लोग भले ईश्वर को माने या न माने ये उनकी मर्जी है, लेकिन मैंने परमात्मा की शक्ति को पल पल महसूस किया है।
ईश्वर कहते हैं उन्हें तभी हम प्राप्त कर सकते हैं जब हमारा मन बच्चे जैसा हो अर्थात जैसे बच्चे होते हैं मासूम, जैसे उनके दिल और दिमाग मे भिन्नता नही होती, जैसे वो अंदर होते हैं वैसे ही बाहर होते हैं कोई दिखावा व छलावा नही होता उनमे, ठीक वैसा ही मन यदि वयस्क को हो तो परमात्मा उसे जरूर मिलते हैं।
मुझे बहुत लोगो ने बोला कि तुम्हारे अंदर परिपक्वता नही है, बच्चों की तरह हो, कई लोगों ने बेइज़्ज़ती तक कि मेरे इस व्यवहार को ले कर, ज़लील तक किया और लोग छोड़ कर भी चले गए क्योंकि उन्हें लगता था मुझमे परिपक्वता नही है।
परिपक्वता मुझे इसकी परिभाषा समझ नही आई आज तक, क्या कोई इंसान झूठ बोले बात-बात पर, किसी का दिल तोड़े या दुखाये, अपनी जरूरत पर मीठा बने फिर जब किसी को उसकी जरूरत हो तो अनजान बन के चला जाये, फरेब करे, सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जिये और दूसरे को कुछ न समझे इत्यादि, पर क्या इसी को परिपक्वता कहते हैं, शायद आज के समय में यही परिपक्तवा की निशानी है और जो ऐसा नहीं है वो या तो मूर्ख है या फिर उसका मन बच्चों जैसा है।
लेकिन जो इस तरह परिपक्व है वो भले इस समाज मे रह ले लेकिन उसे परमात्मा कभी नही मिल सकते और न उसकी आत्मा कभी सन्तुष्ट हो सकती है, वो लोग जो खुद को परिपक्व बता निम्न कार्य करते हैं भले अपने शरीर को सुख पहुचाते हो इससे पर उनकी आत्मा कभी संतुष्ट नही होती और यही वजह है जब वो कभी किसी मुश्किल में होते हैं तब उनकी मदद के लिए ईश्वर न खुद आता है न किसी को भेजता है क्योंकि ईश्वर किसी भी तरह के घमण्ड करने वाले व्यक्ति का हो ही नही सकता इसके लिए निर्मल होना जरूरी है।
मेरे साथ एक बार नही बल्कि कई बार ऐसा हुआ जो मैंने ईश्वर की शक्ति को महसूस किया है। दिल्ली की असुरक्षित सड़को पर अकेले चलना और घूमना इतना आसान नही है लेकिन मैंने जबसे अकेले इन रास्तों पर चलना शुरू किया तो पल पल महसूस किया कि कोई शक्ति मेरे साथ है जो हमेशा मेरा हाथ थामे रहती है और मेरा इतना ख्याल भी रखती है।
मेरी ग्यारहवीं कक्षा से ले कर स्नातक तक मनोविज्ञान मेरा विषय रहा है, अगर बात की जाए मनोविज्ञान की तो वो ये सब एक तरफ तो नही मानता वही दूसरी तरफ इसका समर्थन भी करता है।
इस ब्रह्माण्ड में सिर्फ वही सच नही जो दिखता है बल्कि सच वो है जो दिखता तो नही पर होता है जैसे 'हवा' और प्रत्येक जीव चाहे अति विशाल हो या सूक्ष्म उसकी 'शक्ति', इसी तरह परमात्मा की शक्ति होती तो है पर भौतिकता पर विश्वास करने वाली इन आंखों से वो दिखती नही, जिस दिन अभोतिक्ता पर भी भरोसा करने लगोगे तब तुम उस परमात्मा को देख सकोगे साथ ही अपने अंदर के उस मासूम बच्चे को जगा के रखोगे, निःस्वार्थ रहोगे तब उस परमात्मा को प्राप्त करोगे।
तुम खुद देखोगे की कोई शक्ति तुम्हे कैसे गलत रास्ते पर जाने से रोकती है, कितनी भी हठ कर लो नादानी में अपनी पर वो तुम्हें वो ऐसी संभालेगी जैसे तुम्हारे माता-पिता बचपन मे तुम्हे संभालते थे ।
ऐसा नही की ये सब हवाई बाते है, ये मेरा अपना खुद का ही अनुभव है, आध्यात्म से जुड़ कर मैंने उसे पाया जो न सिर्फ मेरे बल्कि श्रष्टि की उतपत्ति से पहले था आज भी है और कल भी रहेगा, पल पल वो मेरे साथ चलता है मेरा ध्यान रखता है और सुरक्षित भी रखता है। इसलिए इंसान को आध्यात्म से जुड़ना चाहिए साथ ही थोड़ी सी मासूमियत बच्चों जैसी रखनी चाहिए, दिल प्योर रखे फिर देखना हर इंसान कभी न कभी तो उस 'ईश' को इसी भौतिक देह के साथ प्राप्त कर ही लेगा।
अर्चना मिश्रा
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