Wednesday, 1 May 2013

ईश्वर वाणी -35, ishwar Vaani-35 **स्वर्ग और नरक **



नमस्कार दोस्तों आज फिर हम हाज़िर हैं ईश्वर वाणी में ईश्वर द्वारा दिए गए ज्ञान के विषय में आपको जानकारी देने , दोस्तों हमारे मन में कुछ सवाल फिर जाग्रत हुए और उन्हें हमने प्रभु से पूछा, और प्रभु ने उन सवालों का जवाब हमे बड़े है अच्छे तरीके से दिया दोस्तों आप अब सोचने लगे होंगे की हमने क्या सवाल करे थे प्रभु से, तो आपका समय अब न लेते हुए हम आपको बता रहे है की क्या हमने प्रभु से पूछा और उनका क्या जवाब उन्होंने हमे दिय। 


प्रश्न-१- हमने पूछा प्रभु से "भगवंत हमे बताये की स्वर्ग और नरक क्या है? हम मरने के बाद कहा जाते हैं, कुछ लोग कहते हैं की यही स्वर्ग और यही नरक है बताये प्रभु क्या सत्य है"?

उत्तर-२* प्रभु बोले " सर्ग वो स्थान है जहाँ कोई दुःख नहीं, हर तरफ ख़ुशी और आत्म संतुष्टि है, कही भी किसी प्रकार का कोई बेर भाव नहीं है, कोई भेद भाव नहीं है, किसी भी प्रकार की न तो सीमा है और न दीवार है, जहाँ केवल आत्मिक शान्ति  और ख़ुशी है, जहाँ कोई दर्द नहीं जहाँ कोई दुःख अथवा पीड़ा नहीं वो ही स्वर्ग है"।




"प्रभु कहते है नरक के विषय में की जहाँ दुःख है, दर्द है, न शान्ति है, ना प्रेम  है, जहाँ  अनेक प्रकार की दीवारे हैं, जहाँ  अनेक   तरह के भेद भाव हैं, जहाँ न सम्मान है और न अपनापन है, जहाँ स्वार्थ सिध्ही है  वो ही स्थान  नरक है"।


प्रभु कहते हैं " जो मनुष्य अपने जीवन काल में अनेक पीड़ा झेल कर भी बुराई के मार्ग पर नहीं चलता अपितु सत्य के मार्ग पर चलता रहता है निश्चित ही अपने भोतिक शरीर को त्यागने के पश्चात वो स्वर्ग का भागी होता है, जो मनुष्य काम क्रोध लोभ, मोह और अहंकार का त्याग कर , अपने देश और विभिन्न प्रकार की मानव द्वारा बनायीं गयी सीमाओं को त्याग कर सम्पूर्ण श्रृष्टि को अपना घर और समस्त प्राणियों को अपना बंधू समझ कर सदेव उनके हित और उनके प्रति दयालु हो कर कार्य करता है, जो स्वाम के अपने दुखों से जितना विचलित नहीं होता किन्तु यदि और किसी और प्राणी को किसी दुःख में देख ले तो खुद से ज्यादा विचलित हो जाए और उन्हें उनके दुःख को दूर करने हेतु कार्य करे अथवा कोशिश भी करे तो ऐसे मनुष्य निश्चित ही ईश्वर के अति प्रिये होते हैं और उन्हें जितना कष्ट ही मानव रुपी भोतिक शरीर में भले उठाना पड़े किन्तु शरीर त्याग के बाद स्वर्ग के पात्र बनते हैं, किन्तु इसके साथ ही प्रभु कहते हैं की केवल वे ही स्वर्ग के पात्र बनते हैं मनुष्य जो इस प्रकार के कार्य तो करते हैं किन्तु साथ में वो ये भी अपने मन में सोचते हैं की इश्वर सब देख रहा है और उनके इस कार्य का उचित फल उन्हें अवश्य मिलेगा,

         प्रभु कहते हैं जो स्वर्ग में आया है निश्य ही उससे असीम सुख की प्राप्ति होगी किन्तु जब उसके पुण्य पूर्ण होंगे तब उसे फिर से धरती पर भेज दिया जायगा, निश्चित ही उसे मानव रूप ही मिलेगा ताकि वो फिर से इस प्रकार सत्कर्म करे  जिससे उसे मोक्ष की प्राप्ति हो। 

प्रभु कहते हैं जो मानव बिना किसी फल की आशा करे सत्कर्म  यानि की इश्वरिये मार्ग पर चल करा सदेव उचित व्यवहार के साथ उचित कार्य करते हैं चाहे उन्हें कितना भी कष्ट क्यों न भोगना पड़े किन्तु घबराते नहीं है और ईश्वर  पे  पूर्ण आस्था रख कर बिना स्वार्थ के अथवा ये भाव रखे बिना की भगवन उन्हें देख रहा है अवं उन्हें उसके कार्यों के कारण निश्य ही स्वर्ग अथवा उचित फल मिलेगा बिना ऐसी भावना के जो कार्य करते हैं उन्हें ईश्वररीये लोक की प्राप्ति होती है, अर्थात जिस रूप में और जिस नाम से मनुष्य उनकी पूजा करता है अवं अपने भोतिक स्वरुप में वो जिस पर आस्था रखता है ऐसे मनुष्य को शरीर त्यागने के पश्चात अपने आराध्य के लोक में स्थान प्राप्त होता है, प्रभु कहते हैं की ऐसा नहीं है की जितने नामों से लोगों ने उन्हें बाँट रखा है उतने ही लोक संसार में विराजित है और न ही जितने लोग आपस में अपने प्रकार के भेद भाव के कारण बनते हैं उतने ही स्वर्ग इस ब्रह्माण्ड में मौजूद है, प्रभु कहते हैं की स्वर्ग और ईस्वर का लोक ब्रह्माण्ड में केवल एक ही है किन्तु जैसी भावना जिसकी रहती है अपने भोतिक शरीर को त्यागते समय उसके सुक्ष शरीर यानि की अभोतिक शरीर जो की आत्मा है उसे उसी रूप में स्वर्ग अवं प्रभु लोक के दर्शन होते हैं अवं वैसा ही स्वर्ग अवं प्रभु लोक उसे प्राप्त होता है। 

             प्रभु कहते हैं जो मनुष्य नास्तिक होते हैं किन्तु जो सदा सत्कर्म करते रहते हैं अपने भोतिक रूप में यधपि ऐसे मनुष्य आजीवन प्रभु का नाम भी न लेते हो किन्तु केवल सत्कर्म निह्सार्थ भाव से करते रहे हो, ऐसे मनुष्य भी प्रभु लोक में प्रवेश के अधिकारी होते हैं, प्रभु कहते हैं ऐसे मनुष्यों को मैं अपने निराकार स्वरुप में खुद ही विलीन कर उन्हें मोक्ष प्रदान करता हॊन। 





किन्तु प्रभु नरक के विषय में कहते हैं "जो प्राणी केवल अपने स्वार्थ के वश में, अहंकारी हो कर अपने सम्पूर्ण जीवन को केवल अपने भोतिक सुखों में लगाये रखता है अवं दुसरे निर्दोष प्राणियों का अहित अपने स्वार्थ सिध्ही हेतु करता रहता है, उसे निश्चित है नरक की प्राप्ति होती है, प्रभु कहते हैं नरक वो स्थान है जहाँ केवल उसे दंड के स्वरुप कष्ट और विभिन्न प्रकार की यातनाये दी जायंगी ऐसा इसलिए होगा क्यों की उसके जीवन काल में उसने कई निर्दोष प्राणियों के भी ऐसी ही यातनाये दी थी अपने स्वार्थ की खातिर,

    प्रभु कहते हैं एक तरफ स्वर्ग और प्रभु का लोक ऐसे दुष्ट व्यक्तियों को नज़र आएगा और दूसरी और नरक जहाँ वो अपने कर्मोनुसार दंड प् रहे होंगे, उन्हें दिखाई देगा की जिन प्राणियों ने उनके द्वारा दुःख पाया अपने जीवन काल में अब वो सुख पा रहे हैं और एक वो हैं जिन्होंने अपने जीवन काल में सभी सुख भोगे आज उससे कई गुना ज्यादा कष्ट पा रहे हैं, प्रभु कहते हैं ऐसे मनुष्य अपने दंड भोगे के पश्चात फिर से अपने कर्मो के प्रायश्चित हेतु फिरसे जन्म लेते हैं और यदि वो इसके पश्चात नेक और भले कर्म बिना किसी स्वार्थ और आशा के करते हैं तो इस जन्म के बाद मोक्ष के पात्र बनते हैं, 


     "प्रभु कहते हैं की जो लोग स्वर्ग में रहते है वो लोग नरक की यातना झेल रही आत्माओ को भली प्रकार देखते रहते हैं, ईश्वर कहते हैं ऐसा इसलिए  द्वारा निश्चित किया गया है क्यों जब स्वर्ग का समय पूर्ण करने के पश्चात वो फिर से जन्म ले तो अहंकारी और व्याभिचारी न बन जाए और अपने जन्म के उद्देश्यों से न भटक जाए, इसलिए स्वर्ग की यातना को वो सदेव किसी न किसी रूप में याद रख कर वो अपने जीवन को सदा नेक और सत्कर्मो को सौंप दे और शरीर त्यागने के पश्चात मोक्ष को पाये"। 



प्रश्न-२* हमने पूछा प्रभु से "भगवंत क्या भोतिक शरीर के साथ भी स्वर्ग अवं नरक की अनुभूति हमे हो सकती है"? कृपया मार्गदर्शन करे। 

उत्तर-२* प्रभु बोले" जिस मनुष्य के मन में आत्म संतुष्टि है, जिस मनुष्य में "और" की भावना नहीं है, जिसे जितना मिल गया उतने में ही प्रसन्न रहने का गुण है, जो व्याभिचार से दूर, भेद भाव और झूठी सीमाओं से दूर सदेव नेतिकता का पालन करने वाला, झूठा और धोकेभाजो का न साथ देने वाला और न समभंद रखने वाला और इसके साथ ही जो मनुष्य प्रभु वचनों का पालन करता है, उसे इसी भोतिक स्वरुप में स्वर्ग की अनुभूति होती है, ऐसे मनुष्यों को दुःख में दुःख की अनुभूति नहीं होती और ख़ुशी में ख़ुशी की", प्रभु कहते है " जिसे ख़ुशी में कोई ख़ुशी न महसूस और और दुःख में कोई दुःख न दिखाई दे, जो हर मौसम में और हर परिश्तिथि में एक जैसा रहे ऐसे मनुष्य को अपने भोतिक शरीर में ही स्वर्ग जैसा सुख प्राप्त होता है"। 



प्रभु भोतिक जीवन में  नरक के विषय में कहते है " जिस मनुष्य में "और " की भावना है, जो मनुष्य सदेव लालच में रह कर अधिक और अधिक अपने शारीरिक सुख की वस्तुओं को पाने में लगा रहता है उसे इसी शरीर में नरक की अनुभूति हो जाती है, प्रभु कहते है उसके आत्म संतुष्ट न होने की भावना ही उसका सबसे बड़ा कष्ट बनता है जो उसके इस जीवन को नाराकिये बना देता है"। 




प्रभु कहते हैं की मैं मनुष्य को पहले ही बड़ा देता हूँ की उसे नरक का रास्ता चुनना है या मुझे अथवा स्वर्ग को प्राप्त करने का रास्ता चुनना है, यधपि जन्म से पूर्व सभी आत्माए ये ही कहती है की उन्हें तो प्रभु को पाने का मार्ग चाहिए किन्तु इस शरीर को प् कर वो अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं, ऐसे में मैं उन्हें विभिन प्रकार के कष्ट अवं अनेक परीक्षाओ के माध्हय्म से उन्हें उनके उद्देश्य याद दिलाने का प्रयत्न करता हूँ, इसके पश्चात जो प्राणी अपने को और अपने कर्तव्यों की जान जाते हैं उन्हें स्वर्ग जैसा अनुभव यही प्राप्त हो जाता है और शरीर त्यागने के बाद भी उन्हें असीम सुख की प्राप्ति होती है किन्तु जो जान नहीं पाते उन्हें नाराकिये कष्ट यही झेलने पड़ते हैं इसके साथ भोतिक शरीर त्यागने के पश्चात भी उन्हें नरक की प्राप्ति के पश्चात अनेक कास्ट दंड के रूप में झेलने पड़ते है।




अर्चना मिश्र 










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