देख इमारते ऊँची ऊँची इतराते हैं नेता प्यारे, देख आलिशान घर और मकान
मुस्कुराते हैं नेता न्यारे,देख व्यवसाय के गलियारों को शान समझते हैं
नेता सारे, पर एक छप्पर को तरसने वाली भूखी जनता क्यों उन्हें नहीं दिखती
है, क्या इन रंगीनियों तक ही है सीमित देश या नेताओ की नज़रों में जनता की
नहीं कोई गिनती है, एक वक्त की रोटी अपनों को देने के लिए जहाँ एक और कितनो की अस्मत लुटती है, नंगे बदन एक बालक को तपती धूप में रख एक माँ
पत्थर दिल पे रख कर कही मेहनत मजदूरी करती है, जीवन के जाने कितने संघर्षों
से लडती हुई मजबूर जनता क्यों नहीं किसी को दिखती है, कहते हैं नेता सारे
देश में मिटने लगी है गरीबी, दूर जाने लगी है अब तंग हाली और बेबसी, मिलने
लगा है सबको रोज़गार, हर किसी को मिल चूका है अब पड़ने लिखने का अधिकार, पर
सुन कर उनकी बाते आता है ख्याल दिल में क्या सच में वो देश की बात करते हैं, जो दिखता नहीं जनता-ऐ -आम को वो आखिर नेताओं को कैसे दिख जाता है, करते हैं बात वो इस जनता की या अपनी ही हसीं दुनिया को सम्पूर्ण जहाँ समझ कर बदहाल हुई इस बेबस जनता को खुशहाल जिसे बतलाते हैं ये हमारे नेता प्यारे।
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