"अकेले मैं दिन-रात मुस्कुराने लगी हूँ
शायद ये सच है मैं बदलने लगी हूँ
जीने की चाहत फिर जागी है मुझमें
शायद फिर दुनियॉ जीतने चली हूँ
बहुत बहाये अश्क इस महफिल मैं
सुखा हर अश्क आगे बड़ने लगी हूँ
कर दिखाऊगी वो सब जो न किया
खुद से यही बस अब कहने लगी हूँ
नही हूँ यहॉ मैं तन्हा और अकेली
खुद मैं ही ये अब बड़बड़ाने लगी हूँ
बेबस समझ जो छिपती थी जमानेसे
आज़ दुनियॉ से नज़रें मलाने लगी हूँ
टूट कर बिखर गयी थी कभी मैं यहॉ
आज़ फिर एक बार सम्भलने लगी हूँ
अकेले मैं दिन-रात मुस्कुराने लगी हूँ
शायद ये सच है मैं बदलने लगी हूँ-२"
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