ मीत तेरा"


Friday, 20 January 2017

ईश्वर वाणी-१८८, इश्वरिये क्रीड़ा

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों संसार का प्रथम तत्व मैं हूँ, संसार का प्रथम जीवन मैं हूँ, संसार का प्रथम दिन और रात मैं हूँ, संसार का प्रथम युग अथवा काल मैं हूँ, संसार का प्रथम वर्ष मैं हूँ, संसार की प्रथम रचना मैं हूँ, संसार की प्रथम इच्छा मैं हूँ, संसार की प्रथम आत्मा मैं हूँ, संसार की प्रथम स्वास में हूँ, प्रथम सोच में हूँ, प्रथम रौशनी में हूँ, प्रथम रंग मैं हूँ, संसार का प्रथम जल में हूँ, संसार का आदि में ही हूँ मैं ईश्वर हूँ किन्तु मैं अंत नहीं हूँ, सच तो ये है अंत श्रष्टि में कही नहीं है किन्तु शुरुआत अवश्य है।

"एक बालक जिसके पास उसके माता पिता सगे संबंधियो द्वारा दिए अनेक खिलोने है, प्रतिदिन वो उनसे खेलता है, जब उसका जी भर जाता है तब सभी वो खिलोने एक टोकरी में डाल कर एक तरफ रख देता है ताकि अगली बार फिर इनसे खेल सके, और इस प्रकार अपने खिलोने संभाल के रख देता है।"

हे मनुष्यों उस बालक का खिलोंनो का इस प्रकार खेलने के बाद बंद करके रखने का अभिप्राय ये तो नहीं हो सकता की बच्चे ने सदा के लिये खेलना बंद कर दिया है, अपितु वो बाद में इनसे खेलेगा अभी तो कुछ समय के लिये खेलना बंद इसलिए किया की या तो वह थक चूका था अथवा उसे अब इस खेल में आनंद की अनुभूति नहीं हो रही थी, किन्तु दोबारा जब वह खेलेगा फिर नई ऊर्जा और जोश के साथ जिससे उसे आनंद की अनुभूति की भी प्राप्ति होगी।

हे मनुष्यों वेसे ही संसार के साथ में करता हूँ, समस्त संसार, गृह नक्षत्र धरती आकाश जीव जन्तु सब मेरी ही क्रीड़ा का ही तो एक भाग हैं, जिसे तुम अंत समझते हो वो तो वापस उस टोकरी में मैं डाल देता हूँ ताकि बाद में उससे खेल सकूँ, इस प्रकार जिसे तुम प्रलय और श्रष्टी का अंत समझते हो वो तो उस बालक के समान ही है जो अपने खेल के बाद अपने सभी खिलौने टोकरी में डाल देता है ताकि फिर इनसे खेल सके।

हे मनुष्यों इसी प्रकार सारी श्रष्टि मेरे लिये उस खिलोने के समान ही है और अंत इसका कभी नहीं होता और न होगा अपितु ये तो वो खिलोने है जिनसे खेल कर वापस में फिर अपनी टोकरी में अगली बार खेलने के लिए डाल लेता हूँ, और जिसे अनजाने में तुम अंत समझ बैठते हो, ऐसा हमेशा से हुआ है और होता रहेगा, इस क्रीड़ा में तुम हमेशा मेरे साथी थे और सदैव रहोगे।

कल्याण हो




ईश्वर वाणी-१८७, पिता और पुत्र

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों जब जब धरती पर मानवता एवं प्राणी जाती का दोहन हुआ तब तब मैंने ही संसार में अपने एक अंश को धरती पर मानव एवं समस्त प्राणी जाती की रक्षा हेतु भेज।

"एक राजा था, एक बार उसने अपने पुत्र को अपने सामान अधिकार दे कर कहा 'हे पुत्र तुम जरा राज्य में प्रजा का हाल चाल जान कर आओ, यदि कोई कष्ट में है या दुखी है तो उसका कारन पूछना और दूर करने लायक है तो उसे दूर करना, मैं तुम्हे अपने समान ही अधिकार देता हूँ, और जो तुमसे मदद मांगेगा अथवा तुम जिसकी भी सहायता करोगे अथवा तुम मुझे किसी की सहायता के लिए कहोगे वो पूरी जरूर होगी, आखिर मैं और तुम एक ही तो है, जो तुम्हे सम्मान देगा वो मुझे देगा, जो तुम्हारी निंदा करेगा वो मेरी करेगा, जो तुमसे मांगेगा वो मुझसे मांगेगा, जिनकी तुम सहायता करोगे वो मेरे द्वारा सहायता पायँगे, मैंने तुम्हे वो सब अधिकार दिए हैं जो मेरे पास है, क्योंकि मेरा पुत्र होने के कारण मुझमे और तुममे कोई भेद नहीं है।'

पिता की आज्ञा प्राप्त कर पुत्र राज्य में गया, और जो कष्ट में थे, दुखी और अन्य लोगों द्वारा सताए हुए थे उनकी सहायता की, चूँकि राजा पिता के समान ही उसे अधिकार थे इसलिए उससे जिसने सहायता माँगी न्याय माँगा उसे वो मिला, हालांकि लोगों ने राजा कभी नहीं देखा था, राजा राज्य के अनेक कार्यो में व्यस्त होने के कारण कभी प्रजा के पास नहीं आ पाया था किन्तु तभी उसने अपने प्रिये पुत्र को राज्य में भेज अपने समान अधिकार प्रदान कर यहाँ भेजा ताकि जो वो कार्य करे उसे राजा के समान माना जाये।

इस प्रकार राजा को जिसने नहीं देखा था पुत्र को ही राजा मान सम्मान करने लगे और राजा पिता होने के कारण अपने पुत्र और उसके कार्य एवं उसके सम्मान को देख कर प्रसन्न हुआ।

हे मनुष्यों ऐसे ही मैं जगत का राजा हूँ, मैं ही अपने समान अधिकार दे कर आपने एक अंश को धरती पर प्राणी जाती के हित के लिए भेजता हूँ, तुम जिस पर विश्वाश करते हो, जिसकी आराधना करते हो वो मुझ तक ही पहुँचता है, संसार का राजा में ही हूँ और अपने पुत्र को धरती रुपी प्रजा के उत्थान हेतु भेजता हूँ, जब जब मानव व् प्राणी जाती का दोहन होता है।

कल्याण हो

Wednesday, 18 January 2017

मानव के पास उसका अपना क्या है? आध्यात्मिक सवाल

एक बार सदगुरु से ईश्वर ने पूछा

प्रश्न-: ये बताओ ऐसा क्या है मानव के पास अपना जो वो मुझे दे सकता है, ये धन-दौलत, संतान, परिवार, सेहत, शरीर, रूप, रंग, दिन-रात, सुबह-शाम, उजाला-अंधेरा, पेड़-पोधे, जल-वनस्पति,  तीनो स्थानों (जल, आकाश, भूमि) पर विचरण करने वाले जिव, ये जीवन ये मृत्यु, ये कल आज और आने वाला कल, समस्त ब्रमांड, यहाँ तक की तुम्हारी आत्मा जो तुम्हारे भौतिक शरीर को प्राण देती और मिटटी में मिलने से बचाती मैंने ही तो बनाई, अर्थात सब कुछ तो मैंने ही तुम्हे दिया है, पर ऐसा क्या है जो तुम मुझे दे सकते हो जो केवल तुम्हारा है जिसे तुमने रचा है, ऐसा क्या है जो मुझे तुम दे सकते हो, 
मेरे पास बहुत कुछ है तुम्हे देने के लिए पर एक चीज़ अगर तुमसे कही जाए मांगने को तो क्या मांगोगे?

सदगुरु ने उत्तर दिया

उत्तर:-हे प्रभु मेरे अथवा समस्त मानव के अंदर की बुराई ही केवल उसकी अपनी होती है, केवल वही आपको दे सकता है, और यदि आपसे बहुतो में से केवल एक ही चीज़ मांगने के लिए कहे तो केवल इतना देना की अपने अंदर की अच्छाई का एक छोटा सा अंश मुझे अथवा मानव जाती को दे देना, बदले में जो बुराई हमने अपने इस जीवन में कमाई है वह हमसे ले लेना।

सदगुरु का उत्तर सुन कर ईश्वर मुस्कुरा दिए और तथास्तु कह अंतरधान हो गए

Tuesday, 17 January 2017

ईश्वर वाणी-१८६, आध्यात्म की जीवन मैं आवश्यकता

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों तुम सत्संग करते हो, प्रवचन कहते हो सुनते हो, आध्यात्म की बात कहते और सुनते हो किंतु इसका लाभ तुम्हारे जीवन मैं क्या है तुम्हें पता भी है!!

आध्यात्म व्यकिति को मानवता की शिछा देता है, सभी प्रकार के भेग-भाव से दूर मानव को मुझसे जोड़ता है! तुम्हें मेने क्यौं धरती पर भेजा, तुम्हें क्या करने यहॉ भेजा, तुम कौन हो, तुम्हारा वास्तविक लक्श्य क्या है, संसार मैं तुम्हारा क्या और कितना योगदान होगा, मानव धर्म का प्रचार कैसे करोगे, अग्यानता मिटा कर ग्यान का दीपक कैसे प्रज्जवलित करोगे ये सब तुम्हें आध्यात्म से पता चलता है!!

इसके साथ सही अर्थ मैं मानवता की शिक्छा दे कर नैतिकता के पथ पर चलते हुये अपने कर्तव्यों को पूर्ण करने की प्रेरणा देता है!

हे मनुष्यों तुम धार्मिक पुस्तकें पड़ते हो उनसे भी तुम्हें मानवता की शिक्छा मिलती है, विपरीत परिस्तिथी मैं भी समभलने की प्रेरणा मिलती है, इसलिये आध्यात्म की शिक्छा अतिआवश्यक है जो मानव को उसकी देह से नही अपितु कर्म से मानव बनाती है!

जैसे तुम पाठशाला मैं व विश्वविध्यालय मैं उचित शिक्छा प्राप्त कर अच्छी नौकरी व आय की इच्छा रखते हो और प्राप्त भी करते हो वैसे ही आध्यात्म तुम्हें तुम्हारी आत्मा की तरक्की करता है, उसे श्रेष्ट से सर्वश्रेष्ट बनाता है!

हे मनुष्यों इसलिये आध्यात्म को तुम आत्मसात करो, उसे केवल सुनकर भूलने और फिर सुनने के लिये नही अपितु उस पथ पर चलने के लिये सुनो, यदि ऐसा तुम करोगे तो निश्चित ही खुद को जान लोगे और खुद को जान लिया तो मुझे भी जान लोगे, मैं परमेश्वर!!

कल्याण हो