"चलते चलते बहुत थक चुके हम
कहते कहते हर बार रुक चुके हम
ढूंढते हैं सुकून ए ज़िंदगी अब यहाँ
अमन से कितना दूर जा चुके हम
बेहतरी की उम्मीद रखते दिन-रात
पर अश्कों में ही है डूब चुके हम
खोजती नई मन्ज़िल 'मीठी' यहाँ
'खुशी' नही ग़मो से घिर चुके हम
मिले काटे और पत्थर ही राहो में
ठोकरे यहाँ बहुत खा चुके हम
हर दिन रोज टूट कर बिखरते हैं
जुड़ने का वो हौसला खो चुके हम
चलते चलते बहुत थक चुके हम
कहते कहते हर बार रुक चुके हम"
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