हम वफ़ा निभाते रहे वो बेवफाई का दामन थामे रहे, हम तन्हाई में भी मुस्कुराते रहे वो रुसवाई दिखाते रहे, सोचा था हमने कभी तो ख़त्म होगा उनका ये सितम हम पर, बस ये ही सोच कर हम ज़िन्दगी लुटाते रहे वो इसे दिल बहलाने का आसन तरीका मान कर दिल अपना बहला कर हर वक्त हमे रुलाते रहे, उनकी आँखों में ख़ुशी देख कर हर पल हम भी दिल उनका रखने रखने के खातिर पूरी जिदंगी यु ही अश्क बहाते रहे…
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Friday 21 June 2013
Thursday 20 June 2013
खुश हूँ बहुत मैं हर गम से दूर जा कर
मैं खुश हूँ बहुत इतने रंग ज़िन्दगी में पा कर ,खुश हूँ
बहुत मैं तुझे संग पा कर, खुश हूँ बहुत मैं हर गम से दूर जा कर, खुश हूँ
बहुत मैं अश्कों से जुदा हो कर,
एक कलि थी मैं बिन तुम्हारे पर आज खुश हूँ मैं फूल बन
कर, आसमान में बिखरे हुए सितारों की तरह बिखरी पड़ी थी मैं आज चाँद बन कर
बहुत खुश हूँ मैं,हालत से हारी, गम की मारी हर दर्द सीने में छिपाए बहुत रोती थी मैं पर आज बरसों बाद मुस्कुरा कर बहुत खुश हूँ मैं,तन्हाइयों में
रहती थी कभी अकेली पर आज अपनों को पा कर बहुत खुश हूँ मैं,
मिलाया तूने खुद मुझको मुझी से, रोते हुए हसाया तूने
मुझे कितनी ख़ुशी से,मिला साथ जब अपनों का तब भी साथ मेरे सिर्फ तुम्ही थे ,
मेरे सूनेपन से ले कर अपनों के मिलन के वक्त भी संग केवल मेरे तुम्ही थे, मेरे हर पल
मेरे हर लम्हा साथ सिर्फ तुम्ही थे, आज खुश हूँ बहुत मैं अपनों को पा कर,
आज खुश हूँ बहुत मैं अपनों के करीब जा कर, आज खुश हूँ बहुत मैं तुम्हे
अपने करीब ला कर,
मैं खुश हूँ बहुत इतने रंग ज़िन्दगी में पा कर ,खुश हूँ
बहुत मैं तुझे संग प् कर, खुश हूँ बहुत मैं हर गम से दूर जा कर, खुश हूँ
बहुत मैं अश्कों से जुदा हो कर,
ईश्वर वाणी- दुष्टों को दण्डित करना उचित या अनुचित **42**
नमस्कार दोस्तों आज हम हाज़िर हैं ईश्वर वाणी में ईश्वर द्वारा बताई गयी
बातों के साथ। दोस्तों हमारे मन में कुछ सवाल उठे और उन्हें हमने प्रभु से
पुछा, प्रभु ने हमे उनके उत्तर क्या दिए और क्या सवाल हमने उनसे पूछे ये हम
आपको नीचे बताते है…
प्रश्न ? हमने प्रभु से पूछा की भगवंत कहीं तो
आपने कहा है की दुष्टों और दुराचारियों के लिए ठीक वैसा ही आचरण करना गलत
नहीं है किन्तु कही आपने कहा है की जो जैसा है हमे उसके साथ वैसा स्वाभाव
नहीं रखना चाहिए यदि हम ऐसा करते हैं उसमे और हममे क्या अंतर होगा, तो कही
आप कहते हैं सत्य और मानवता की रछा के लिए यदि हमे दुष्टों और शेतान का साथ
देने वाले का अंत भी करना पड़े तो अवश्य करना चाहिए तो कभी आपने कहा है सभी
को छमा कर सभी से अपने जैसा ही प्रेम करना चाहिए, प्रभु हमे बताये ये दो
अलग अलग बाते क्यों आपने कही और उनका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर=
प्रभु बोले " ये सत्य है की दुष्टों और दुराचारियों एवं अत्याचारियों,
मानव एवं प्राणी जाती का अहित करने वाले धूर्त और निर्दयी मनुष्यों के लिए
उनका अंत अवश्य करना चाहिए एवं उनके जैसा आचरण करना कोई बुरी बात नहीं है
और ना ही धर्म के विरुद्ध है, किन्तु किसी भी प्राणी को दण्डित करने से
पूर्व ये जानना अवश्य आवश्यक है की जो प्राणी निम्न बुराइयों से ऒत प्रोत
है वो अगान्तावश है अथवा ग्यानी है, यदि ऐसा घ्रणित कार्य करने वाला मनुष्य
अज्ञानी है और अज्ञानतावश ऐसा कर रहा है तो निश्चित रूप से वो हमारी छमा
के योग्य है, ऐसे प्राणी को छमा कर उसे अज्ञान के अन्धकार से दूर कर ज्ञान
के प्रकाश से उसके जीवन को रोषित करने का प्रयन्त करना चाहिए, निश्चित ही
ऐसे प्राणी की आँखों से अज्ञान का पर्दा हटेगा वो बुराई का मार्ग स्वतः ही
त्याग देगा और ऐसा करने वाला प्राणी किसी भी प्रकार से दंड का भागी नहीं
होगा क्योंकि जो भी उसने अब तक बुरा किया वो सब अज्ञानतावश किया कितु जैसे
ही उसे ज्ञान की अनुभूति हुई उसने अपने को समस्त बुराइयों से दूर कर
सत्मार्ग को अप्नाया।
प्रभु कहते हैं किन्तु जो प्राणी स्वतः की ग्यानी हो कर और अपने ज्ञान एवं शक्ति के अभिभूत हो कर सृष्टि में बुराई फेलाते हैं एवं समस्त शेतानी कार्यों में लिप्त रहते हैं, अपने स्वार्थ के लिए प्राणियों का अहित करते हैं ऐसे प्राणी निश्चित रूप से कठोर दंड के भागी होते हैं और ऐसे प्राणियों के साथ उनके जैसा व्यावहार करना गलत नहीं अपितु धर्म नीति के अनुरूप है, ऐसे प्राणी को दंड देने का समर्थन ईश्वर द्वारा किया गया है"।
Tuesday 11 June 2013
माँ आर्टिकल (ma article)
माँ वो शब्द है जो एक नारी को पूर्णता प्रदान करता है। कहते हैं विवाह
के पश्चात एक स्त्री पूर्ण तब तक नहीं होती जब तक की वो माँ नहीं बन जाती,
किन्तु क्या किसी बालक को जन्म दे कर ही वो माँ बन्ने का गौरव हासिल कर
सकती है। यदि की किसी कारणवश वो किसी संतान को जन्म ना दे पाए तो इसका
अभिप्राय क्या ये लगा लेना उचित होगा की वो स्त्री अपूर्ण है। ये भले सच एक
है की एक नारी संतान को जनने के पश्चात बालकों के और भी ज्यादा करीब आ
जाती है, वो उनके दुःख-सुख और अनेक प्रकार की समस्याओं को आसानी से समझ
सकती है, उसमे ममता का सागर उमड़ता रहता है जो ना सिर्फ केवल अपनी ही
संतानों के लिए अपितु वो सभी बालकों जो उसके बच्चों के मित्र है या जो भी
उसके अपने बच्चों की उम्र के या अन्य जो भी बालक हैं उन सबके लिए रहता है, वो उन सभी बालकों से प्रेम रखती है स्नेह रखती है इसके साथ ही वो बालकों की बातों एवं उनकी समस्याओं को पहले की अपेक्षा संतान जनने एवं माँ बनने के बाद वो अधिक समझने लगती है।
किन्तु
नारी में ये गुण केवल संतान के जन्म देने के बाद ही उत्पन्न हो ये सत्य
नहीं है, शाश्त्रों में भी नारी को ममता की मूरत कहा गया है किन्तु इसका
अभिप्राय ये नहीं की उसमे ममता का संचार तभी हो जब वो माँ बने और एक बालक
को जन्म दे, ममता का अर्थ है निःस्वार्थ सच्चा और पवित्र प्रेम जिसमे केवल
देना है और बदले में कुछ भी पाने की उम्मीद नहीं है, जिसमे पवित्रता अपनापन
अपार स्नेह, सुरक्षा है वो ममता है, ये गुण नारी में केवल एक संतान को
जन्म देने के बाद नहीं आते ये गुण तो उसमे यधय्पि जन्मजात होते है। और माँ
स्त्री न केवल अपने जन्म दिए बच्चों की बनती है यदि वो चाहे तो कई बेघर और
लाचार अनाथ बच्चों की माँ बन कर उनका सहारा बन कर उन्हें अपना मात्रत्व दे
कर उनकी जीवन में माँ की कमी को पूर्ण कर सकती है, कहते हैं एक बच्चे को
ज़िन्दगी में सबसे अधिक आवशकता माँ की होती है क्योंकि एक बालक माँ के गर्भ
से ले कर दुनिया में आने तक और जब तक उसमे पूर्ण रूप से समझ, आत्मविश्वाश
और आत्मनिर्भरता ना आये माँ के साथ की जरुरत महसूस करता है, हालाकि माँ की
जरुरत उम्र भर रहती है मनुष्य को किन्तु जब मनुष्य ऊपर बतायी गयी इन सब चीजे को पा लेता है तब उसे माँ इन सब वाश्तुओं के आगे छोटी लगने लगती है, ऐसे लोग माँ के महत्व से अनजान होते है।
माँ
की आवश्यकता जितनी मनुष्य को होती है उतनी ही आवश्यकता पशु-पक्षियों एवं
जीवों को होती है। हमने यहाँ पे इस विषय में एक कहानी भी लिखी थी "पौराणिक
कथा" ( http://mystories028.blogspot.in/2013/01/pauranik-katha.html) जो
पशु-पक्षियों का मानव के प्रति एवं मानव और माँ के प्रेम को उजागर करती है
की किस प्रकार एक साधू-साध्वी अपने वन के पशु-पक्षियों को अपने बालक मान
कर उनका पालन पोषण करते थे और वो जीव भी उन्हें अपने सगे माता-पिता मान कर
उसने असीम प्रेम रखते थे।
दोस्तों माँ दुनिया में
एक ऐसा विषय है जिसके बारे में जितना कहा जाए उतना कम है, दुनिया में कही
भी आप रहे और किसी भी जीव को आप देखे हर जीव यदि वो जीवित है तो उसे माँ
आवश्यकता हमेशा रहती है।
दोस्तों मेरी ही अपनी एक आप बीती
है जिसे आपसे शेयर करने का मेरा दिल कर रहा है, वैसे तो मेरी अभी तक शादी
नहीं हुई और मुझे बच्चों से वैसे तो दूर रहना ही अच्छा लगता है हाँ ये बात
और है की बच्चे मुझे बहुत पसंद करते हैं, वेल ये बात और है पर अब हम आपको
अपनी एक आप बीती बताते हैं की किसी को पा कर हमने पहली बार अपने अन्दर
मातृत्व के भाव को अनुभव किया था, ये बात है २७ अप्रेल सन २ ० ० ० की, २ ८
अप्रेल को मेरा जन्म दिन था और मेरी विश थी मम्मी पापा से की मुझे डौगी
दिया जाए जन्मदिन के उपहार में, वेल दोस्तों गॉड ने मेरी ये विश सुन ली,
मेरे जन्मदिन से ठीक एक दिन पहले हमारे घर २ बहुत ही प्यारे डौगी पापा ले
कर आ गए और उन्हें मेरा जन्मदिन का उपहार बता कर मुझे दे दिया, पर उन्हें
देख कर मैं और घर के अन्य सदस्य थोडा हेरान थे क्योंकि ये डौगी तो सिर्फ ७
दिन के थे और उनका बिना माँ के पल पान बड़ा ही मुश्किल था, वेल हमे लगा की
शायद इन्हें इनकी माँ के पास अब छोड़ के आना पड़ेगा और पापा ने हमे सिर्फ मन
रखने के लिए इन्हें दिया है, पर हमारी मम्मी ने हिम्मत दी और कहा क्यों
नहीं ये पल सकते, जब तुम्हे हम पाल सकते हैं तो इन्हें क्यों नहीं, बस फिर
क्या था उनके मार्ग दर्शन से(चुकी हमारी मम्मी का आँखों का ऑपरेशन हुआ था
इस्ल्लिये वो खुद उनकी देख भाल करने में असमर्थ थी ) हमने इनकी परवरिश शुरू
की, दोस्तों अपने इन पेट्स की देखभाल करते हुए मुझे पहली बार अहसास हुआ
माँ का, मैंने इन पेट्स में अपने बच्चों को अनुभव किया और अहसास हुआ मुझे
की एक स्त्री केवल किसी बालक को जन्म दे कर या फिर किसी मनुष्य के बच्चे को
गोद ले कर ही माँ नहीं बन सकती अपितु उसमे तो ये गुण जन्मजात होते हैं और
माँ तो एक स्त्री ऐसे ही किसी मासूम पशु-पक्षी को अपने पास रख और उसका
ख्याल रख कर भी बन सकती है, जैसा वो इन्हें अपना बालक समझ कर इनका ख्याल
रखेगी वैसे ही ये भी अपनी सगी माँ समझ कर उसका ख्याल रखेगे।
दोस्तों
मेरे पेट्स ने ना सिर्फ मेरा बल्कि हमारे पूरे परिवार का ख्याल रखा और
हमेशा हमारे दुःख-सुख में साथ रहे, २ ० सितम्बर २ ० १ १ की रात हमारे एक
बच्चे की मृत्यु हो गयी किन्तु अभी भी वो जीवित है हमारे दिल में और दुसरे बच्चे की भी मृत्यु पहले की मिर्त्यु के २ साल २ दिन बाद लेकिन वो आज भी है हमारे पास एक याद बन कर और एक कर, ये ही अहसास मुझे हर पल उनकी माँ होने का अहसास कराता है इसके साथ ही समस्त पशु-पक्षियों में भी अपने बच्चो की ही झलक दिखा कर उनकी भी माँ होने का अहसास ।
माँ वो अहसास है जो किसी को जन्म देने से नहीं अपितु खुद ही किसी को अपने करीब आने से खुद ही दिल से निकल कर उसपे लुटने को तैयार हो जाता है, दुनिया में सबसे हसीं और प्यारा अहसास है माँ का जिसे पाने के लिए देवता भी ना जाने कितने रूप लेते है।
Saturday 8 June 2013
फरेब का ही एक नाम है आज प्यार
"फरेब का ही एक नाम है आज प्यार, खुद के साथ ही की गयी बेवफाई का नाम है आज प्यार, दुनिया में पाए जाने वाले हर धोखे का नाम है आज प्यार, अश्कों के तोहफे मिलने का ही नाम है आज प्यार, बेवज़ह दर्द मिलने का ही नाम है आज प्यार, तनहाई में ज़िन्दगी बिताने का ही नाम है आज प्यार, और क्या बताऊ तुम्हे मैं इश्क के बारे में, बेगुनाह हो कर भी सज़ा पाने का नाम है अब प्यार, किसी पर ज़िन्दगी लुटा कर खुद अकेले रह जाने ही नाम है आज प्यार.."
अनहोनी घटनाएं भाग-२(anhoni ghatnaaye part-2)
नकास्कार दोस्तों आज हम हाज़िर हैं अपने इस लेख जिसका नाम है अनहोनी
घटनाएं जिसमे आपको हम उन घटनाओं के विषय में बताएँगे जो सत्य तो है किन्तु
उने सत्य ठहराने का हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है, हालाकि अपने इस लेख मैं
हमने अभी किसी और की ऐसी घटनाओ को शामिल नहीं किया है किसी ख़ास वज़ह से
किन्तु अपने इस लेख में हम फिर आपको वो सत्य बताने जा रहे हैं जो हमारे साथ
बीता है और जो पूर्ण रूप से सत्य है हाँ ये बात और है की उसे सत्य सिद्ध
करने के लिए हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है किन्तु अगर होता कोई प्रमाण तो
वो घटनाएं अनहोनी ही क्यों होति।
हमने
सुना है की यदि कोई प्राणी अपनी देह त्यागता है तो २४ घंटे के भीतर उस
प्राणी की आत्मा अपने प्रियेजन और अपने उस भोतिक शरीर को देखने अवश्य आती
है की उसके शरीर का लोग क्या कर रहे हैं उसके जाने के बाद एवं उसके प्रियेजन उसे याद भी कर रहे हैं या नहीं । पहले हमे इन सब
पर यकीं नहीं था, इन सब बातों को हम केवल अपना मन बहला लेने के लिए ही पड़ते या फिर सुनते थे या फिर टीवी पे या फिर किसी मूवी पे इस टाइम पास करने के
मकसद से ही हम उसे देखते हैं पर ये सब सत्य होता है ऐसा यकीं नहीं रखते
थे। पर तकरीबन २ साल पहले ऐसा कुछ हमारे साथ हुआ की हमे यकीं हो चला की
जैसे शाश्त्रों में लिखा है की आत्मा २४ घंटे के भीतर अपने द्वारा त्यागे
गए भोतिक शरीर को देखने एवं अपने प्रियेजन से मिलने आती है ये सत्य है।
वैसे
यहाँ हम पाठकों को बता दे की हम मनोविज्ञान के शिकाशार्थी रह चुके हैं और
इसलिए हमे ये पता है की दिमागी बीमारी क्या होती और उसके क्या लक्षण होते
हैं या फिर वहम क्या होता है क्योंकि हमारे इस आर्टिकल को पड़ने के बाद बहुत से
लोग ये कहेंगे की जो कुछ हमने देखा और महसूस किया वो वहम था हमारा जो किसी
अपने प्रियेजन के जाने के बाद किसी को भी हो सकता है, किन्तु जो हमने देखा
और महसूस किया वो हमारा वहम नहीं था अपितु वो सच था जो हम आपसे आज शेयर
करना चाहते है।
२० सितम्बर २०११ की सुबह ८:३० हमारी
११ साल की बच्ची स्वीटी जिसकी किडनी की बीमारी की वज़ह से मौत हो
गयी, हम सब बहुत दुखी थे, पूरा परिवार उसके जाने के गम में बेसुध था, २०
तारीख को तो जैसे हम मनहूस ही मान रहे थे क्यों की इस दिन हमे छोड़ कर हमारी
बच्ची जो हमे चली गयी थे, मैं आपको बता दू की उसका जन्म भी २० तारीख हो ही
हुआ था पर २० अप्रेल सन २ ० ० ०, खेर बात २१ सितम्बर सन २ ० १ १ के सुबह
४:३ ० की है, हम सब सोये हुए थे और एक ही कमरे में पूरा परिवार लेटा हुआ
था, कमरे की लाइट भी उस दिन हमने बंद नहीं की थी, तभी सुबह ४:३ ० बजे अचानक
मेरी नींद टूट गयी और मैंने देखा की हमारी बच्ची ठीक मेरे बगल में बैठी
है, दिखने में वो कुछ उदास सी लग रही थी जैसे हमसे जुदा होने का गम उसे भी
हो, मुझे अपनी आँखों पर यकीं नहीं हुआ, मैंने इसे समझने के लिए कुछ वक्त
लिया और तकरीबन ५ मिनट्स तक उसे देखा फिर मुझसे रहा नहीं गया और मेरे मुह
से निकल ही पड़ा की बच्ची तू वापस आ गयी और ये कहते ही मैंने उसे अपने गले
लगाने की जैसे ही कोशिश की वो जाने कहाँ गायब हो गयी और उसके बाद वो मुझे
अभी तक कही नज़र नहीं आई(सुबह ४:३ ० बजे की विषय में भी पाठकों को मैं यहाँ
बता दू की जब वो आखिरी साँसे ले रही थी वो उससे सबसे ज्यादा तकलीफ इसी समय
से उसे शुरू हुई थी और हमे पता चल गया था की अब वो कुछ ही समय की मेहमान है
और उसके ठीक २ ४ घंटे के भीतर वो मुझे ठीक इसी समय दिखाई दी ), दोस्तों जब वो दुनिया
छोड़ कर गयी थी वो पित्र पक्ष के दिन थे और इसी वज़ह से मैंने जब तक ये दिन
रहे उसके नाम का पहला खाने का निवाला उसके नाम से निकालना शुरू किया शायद
ही कोई यकीं करे जैसे ही वो निवाला निकाल कर हम उसे रखते वैसे ही कुछ ही
देर में वो गायब हो जाता और हम सोचते की वो ही इसे खा कर गयी है किन्तु
जैसे ही पित्र पक्ष के दिन समाप्त हुए उसके बाद हम उसका खाने का निवाला
रखते वो वैसे ही रहता ।
दोस्तों ये वो घटना है जो
किसी और के साथ नहीं बल्कि हमारे साथ घटी और जो पूरी तरह से सत्य है और
हामरे प्राचीन धार्मिक ग्रंथों की बातों और आत्मा और परमात्मा की बातों की
सत्य सिद्ध करती है, आगे आपकी मर्ज़ी आप इसे माने या ना माने।
--
Thanks and Regards
*****Archana*****
Thursday 6 June 2013
परंपरा, व्यवस्था और नारी-आर्टिकल (parampara, vyavshtha aur naari- article)
स्त्री कभी पत्नी बन कर तो कभी बेटी, बहन, माँ आदि बनकर अनेक रिश्तों के साथ जुड़ कर हमेशा से ही पुरुष के साथ उसके हर कर्म में उसकी सहयोगिनी बन कर रही है, सदियों से ही स्त्री पुरुष के साथ उसके दुःख-सुख में बराबर की भागीदार रही है, उसके साथ हर कदम पर कंधे से कन्धा मिला कर चली है नारी, पुरुष का हर मोड़ पर नारी ने साथ दिया है, जब से प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और इस दुनिया में मनुष्य रूप में जबसे स्त्री और पुरुष आये हैं उस दौर से लेकर आज तक स्त्री ने पुरुष का हर मोड़ पर साथ दिया है बिना किसी अहं के।
पर सदियों से जिस नारी ने पुरुष के हर कदम पर साथ दिया है आज एवं बदलते सामजिक ढाँचे में उसकी अपनी छवि क्या रही है, वो खुद को कहाँ पाती है, उसका इस समाज में क्या अस्तित्व है, पुरुष क्या सोचता है उसके बारे में, कहते हैं की जब मानव इस दुनिया में आया था तब न सभ्यता हुआ करती थी और न संस्कृति, पर जैसे जैसे मानव ने अपने परिवार बढाने शुरू करे तब इसमें नेतिकता को प्रमुख मानते हुए अवं कई सारे सामजिक एवं मानव हित की भलाई हेतु कुछ सामजिक नियमों को शामिल कर लिया गया जो धीरे धीरे सभ्यता का रूप लेने लगे और वो सभ्यता बदलते वक़्त के साथ संस्कृति के रूप में विकसित होती गयि।
कहते हैं जब सामजिक नियम अपने शुरूआती चरण में थे उस वक्त स्त्री और पुरुष दोनों के हितों को ध्यान में रख कर ही इन्हें बनाया गया था ताकि किसी का भी अहित न हो और न ही शोषण हो, किन्तु वक्त के साथ इन नियमों में परिवर्तन होने लगे और ये परिवर्तन धीरे धीरे स्त्री के खिलाफ जाने लगे। शुरुआत में ये नारिविरुख परिवर्तन केवल कुछ ही अवश्ताओं में नारी के विरुद्ध थे किन्तु धीरे धीरे बदंलते सामजिक ढाँचे ने इन नियमों को पूरी तरह नारी के विरुद्ध कर दिया ।
आज आलम ये है की दुनिया में हर कही और हर संप्रदाय में नारी का स्थान दोयम दर्जे का है.और उसे कही न कही किसी ना किसी रूप में अनेक प्रकार के शोषणों का शिकार होना पड़ता है, जो नियम समाज ने अपने शुरूआती दौर में बनाए थे आज का समाज उनसे एक दम उलट है और एक प्रकार से उसने पुराने नियमों की आड़ में नारी विरुद्ध नियम बना लिए है, परंपरा,व्यवश्ता के नाम पर उसने ऐसे नियम बना लिए हैं और उनमे नारी को बाँध दिया है जो पूरी तरह से नारी के विरुद्ध हैं और उनका शोषण करते है।
पर दुःख और आश्चर्य की बात है की स्त्री ने भी उसका शोषण कर रहे इन नियमों को सहज ही ग्रहण किया और उसी को अपना जीवन और अपना कर्तव्य मान कर अपना शोषण करवाती रही, उसने अपने ही विरुद्ध बन रहे इन नियमों के खिलाफ जाने की कोशिश नहीं की, उसने इन बदलते और उसका शोषण करने वाले सामजिक नियमों के खिलाफ कोई आवाज़ कभी बुलंद नहीं की और जिसका नतीजा ये हुआ की नारी जिसकी आबादी पूरी दुनिया में लगभग आधी है आज एक दोयम दर्जे का जीवन जीती है या फिर मर्दों की दया पर निर्भर है, वो नारी जिसने पुरषों का आदि काल से ले कर अब तक हर मोड़ पर साथ दिया है, वो नारी जो पुरुष से ज्यादा सहनशील है, वो नारी जिससे जन्म ले कर ही पुरुष इस दुनिया में आता है आज वो ही नारी एक शोषित वर्ग बन कर रह गयी है और पुरुष की दया पर ही वो निर्भर हो गयी है । दुनिया में परम्परा और व्यवस्था के नाम पर उसका शोषण होता है, किसी न किसी रूप में उसका इसलिए अपमान होता है क्योंकि वो एक स्त्री है, वो निर्बल है, अपने हक़ के लिए कभी खड़ी नहीं हो सकती, नियमों के मुताबिक़ वो अपने अधिकारों को माँगना तो दूर इस विषय में चर्चा तक नहीं कर सकती क्योंकि वो एक स्त्री है और उसे सिर्फ वैसे ही जीवन जीना है जैसे पुरुष चाहते हैं, और यही वज़ह है की कही तो देवी मान कर पूजा जाता है तो कही उसे अशुद्ध मान कर विभिन्न धार्मिक कृत्यों से दूर रखा जाता है और उससे केवल उसी कार्य को करने की इच्छा की जाती है जो पुरुषों को पसंद हो, नारी की पसंद नापसंद से इस समाज को कोई लेना देना नहीं है, लेना देना है तो केवल पुरषों की पसंद से और नापसंद से, तभी तो शादी के बाद एक लड़की से ही ये उम्मीद की जाती है की वो खुद को नए परिवेश में ढाल ले खुद को, अनेक प्रकार के नियम उसपे थोप दिए जाते हैं की तुम्हे ये करना है वो नहीं, यहाँ जाना है वह नहीं, ये पहनना है वो नहीं, यहाँ बैठना है वह नहीं इत्यादि किन्तु पुरुष जैसा वो शादी से पहले था शादी के बाद भी वैसा ही है और उसे कोई विशेष बंधन नहीं है हाँ ये उसकी दया है की वो अपने पत्नी पर कितना मेहबान होता है किन्तु उसके लिए समाज में कोई नियम नहीं है जैसे वो विवाह कर के स्त्री को नहीं लाया है अपितु किसी युद्ध में जीत कर कोई निर्जीव चीज़ अपने पास ले आया हो, समाज ये यी ही नियम नारी विरुद्ध जाते हैं और उसके न सिर्फ अधिकारों का हनन करते हैं अपितु उसका अनेक प्रकार से शोषण भी करते है।
प्रारंभिक मानव नियम एवं प्राचीन शाश्त्रोंनुसार ऐसा पता चलता है की प्राचीन मानव सभ्यता में दुनिया में कहीं भी इस प्रकार नारी विरोधी व्यवश्ता नहीं थी, उनका स्थान पुरषों के बराबर ही था एवं उन्हें हर स्तिथि में समस्त धार्मिक कृत्या करने की पूरी आज़ादी थी, किन्तु बदलते सामजिक दौर में नारी की स्तिथि निम्न से निम्न होती गयी, किन्तु सवाल ये उठता है की ऐसा क्या हो गया जो इस समाज ने नारी को इस स्तिथि में पहुचा दिया, कही ऐसा तो नहीं की पुरुष को नारी के व्यक्तिव और उसके आचार-व्यवहार से खतरा महसूस होने लगा हो और इस खतरे को कम करने या फिर सदा के लिए ही ख़त्म करने हेतु ही समाज के नियम बदलने शुरू कर दिए और स्त्री को आज इस स्तिथि में पहुचा दिया ।
किन्तु जो हालत आज सम्पूर्ण जगत में नारी की है वो अचानक ही नहीं हुई और न ही समाज के नियम ही अचानक बदले हैं, समाज के नियम न तो एकाएक बने थे और न ही एकाएक ही बदले हैं, पुरषों ने इन नियमों को स्त्री को अपने विश्वास में ले कर एवं उसे फुसला कर और भ्रमित कर के ही इन नियमों में परिवर्तन करे हैं, नारी जो हमेशा से ही पुरुष के साथ रही हैं, हर कदम पर उसका साथ दिया है वो उसकी कुटिल चाल को ना समझ सकी और और उसकी बातों में आ कर इन नियमों के परिवर्तन में अनजाने में ही अपने विरुद्ध हो रहे इन नियमों की सहयोगिनी बनी और पुरषों को ये कहने का अवसर मिला की खुद नारी ऐसे नियमों का समर्थन करती है। , इस प्रकार सदियों से नारी का शोषण करने वाले नियम समाज में आज भी विधमान हैं और जो नारी को ना सिर्फ दोयम दर्ज़ा देते हैं अपितु विभिन प्रकार से उसका शोषण भी करते है।
ऐसा नहीं है की इन नियमों के बन्ने और उन्हें लागू होने के बाद प्राचीन काल से ले कर अभी तक कोई आवाज़ बुलंद नहीं हुई, सच तो ये है की इन नियमों के खिलाफ कई आवाज़ बुलंद हुई और जो ना सिर्फ नारी ने इन्हें बुलंद किया अपितु कई पुरुष भी इन नियमों के खिलाफ खड़े नज़र आये और उन्होंने इन नियमों का पुर्जॊर विरोध किया। किन्तु शोषक वर्ग इतना मज़बूत हो चूका था उस वक्त तक की इन आन्दोलनो और इन क्रांतिकारी आवाजों का उस पर कोई असर नहीं हुआ अपितु इन्हें दबाने हेतु ही उसने अनेक प्रकार के कड़े नियम बना कर इस वर्ग का और भी ज्यादा शोषण करना प्रारम्भ कर दिया।
नारी जो आज भी समाज का अति शोषित वर्ग है, कुछ लोग कहेंगे की आज की नारी प्राचीन काल की नारी की तरह नहीं है, आज वो आत्मनिर्भर है, आर्थिक आज़ादी के साथ अनेक प्रकार की आज़ादी है उसे, इसलिए आज की नारी की स्तिथि दयनीय कहाँ है, वो आत्मविश्वासी होने के साथ पूर्ण रूप से स्वतंत्र है, किन्तु ऐसा कहने वाले जरा अपने आस पास नारी की स्तिथि को देख कर और अपने हृदय पर हाथ रख कर कहे क्या वाकई में नारी आज पूर्ण रूप से स्वंत्र है, क्या अनेक प्रकार से उसका शोषण नहीं हो रहा, अगर एक लड़की शादी ना करने की इच्छा रखती है और वो बात किसी पुरुष को पता चल जाए की ये लड़की कुवारी है तो पुरुष उसका हर प्रकार से शोषण करने की कोशिश करता है, एक अकेली स्त्री अपनी ज़िन्दगी अपने हिसाब से नहीं जी सकती, अकेले कही आ या जा नहीं सकती, हर कदम पर उसे पुरुष का सहारा लेना पड़ता है लेकिन फिर भी वो सुरख्षित नहीं और इस दर के में वो जीती है की कही उसके साथ कुछ गलत ना हो जाए और ये पुरुष अपने पुराने नियमों को बदल कर समाज में ऐसे रॉब से जीता है जैसे वो कोई भगवान् हो, खुद हो, गॉड हो और उसी ने सृष्टि बनायी और अपनी खिदमत के लिए उसने नारी नामक दासी की उत्पात्ति की जो उसकी उसकी गुलाम होने के साथ उसकी साड़ी इछाये पूरी करे और जो ना करे उसे अनेक प्रकार से प्रताड़ित किया जाए हर प्रकार से उसका शोषण किया जाए, पुरुष ने केवल खुद को नारी से श्रेष्ट दिखाने के लिए प्राचीन सामजिक नियमों को बदल ताकि उस का सदा नारी से ऊँचा स्थान रहे और वो जब चाहे जैसे चाहे नारी को दबा सके और उसका हर तरह से शोषण कर सके और नारी इसके खिलाफ कुछ न कह सके ये समझ कर की ये ही उसका नसीब है, ये ही उसकी संस्कृति और ये ही उसके समाज की सभ्यता की वो बस पुरुष को खुश करने हेतु ही उसके अनुरूप ही आचरण करे, और ये ही काररण है की कभी धर्म के नाम पर तो कभी समाज के नाम पर तो कभी सभ्यता और संस्कृति के नाम पर आज भी उसका शोषण हो रहा है, और अनेक प्रकार से नारी को पुरुष नीचा दिखा कर उसका शोषण कर रहा है।
पर मेरा सवाल है की आखिर ऐसा कब तक होगा, क्या कोई मसीहा आएगा जो नारी को इस दयनीय स्तिथि से मुक्त कराएगा या फिर कोई जादूगर आएगा जो नारी को इस स्तिथि से उबारेगा, सच तो ये है की ना तो कोई मसीहा आएगा और ना ही कोई जादूगर आएगा जो नारी को उसका अधिकार दिलाएगा और उसे एक दोयम दर्जे के इस शोषित वर्ग से मुक्ति दिलाएगा, नारी को इससे मुक्ति तभी मिल सकेगी जब दुनिया में पायी जाने वाली इस नारी नामक जीव को खुद ही अपने खिलाफ बने इन नियमों को तोड़ने के लिए कमर कसने होगी, उसका किसी भी प्रकार से शोषण करने वाले के खिलाफ उसे मोर्चा खोलना होगा चाहे वो अपने परिवार का ही कोई हो, दोस्त, रिश्तेदार, पडोसी जाना या फिर अनजाना जो भी किसी भी प्रकार उसका शोषण करता है, उसे दोयम दर्ज़ा देता है उसके खिलाफ नारी को खड़ा होना होगा, मोर्चा खोलना होगा और अपना अधिकार प्राप्त करने हेतु आन्दोलन करना होगा, यदि आज की नारी खुद को सचमुच में आधुनिक कहती है तो उसे यक़ीनन इन प्राचीन नियमों के खिलाफ मोर्चा खोलना होगा और ना सिर्फ अपने लिए अपितु जिस भी स्त्री को ऐसे शोषित वो देखे उसके हक़ के लिए समस्त नारी जाती एकत्रित हो कर आन्दोलन प्रारंभ करने होंगे और अपने एवं हर नारी को उसका उचित, सम्मानित एवं श्रेष्ट स्थान दिलाने हेतु कार्य में सहयोग करना होगा , यदि नारी इस इस प्राचीन तथ्य को झुट्लाकर की "औरत ही औरत की दुश्मन होती है " समस्त नारी एक हो जाए और प्राचीन नारी विरोधी नियमों का विरोध कर अपने अधिकारों ,उचित एवं श्रेष्ट स्थान को समाज से अपने लिए पाने हेतु संघर्ष करे तो निश्चित रूप से एक दिन नारी फिर से उस स्थान को समाज में हासिल कर सकती है जो आदिकाल में उसे प्राप्त था ।।
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