Sunday, 18 November 2012

पग पग गिरता फिर सम्भलता हू मैं

पग पग गिरता फिर सम्भलता हू मैं, पग पग चलते हुए रास्ता ढूनडता हू मैं, ना पता है मुजे कोई रास्ता और ना पता है मंज़िल का, दोष दू
तो किसे दू, हालत से हरा हुआ, अपनो से ठुकराया हुआ कमजोर साशख्स
हू मैं, 


कभी ज़िंदगी चूमती थी कदम  और आज मौत भी रहती है हरदम, कभी वक़्त था ऐसा जब मैने अपनो के लिए कर
 दी कुर्बान खुशिया सारी, आज हालत के हाथों मिली है बस मुजे लाचारी,
गेरो के नही अपनो क सितम का शिकार हू मैं,


 की मोहब्बत जिससे मैने
उसका भी ठुकराया हू मैं, वक़्त था कभी जब सीने से लगाते थे वो
मुझे, और आज दूर रहने को कहते हैं वो मुजे, पूछता  खुद से मैं ये सवाल
हू, क्या किसी को अपना कहना ज़ुर्म था मेरा, क्या किसी को सहारा देना ज़ुर्म
था मेरा,


 क्या किसी से दिल लगाना गुनाह था मेरा,जो चीन के मेरी खुशी मुजे ज़हाँ ने तन्हा छोड़ दिया, भुला के
सारी वो बीती हुई  बाते मूज़े ताड़पता छोड़  दिया,
और आज हू इस कदर बेबस मैं,


 पग पग गिरता और सम्भलता हू मैं, पग पग गिरता फिर सम्भलता हू मैं, पग पग चलते हुए रास्ता ढूनडताहु मैं,
ना पता है मूज़े कोई रास्ता और ना पता  है मंज़िल का बस पग पग गिरता फिर सम्भलता हू मैं..--
Thanks and Regards
 *****Archana*****

No comments:

Post a Comment