Tuesday 28 February 2017

गीत-है ये कैसी मुश्किल


है ये कैसी मुश्किल ये कैसा असर है
जिधर हम देखते है तू आता नज़र है-2

तुझे कैसे बताये तुझे कितना चाहते हैं
दिलकी हर धड़कन में तुझे ही पाते हैं
शायद तेरी चाहत का ये मुझपे असर है

लुटाई है तुझ पर अपनी ये ज़िंदगानी
तुझसे ही तो शुरू हुई मेरी हर कहानी
जो भी हूँ आज में बस तेरी नज़र है
शायद तेरी मोहब्बत में ना कोई कसर है

है कैसी ये मुश्किल.................


मेरी ख़ुशी का तुम ही आसरा हो
जिधर मैं देखु तुम्ही हर जग़ह हो-2

वफ़ा का वादा ये कभी तोड़ न जाना
मुझको अकेला तुम छोड़ के न जाना-2

जी न सकेंगे एक पल भी अब तुम्हारे
करी है ये ज़िन्दगी अब तुम्हारे हवाले

गम बेवफाइ का तुम मुझे दे न जाना
मझधार में तनहा छोड़ के न जाना
की है जो मोहब्बत 'ख़ुशी' हर तरफ है
शायद तभी ज़माने से 'मीठी' बेखबर है

है ये कैसी मुश्किल ये कैसा असर है
जिधर हम देखते है तू आता नज़र है-2



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Saturday 25 February 2017

ईश्वर वाणी-200, जीवों के पूर्वज

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यद्धपि तुमने युगों के विषय में सुना है, मैंने भी तुम्हे सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग की जानकारी दी है, किन्तु आज तुम्हे सतयुग से पूर्व और सतयुग ही सभी काल अथवा युगों में प्रथम क्यों माना गया है इसके विषय में बताता हूँ।

हे मनुष्यों यद्धपि तुमने मानव जाती के विषय में सुना है की संसार में मानव की उत्पत्ति प्रथम स्त्री और पुरुष से हुई, किन्तु ये तथ्य पूर्ण सत्य नही है, सतयुग से कई करोडो वर्ष पूर्व मैंने ही संसार में सबसे पहले सूक्ष्म व् अति सूक्ष्म पौधों को धरती पर उगाया, जब संसार में भूमि पर सब स्थान पर ये उग आये और बड़े हो कर कुछ ने जंगल का रूप ले लिया कुछ छोटे पोधे तो कुछ घास बन गए, किन्तु ये सब अचानक नही हुआ, इस प्रक्रिया में कई हज़ारो वर्ष लगे, सबसे पहले एक नन्हे से अंकुर को धरती पर रोपा, उसके जीवन की रक्षा की तत्पश्चात वो बड़ा कुछ हुआ, उसके द्वारा अन्य पोधो के अंकुर फूटे, धीरे धीरे और निरंतर जलवायु परिवर्तन के कारन उन्ही में ही कोई घास, कोई छोटे वृक्ष तो कोई विशाल पेड़ बन जंगल का रूप धारण कर गए, उन्ही में से कइयों में उपर्युक्त खाने योग्य फल उगने लगे और उनके बीज से उनके जैसे ही पेड़ जन्म लेने लगे, किन्तु इस प्रक्रिया में करोडो वर्ष लगे।

हे मनुष्यों जब वनों की प्रक्रिया संसार में चल रही थी तभी मैंने अति सूक्ष्म जीवो को धरती पर भेजा, चूँकि इनके जीवित रहने के लिये भोजन आवश्यक था इसलिये सबसे पहले मैंने पेड़-पौधों  और फल की व्यवस्था की, अति सूक्ष्म जीव ने प्रकति के साथ मिल कर अपनी संख्या बढ़ानी शुरू की, समय के साथ इन्होंने अपने आकर बदले, और जलवायु परिवर्तन के अनुसार कोई बड़ा कोई छोटा को अति सूक्ष्म जिव बना, इस प्रक्रिया में भी कई करोडो वर्ष लगे।

इन्ही जीवो से आज जो जीव तुम देखते हो एवम् तुम स्वम भी इन्ही जीवो की उत्पत्ति हो, जलवायु परिवर्तन के कारण इन जीवो में बदलाव आये जो सतयुग के आदि काल में काफी हद तक बदल चुके थे, सतयुग के बाद के काल  के बाद व् हर युग के बाद जीवों में अनेक परिवर्तन आये।

हे मनुष्यों यद्दपि सतयुग से तुमने सृष्टि के विषय में सुना है किन्तु आज तुम्हे मैंने बताया इससे पूर्व ही जीवन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी, किन्तु अब तुम सोचोगे की यदि ऐसा है तो आखिर सतयुग से ही जीवन के विषय में क्यों बताया गया है।

हे मनुष्यों सतयुग के समय से समाज व व्यवस्था प्रक्रिया प्रारम्भ होनी शुरू हुई, जो जीव जैसा दीखता व जैसी जिसकी बोली हुई उन्होंने अपना एक समाज बना लिया, इस प्रकार जीवो में समाज की प्रक्रिया शुरू किंतु मानव को समाज व्यवस्था स्थापित करने में मध्य सतयुग का समय लगा जबकि अन्य जीव आदि सत्युग में ही इस व्यवस्था को अपना चुके थे, इसके साथ मानव जाती जिसमे अन्य जीवो से अधिक बुद्धि थी ऐसी व्यवस्था बनाई जिसमे न तो मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषण हो और न ही किसी और जीव का अहित हो, तभी उस युग में मानव व अन्य जीव एकता व् प्रेमपूर्वक रहा करते थे।

हे मनुष्यों सत्युग के मानव ये जानते थे की उन सभी की उत्पत्ति के करक एक ही है, उनके पूर्वज एक ही है, तभी उस युग में ऐसी व्यवस्था थी जब मानव व अन्य जीव एकता व् प्रेम से रहते थे, किन्तु युग परिवर्तन और जलवायु परिवर्तन के कारन मानव इस सत्य को भूल गया और खुद को अलग वंश का समझने लगा, किन्तु यदि यह सत्य होता तो तुम्हारे वैज्ञानिक क्यों ये कहते की मानव बन्दरो के वंश के है, किन्तु वो ये नही बता सकते बन्दर किसके वनशज है, इसके साथ कई साल पहले विशाल जलचर जीव शार्क व वेळ मछली कभी भूमि पर रहती थी, ये जलचर नही थी किंतु जलवायु परिवर्तन से ये जलचर हुई, किंतु इनके वंशज तो जलचर नही थे।

हे मनुष्यों इसलिये किसी जीव से घृणा भाव न रखो, सबसे प्रेम भाव रखो, सात्विक बनो और ये न भूलो ये सभी तुम्हारे अपने वंश के ही है, ये सब अपने ही है, यदि तुम कटुता रखोगे तो न सिर्फ अपने पूर्वजो के प्रति अश्रद्धा दिखाते हो अपितु मेरे क्रोध के भी पात्र बनते हो।"


कल्याण हो



Wednesday 22 February 2017

कविता-गुज़रे वो पल

फिर वही दोस्त पुराने बहुत याद आते है
फिर अतीत के ज़माने बहुत याद आते है
हर गम से दूर यूँ खिलखिला कर हसना
गुज़रे वो हँसी तराने बहुत याद आते हैं


सपने थे आँखों में तब भविष्य को लेकर
पर नादान थे कितने ख्वाबो को लेकर
ज़िन्दगी थी न आसान जितना समझते थे
बेपरवाह थे शायद तब हर दिन को लेकर


काश वक्त का पहिया पीछे लौट जाता
बिछडा मेरा दोस्त फिर मेरे पास आता
गले लगा यूँ उसे दुनिया फिर भुला देते
काश भूला अतीत फिर आज हो जाता


ज़िन्दगी के फिर वही ज़माने याद आते है
तेरे लिये गाये हर वो गाने याद आते है
तेरे संग जो देखे थे सपने ऐ दोस्त मेरे
जीवन की राहों में वो बहाने याद आते है


फिर वही दोस्त पुराने बहुत याद आते है
फिर अतीत के ज़माने बहुत याद आते है
हर गम से दूर यूँ खिलखिला कर हसना
गुज़रे वो हँसी तराने बहुत याद आते हैं

Saturday 18 February 2017

ईश्वर वाणी-१९९, प्रत्येक योनि में सात बार जन्म जीवात्मा लेती है

ईश्वर कहते है, ''हे मनुष्यो यूँ तो तुमने सुना ही होगा कई मतानुसार व्यक्ति पुनःजन्म में विश्वाश करते है, मनुष्यों को अपने बुरे कर्म करने पर नीच योनि जैसे-कीड़े, मकोड़े, जानवर, पक्षी में जन्म लेना पड़ता है तत्पश्चात पुनः मानव जीवन प्राप्त कर उद्धार पाता है।

हे मनुष्यों निम्न  मान्यता के अनुसार जीवात्मा 84 लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य जन्म पाती है। 84 लाख योनियां निम्नानुसार मानी गई हैं।
* पानी के जीव-जंतु - 9 लाख
* पेड़-पौधे - 20 लाख
* कीड़े-मकौड़े - 11 लाख
* पक्षी - 10 लाख
* पशु - 30 लाख
* देवता, मनुष्य, भूत, पिशाच, प्रेत, चुड़ैल, डाकिनी-शाकिनी इत्यादि - 4 लाख।

हे मनुष्यों प्रत्येक योनि में जीव आत्मा को सात बार जनम लेना पड़ता है, किंतु ये जन्म एक ही योनि में तुरंत नही मिलता, जैसे आज तुम मनुष्य हो तो सात बार मनुष्य बन कर जन्म लोगे किंतु इस जन्म के तुरन्त बाद नही अपितु अपने कर्म फल भोगने के बाद तुम्हे नई देह तुम्हारे कर्म के अनुसार मिलेगी वो तुम्हारे कर्म पर निर्भर है जैसे तुमने यदि छल किया पिछले जन्म में तो इस जन्म में कुत्ते का जन्म होगा ताकि प्रायश्चित रूप में वफादार बनो।

इसी प्रकार हर योनि में सभी जीव आत्मा को सात बार जन्म लेंना पड़ता है किंतु जो आत्मा भूत, पिसाच, प्रेत, चुड़ैल, डाकिनी-शाकिनी जैसी योनियो में भटक रहे है उनकी आयु यदि एक लाख वर्ष पूर्व अर्थात जो इनकी वास्तविक पूर्ण आयु है इससे पहले इससे मुक्त हो जाते है तब भी पुनः इन्हें निश्चित योनियो में भटकने के बाद इसमें आना पड़ता है किन्तु यदि इन्होंने आत्मा की पूर्ण आयु अर्थात एक लाख साल पुरे करने के बाद कही जन्म लिया है तब इन्हें भूत, प्रेत, पिसाच, चुड़ैल, डाकिनी-शाकिनी जैसी अति नीच योनि में जन्म नही लेना पड़ता।

हे मनुष्यों किंतु तुम जो सुख या दुःख इस जीवन में पाते हो वो इस जीवन के कर्म से नही अपितु अनेक जीवन के कर्म से पाते हो किन्तु यदि पाप इस जीवन में करते हो तो अनेक योनियो में अर्जित पुण्य फल में कमी करते हो और अपने लिये खुद ही नीच योनि को प्राप्त करने का मार्ग प्रसस्त करते हो।"

कल्याण हो


Thursday 16 February 2017

ईश्वर वाणी-१९८, रिश्ते-नाते

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों तुम जिस देह के रिश्तों को अपना समझते हो ये अपने नहीं अपितु इस जीवन रूपी यात्रा में तुम्हारे सह यात्री है, तुम्हारा वास्त्विक घर मेरा लोक और सच्चा परिवार तो में ही हूँ।

तुम्हारे माता, पिता, भाई, बहन, पति, पत्नी, मित्र, रिश्तेदार सभी इस यात्रा में तुम्हारे सह यात्री मात्र है, जब तुम देह त्यागोगे और दूसरा जन्म लोगे तब जो आज तुम्हारे माता, पिता, भाई, बहन, पति, पत्नी, मित्र, रिश्तेदार है वो वहा नही होंगे, ऐसे ही ये व्यक्ति जहाँ जन्म लेंगे वहा तुम नही होंगे, इसलिये क्योंकि इस जीवन रुपी यात्रा के यात्री ये सब बस यही तक है, आगे की यात्रा के लिये नए यात्री मिलेंगे।

हे मनुष्यों किन्तु मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ था और रहूँगा, मैं उस समय से तुम्हारे साथ हूँ जबसे तुमने जीवन यात्रा प्रारम्भ की, मैं जब तक साथ हूँ जब तक सृष्टि का अस्तित्व है, मैं तुम्हारा आदि पिता, माता, भाई, बहन व् संबंधी हूँ, मेरे लिये तुम्हारा देह त्याग कर दूसरी देह ग्रहण करना आत्मा के वस्त्र बदलने के समान है, मैं तुम्हे तुम्हारी देह से नही तुम्हारी आत्मा से तुम्हे देखता हूँ, मैं तुम्हारा और तुम मेरे अपने हो क्योंकि आत्मा सदा है और रहेगी किंतु देह तो मिटने वाली है।

इसलिये जो रिश्ते भौतिक देह से बने है वो सच्चे नही केवल सह यात्री समान है, किन्तु सच्चा रिश्ता मेरा और तुम्हारा है, सच्चा रिश्ता-नाता तुम्हारा  और मेरा है, तुम्हारा अपना केवल मैं हूँ मैं ईश्वर हूँ।"


कल्याण हो

ईश्वर वाणी-१९७, इन्द्रियाँ

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यद्धपि तुमने इन्द्रियों एवम् उनके प्रकार के विषय में सुना व् पड़ा होगा, उनके कार्यो के विषय में सुना होगा, अक्सर ही कहते सुना होगा लोगो से अपनी इंद्रियो को वश में रखो।

इंद्रिया जो सभी जीव मात्र को अपने संवेदनाओ का बोध कराती है जैसे-सुख, दुःख, हसना, रोना, सुनना, देखना, सोना, जागना, बोलना, चुप राहना जैसे अनेक भाव दिमाग तक पहुचाती है और कैसा व्यवहार तब करना है ये दिमाग तय करता है।

किन्तु जो व्यक्ति इन्द्रियों पर नियंत्रण करना सीख जाते है वह हर स्थिति में  सदा एक से ही रहते है, उनका दिमाग समय के अनुसार व्यवहार बदलने के निर्देश नही देता, किन्तु ऐसा केवल एक सच्चा सन्यासी ही कर सकता है, बाकी तो सभी माया के अधीन हो कर खुद ही इन्द्रियों के वश में हैं।

हे मनुष्यों यद्धपि प्रत्येक जीव की आत्मा जन्म से पूर्व इंद्री विहीन होती है, इंद्री का जन्म शिशु के जन्म के बाद ही होता है किन्तु जब आत्मा जन्म लेने वाली होती है तब उसमे इंद्री नही होती जिसके कारण उसके किसी भी प्रकार की संवेदना का बोध् नही होता।

किन्तु जैसे ही देह धारण करती है अनेक सवेंदना को महसूस करने लगती है कारण इन्द्रियों के कारण सन्देश मष्तिष्क और मष्तिष्क उसके अनुसार व्यवहार करने लगता है।

हे मनुष्यों आत्मा और उसका  बल ही इस पर नियंत्रण कर सकता है, अक्सर मनुष्य सोचते है अच्छे बुरे कर्म तो देह करती है फिर परनाम आत्मा क्यों भोगती है, बुरे कर्म करने पर आत्मा कष्ट क्यों  भोगती है जबकि बुरे कर्म तो देह ने करे है।

इसका उत्तर है आत्मा पुरे शरीर की चालक है, ये ही इंद्री और मष्तिस्क को काबू करने में सक्षम है, यदि किसी की देह बुरे कर्म कर रही है तो इसका अर्थ आत्मा का नियंत्रण शरीर पर नही हो रहा, जैसे एक चालक का नियंत्रण उसके वाहन से जब बिगड़ जाये और कोई हादसा हो जाये तो दंड तो चालक ही पाता है न, न की वो वाहन, इसी कारण आत्मा को ही अच्छे बुरे का फल मिलता है।

इसलिये आत्मा का कार्य है शरीर में निरंतर उत्तपन्न होते भावो पर नियंत्रण रखना, यही क्रिया अर्थात इसे ही इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना भी कहा जाता है, यदि इस पर नियंत्रण कर लिया तो न मष्तिष्क तुम पर हावी होगा और न उसके अनुसार व्यवहार करोगे, अपितु सभी स्थितियों में समान बन मेरी कृपा के पात्र बनोगे, एक सच्चे साधू/संत/सन्यासी बन जगत का कल्याण करोगे।"


कल्याण हो

Tuesday 14 February 2017

ईश्वर वाणी-१९६, सन्यास का मार्ग


ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यु तो तुम्हे मैं साधू, संत और सन्यासी के बीच क्या भेद है बता चूका हूँ, किन्तु आज बताता हूँ सन्यास और सन्यासी के विषय में थोडा और विस्तार से।
सन्यास एक व्रत है जिसे हर व्यक्ति नहीं कर सकता, इसलिए साधू और संत जग में अधिक मिल जाते है किन्तु सन्यासी नहीं, एक सन्यासी वह होता है जिसने सबसे पहले अपने विषय में सोचना त्याग सभी जीव मात्र के लिए सोचना व् कार्य करना प्रारम्भ कर दिया हो, एक सन्यासी जाती, धर्म, सप्रदाय, भाषा, रंग, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, रीती-रिवाज़ जैसी किसी भी कुरीति को नहीं मानता, सभी जीवो में अपने परिवार को देखता है, पूरी धरती ही उसका घर है, जीवो को वो देह से नहीं अपितु आत्मा से देखता है तभी उसकी दृष्टि में कभी किसी की मृत्यु नहीं होती, क्योंकि आत्मा कभी मरती नहीं, साध ही समाज व् समस्त प्राणी की भलाई के विषय में ही सोचता है, निजी स्वार्थ उसमे नहीं होता, समाज की मुख्या धारा में न हो कर भी वो समाज के कल्याण हेतु की कार्य करता है।
साधू और संत के बाद ही आखिरी पड़ाव आता है सन्यासी का जिसे वैरागी भी कहते है, साधू जो साधक है, जो तुममे से कई होंगे ईश्वर अर्थात मुझ पर असीम आस्था रखने वाले, साधू जो घर में रह कर गृहस्थ जीवन का पालन कर रहे है वो भी है किन्तु गृहस्थी के बाद जो अर्थात गृहस्थ जीवन के बाद मेरी साधना के लिये घर से अलग हो जाते है वो भी है, ये सन्यासी की श्रेणी में नहीं आते क्योंकी कही न कही मन इनका परिवार में ही होता है।
इस पड़ाव के बाद आता है संत, ऐसे व्यक्ति भी गृहस्थ और अग्रहस्थ दोनों ही हो सकते है, जो व्यक्ति अपने परिवार और अपने पर आश्रित परिवार वालो के हित के कार्यो में लग कर भी सदा मेरे ही विषय में निःस्वार्थ सोचता रहे, भजता रहे, उपासना करता रहे, अपने कष्टो में भी मुझे दोष न दे, सभी कुछ सह कर भी मुझ पर असीम श्रद्धा रखे वही संत है, संत में सबसे पहला नाम इसलिए संत सुदामा का आता है।
तत्पश्चात आता है सन्यासी, साधू और संत के पड़ाव पूर्ण करने के बाद किन्तु जो विवाह जैसी संस्था में नहीं बधते एवं ईश्वर की भक्ति के लिये घर, परिवार व् समस्त रिश्तों को त्याग कर समस्त जगत को ही अपना मान लेते है वही सन्यासी है, अपने अंदर की समस्त बुराई का त्याग कर केवल इश्वरिये मार्ग पर चलने वाला, समस्त जीवो से सामान स्नेह रखने वाला, आवश्यकता पड़ने पर समाज के कल्याण के लिये ही कार्य करने वाला ही सन्यासी है।
ये मार्ग बहुत ही कठिन है, अधिकतर व्यक्ति इस मार्ग पर चलते तो है पर टिक नही पाते कारण वो अपने अंदर के कपट का त्याग नही करते, अपने अंदर की बुराई का त्याग कर इन्द्रियों को वष में नही करते, इसलिये इस मार्ग पर भटक जाते है।
हे मनुष्यों यदि कोई तुम्हे पीले, सफ़ेद, नारंगी या विशेष रंग के परिधान में व्यक्ति आ कर कहे की वो सन्यासी है तो उसके वस्त्रो से उसके सन्यासी होने पर यकीं करने से पहले पता लगा लेना की कि आखिर सत्य क्या है, अधिकतर कलयुग में ऐसे छलिया बहुत है।
अगर सच्चे सन्यासियो की बात की जाये तो चैतन्य महाप्रभु और स्वामी विवेकानंद का नाम पहले आता है।
एक सच्चा सन्यासी अपने ज्ञान का निःस्वार्थ प्रचार प्रसार करता है, सभी के कल्याण के विषय में विचरता है, मुझ पर असीम श्रद्धा रखता है, इसलिये मेरी भी विशेष कृपा को प्राप्त कर पाता है, इस व्रत और इस मार्ग पर केवल वही चल सकता है जिसकी आत्मा पावन हो अर्थात अपने पिछले कई जन्म उसने बुराई रहित जिए हो साथ ही जिसे मैंने स्वम इसके लिये चुना हो, तभी बहुदा बहुतो में से केवल एक ही सच्चा सन्यासी होता है।"
कल्याण हो

Saturday 11 February 2017

कविता


वो ठुकराते रहे हमें हम चोट खाते रहे
जख्मो पर वो मेरे सदा मुस्कुराते रहे,
खता उनकी भी नही खता हमारी थी
उनकी बेरूखी पर भी प्यार लूटाते रहे

उमर भर सदा यूँ वो हमे रुलाते रहे
दर्द दे कर हमेशा मुझे वो सताते रहे
बनी रहे सदा लबो पे मुस्कान उनकी
बेवफाई पर भी उनकी उन्हें चाहते रहे

उन्हें करीब लाने की हम हसरत करते रहे
प्यार भी उन पर यूँ बेशुमार हम लुटाते रहे
 तोड़ कर दिल मेरा खुश बहुत होते थे वो
 उनकी खुशी के लिये हर दर्द छिपाते रहे

गीत

गीत
ज़िन्दगी में कभी मैंने ऐतबार किया था
दिल का सौदा मैंने भी एक बार किया था
ख़ुशी की चाहत दिल में कभी थी मेरे
किसी की मीठी बातो पर इकरार किया था

मुस्कराहट थी लबो पर साथ उसका पा कर
उस बेवफा से इतना जो मैंने प्यार किया था

दर्द दे कर ख़ुशी से हस्ता रहा वो मुझ पर
मीठी ने तो बस इश्क़ का इज़हार किया था

बस एक मोहब्बत भरी नज़रे चाही थी उनसे
आखिर इज़हारे मोहब्बत पहली बार किया था

जीवन में ऐसा बस एक बार किया था
बस मैंने तो सिर्फ तुमसे ही प्यार किया था
ज़िन्दगी में कभी मैंने ऐतबार किया था
दिल का सौदा मैंने भी एक बार किया था-२"

Friday 10 February 2017

ईश्वर वाणी-१९५, आत्माओ का सागर

ईश्वर कहते है, "हे मनुष्यों मैं ईश्वर सभी आत्माओं में परम होने के कारण परमात्माँ हूँ, मैं सभी आत्माओं का सागर हूँ, जैसे विशाल सागर से जल भाप बन कर बदल में चला जाता है फिर बूँद बन कर फिर सागर में पुनः गिरता जाता है, वैसे ही सभी आत्माये मुझ से ही निकल कर पृथ्वी पर भौतिक देह अपने कर्मो के अनुसार प्राप्त करती है, उसके बाद निश्चित समय के बाद आत्माओ के महासागर अर्थात मुझमे पुनः लीन हो जाती है।

हे मनुष्यों मैं ही इश्वरिये लोक हूँ, मैं ही स्वर्ग हूँ, मैं ही नरक हु, जैसे आत्माओ के कर्म होते है वैसे ही उसे यहाँ स्थान मिलता है, निश्चित अवधि के बाद पुनः जन्म मिलता है, इस प्रकार ये चक्र चलता रहता है, न सृष्टि कभी सदा के लिये ख़त्म होती है न आत्मा आत्मा एक मोक्ष प्राप्त कर जन्म लेना बंद करती है।


चारो युगों के बाद सृष्टि अंधकार में डूब जाती है, शून्य से निकली सृष्टि पुनः शून्य में समां जाती है, सभी आत्माये मुझमे विलीन हो जाती हैं किन्तु फिर से सृष्टि की उत्पत्ति होती है पुनः आत्माये जन्म लेती हैं।

हे मनुष्यों इसलिये ये न समझो तुम पहली बार इस धरती पर आये हो, तुम तो जाने कितनी बार आये हो और आओगे बस ये भोतिक रूप बदलता रहेगा किन्तु तुम तो सदा वही रहोगे जैसे अब तक कितनी बार तुम्हारा भौतिक रूप बदला किन्तु तुम तो वही रहे।
मुझ विशाल आत्मा के सागर से निकल कर पुनः मुझमे तुम मिले फिर निकले फिर मिले सदा यही होगा, सादेव् तुम मेरी इस ज
क्रीड़ा के पात्र रहोगे।"

कल्याण हो


ईश्वर वाणी-१९४, पृत्वी और सूर्या

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यु तो तुम्हे मैं पहले ही
बता चूका हूँ
तुम्हारी देह अर्थात भौतिक रूप के आदि माता पिता सूर्या
देव और पृथ्वी
है।
यद्धपि अनेक शाश्त्रो में सूर्या देव की अनेक
पत्नी और संतान बतलायी गयी
हैं किन्तु भौतिक रूप में सूर्य देव की पत्नी
पृथ्वी का रूप धारण कर सभी
आत्माओ को भौतिक शरीर प्रदान करती है और
सूर्या देव के आवश्यक ताप से ही
जीवन पनपता है।
हे मनुष्यों पृथ्वी का आंतरिक ताप इसलिए सूर्या के ताप
जितना ही गर्म है,
किन्तु प्राणी जाती के जीवन के लिये
पृथ्वी को अपने पति जितने ताप को
अपनी गहराइयो में ले जाना पड़ा ताकि यहाँ आत्माये भौतिक
रूप प्राप्त कर
सके।
माता को शांत व् शीतल करने के उद्देश्य से ही
यमुना व् तपती ने नदी का
रूप धारण किया और पृथ्वी पर बहने लगी,
इसी प्रकार माता पृथ्वी को शांत व्
शीतल रखने के लिये ही पहाड़ो से लेकर विशाल
सागर तक जल किसी न किसी रूप
में विराजित है ताकि धरती शांत व् शीतल
बनी रहे और जीवन यहाँ उत्पन्न
होता रहे।
हे मनुष्यों जिस सूर्या के ताप के साये में तुम सब जिव पलते हो ये तो
उसके वास्तविक ताप ताप का मात्र १६% ही है, यदि
वास्तविक ताप पर वो आ जाए
तो पृथ्वी से जीवन ही नष्ट हो
जाये।
सूर्या देव की पत्नी की प्राथना और
आग्रह पर ही उन्होंने अपने ताप को
पृत्वी पर कम किया और जीवन उतपन्न करने
व् पालन पोषण के लिए मात्र १६% ही
ताप धरती पर भेजने का वादा किया, इस प्रकार
धरती सभी भौतिक देह धारियों
की माता व् सूर्य देव पिता हुये।
कल्याण हो

Tuesday 7 February 2017

ईश्वर वाणी-१९३, पृथ्वी पर जन्म

ईश्वर कहते है, "हे मनुष्यों यद्यपि तुमने यह तो अवश्य ही सुना होगा की पृथ्वी की आंतरिक सतह बेहद गर्म है, उस पर जीवन तो क्या कोई भी वस्तु गिर जाये या संपर्क में आ जाये तो तुरंत भाप बन कर उड़ जायेगी।

हे मनुष्यों ये एक परम सत्य है की समस्त ब्रह्माण्ड की रचना का करक एक विशाल अंडा ही है, जिसमे से सभी ग्रहो के साथ पृथ्वी का भी अविष्कार हुआ, सभी ग्रहो में से केवल एक इकलोती स्त्री तत्व पृथ्वी ही है, इसलिये सभी जीवो, पेड़-पौधों व् जीवन की जननी यही है, ईश्वर अर्थात मैंने भी धरती पर लीला रचने हेतु समय समय पर अपने ही एक अंश को भेजा।

हे मनुष्यों किन्तु धरती को इस योग्य बनाने के लिये उसे शांत करना अति आवश्यक था जो मैंने किया, सर्व प्रथम धधकते अंगारो सी धरती को शांत करने के लिये आकाशीय दिव्य सागर  से जल वरषा की, इससे जब वह शांत व् शीतल हुई तब उसकी ऊँची ऊँची पथरीली चोटी जो अति गर्म होने के कारन व् जल वरषा से शीतल हो कर जमने के कारन बनी थी वहा बर्फअर्थात जमा हुआ जल एकत्रित किया, एवं सागर के रूप में एक विशाल गड्ढे में (जो पृथ्वी की गर्मी के कारन अनेक विस्फोटों से बना था) अथाह जल एकत्रित किया जो पर्वतो से लगातार नदियो  (पर्वतों  से पिघल कर बहने वाला जल)से हो कर यहाँ जमा होता रहता है और सृष्टि के अंत तक रहेगा इसके साथ ही भूमि के अंदर भी हर स्थान पर निश्चित गहराई पर भी जल उपलब्ध है जिसे तुम पीते भी हो। ये सब इसलिये है ताकि धरती का अंदरुनी ताप ऊपर न आ सके, और धरती जीवन के लिये एक अनुकूल स्थान बनी रहे, जीवन की सभी प्राथमिक व प्राकृतिक  वस्तुये वह उपलब्ध रहे।

हे मनुष्यों कभी तुमने विचार किया है आखिर एक विशाल हिस्से में ही पृथ्वी के सागर क्यों है, आखिर भूमि क्षेत्र इतना कम क्यों है, ऐसा इसलिए ताकि धरती के अंदर का ताप बहार ना आ सके, धरती शीतल व् शांत रहे, ताकि यहाँ जीवन रह सके, इसलिये ऊँची ऊँची पर्वत श्रंखलाओ पर भी बर्फ की मोटी चादर डाली ताकि पहाड़ो के अंदरुनी भाग से गर्मी बाहर न आ सके और जीवन न नष्ट हो सके।

हे मनुष्यों तुमने अक्सर ज्वाला मुखी फूटने की बात सुनी होगी, ये धरती का वही ताप का एक छोटा सा हिस्सा है, सोचो अगर विशाल सागर और बर्फ से इसे मैंने शांत न किया होता तो क्या धरती पर जीवन होता।


कल्याण हो

Monday 6 February 2017

कविता

"यही बस एक इतनी सी चाहत थी मेरी
सबके साथ चलने की हसरत थी मेरी

इन फिज़ाओ में खुल कर मुस्कुरा सकूँ
बस एक इतनी सी ही तो ख्वाइश थी मेरी

क्या बता था ये ज़माने को ना मंज़ूर होगा
हर तरफ बस धोखों का ही एक मंज़र होगा

हमराही कहने वाले ही राह भुलाते है यहाँ
क्या पता था हमसफ़र भी यहाँ बेमान होगा

बस एक अपनी पहचान की ही चाहत थी
ज़िन्दगी में बस एक मुकाम की चाहत थी

बन कर मिशाल राह दिखा सकूँ सबको में
बस दिलमे एक यही तो हसरत थी मेरी

यही बस एक इतनी सी चाहत थी मेरी
सबके साथ चलने की हसरत थी मेरी-२"

गीत-शीशा समझ कर

"शीशा समझ कर दिल मेरा वो तोड़ गया
गम और आँसू ही मुझे वो आज दे गया

वफ़ा की सजा दी मुझे उस हर्जाइ ने ऐसे
कितना आज यूँ तनहा मुझे वो छोड़ गया

रुलाया सताया हमेशा तूने उमर भर मुझे 
तेरी बेवफाई की बता क्या सजा  दू तुझे

मोहब्बत की झूठी दुनिया दिखाई तुने मुझे
मझधार में इश्क के क्यू यूँ छोड़ गया तू मुझे

तुझे पा कर मैंने तो पाया था अपने रब को
तुझे दिल में बसा कर पाया था सभी कुछ तो

तू ही तो रब था मेरा तू ही तो था खुदा
दिल मेरा तोड़ कर आखिर तुझे क्या मिला

तू आज खुश है उस गैर को अपना बना कर
भूल चूका मेरी मोहब्बत एक सपना बता कर

आखिर ऐसे क्यों मुझसे तू मुँह मोड़ गया
शीशा समझ कर दिल मेरा वो तोड़ गया

ज़माने में एक तमाशा मेरी आशिकी का बना
जज़्बातों से खेल अकेला मुझे वो  छोड़ गया

शीशा समझ कर दिल मेरा वो तोड़ गया
गम और आँसू ही मुझे वो आज दे गया-2"

Saturday 4 February 2017

ईश्वर वाणी-१९२, आत्मा का आकर

ईश्वर कहते हैं, हे मनुष्यों यूँ तो आत्मा निराकार है, इंद्री विहीन है, न तो चेतना है न अचेतना, इसे कभी किसी भी चीज़ का अहसास नहीं होता, किन्तु जब ये भौतिक देह धारण कर लेती है तब समस्त इन्द्रियों को जान लेती है, जन्म से पूर्व एक नासमझ शिशु के समान होती है जो इस दुनिया में अभी अभी आया हो और सबसे अनजान हो, जन्म से पूर्व आत्मा बिलकुल वैसी ही होती है।

किन्तु जन्म के पश्चात् अपने कर्म के अनुसार जो कुछ पाप और पुण्य अर्जित करती है उसके अनुसार ही देह त्यागने के बाद उसे कहाँ जाना है ये तय होता है, कोन सी आत्मा मोक्ष पायेगी, कोन सी पित्र लोक जायेगी, कोन सी यमलोक जायेगी, किसे भूत, प्रेत, पिशाच बनना है ये तय होता है

हे मनुष्यों जब आत्मा देह को त्यागति है तब अपने सूक्ष्म शरीर के साथ उस भौतिक काया से बहार आती है, ये भौतिक शरीर जैसा ही बिलकुल होता है जैसे मृत्यु पूर्व उक्त व्यक्ति का था, इसके बाद इसके कर्म तय करते हैं इसे कहाँ जाना (स्वर्ग, नरक, ईश्वरीय लोक, पित्र लोक) और क्या बनना (भूत, प्रेत, पिशाच) है। जो आत्मा स्वर्ग व् ईश्वरीय लोक अथवा पित्र लोक जाती है, स्वर्ग लोक जाने वाली आत्मा शीघ्र ही पुण्य पूर्ण करने पर जन्म लेती है एक अच्छे कुल में जहाँ सभी तरह की सुख सुविधा उन्हें मिलती हे।

किंतु पितृ लोक, ईश्वरीय लोक वाली आत्मा कई युगों तक जन्म नही लेती, किन्तु ऐसी आत्माये सतयुग में अवश्य जन्म लेती है, और धर्म का प्रसार करती हैं। किंतु नरक जाने वाली एवं भूत, प्रेत, पिशाच जन्म धारी आत्माये अपने बुरे कर्म के अनुसार कठोर दंड प्राप्त कारती हैं, जो आत्मा सीधे ही नरक पहुची उन्हें यमदूत द्वारा कठोर दंड मिलता है, ऐसा इसलिये ही नही की इसने बुरे कर्म कर जीवन गवाया बल्कि अब जो भी जन्म इसके कर्म अनुसार मिले सत्कर्म करे और मोक्ष को पाये।ऐसे ही भूत, पिशाच, प्रेत जन्म धारी आत्माओ को नरक भोगना पड़ता है, कठोर यातना सहनी पड़ती है ताकि अगला जन्म और उसके कर्म मोक्ष उसे दिला सके।

हे मनुष्यों ये सब होता है तुम्हारी आत्मा उस सूक्ष्म शरीर को धारण किये रहती है, नरक जाने वाली, पित्र लोक जाने वाली व् भूत, प्रेत, पिशाच ये सब अपने भौतिक देह जैसे ही रूप में सूक्ष्म शरीर में होते हैं, किंतु अपने कर्म (पितरों को छोड़कर) यमराज द्वारा कठोर दंड प्राप्त कर जब दुबारा जन्म लेते है तब पिछले जन्म के भौतिक रूप को त्याग एक निराकार आत्मा बन शिशु देह में प्रवेश कर नया जीवन प्राप्त करते है।

हे मनुष्यों मैंने तुम्हें यहाँ पितरो के विषय में बताया की सूक्ष्म शरीर धारण वो भी करे होते हैं किन्तु नरक प्राप्त आत्मा की भाति फिर दोबारा जन्म नहीं लेते, ऐसा इसलिये नरक भोग चुकी आत्मा अपनी सजा काट कर, यातना से तप कर निराकार रूप में आ कर फिर दोबारा कर्म करने के लिये नयी देह की अभिलाषी होती है जो कर्म अनुसार मिलता भी है, किन्तु पितृ लोक की आत्मा सूक्ष्म शरीर धारण अवश्य करती है किन्तु श्रेष्ट कर्म होने के कारन सुख प्राप्त करती है न सिर्फ अपितु अपने कुल को भी निहारती है, उन्हें आशीर्वाद देती है, इसके साथ जब पुनः सृष्टि का निर्माण होता है तब सतयुग में पुनः जन्म लेती है किन्तु इससे पूर्व इसे भी निराकार रूप पहले धारण करना पड़ता है, इसके पश्चात इश्वरिये लोक की आत्मा के साथ मिल कर एक श्रेष्ट युग का निर्माण करती है जो धरती पर ही स्वर्ग की अनुभूति प्रदान करता है।"💐

कल्याण हो

Thursday 2 February 2017

ईश्वर वाणी-१९१, आत्मा जो परम है अर्थात परमात्मा को पहचानो

ईश्वर कहते है, "हे मनुष्यों यद्धपि संसार में मैंने अपने ही एक अंश को अपने समान अधिकार व् शक्तियाँ दे कर धरती पर भेजा जब जब जहाँ जहाँ मानवता की हानि व् प्राणी जाती का दोहन और जगत का शोषण हुआ, शक्तिशालियो ने निरीहों को सताने की सभी सीमाये जब भी पार हुई, धरती से जब जब रक्त के अश्रु गिरे, जहाँ जहाँ इसका रंग लाल हुआ मैंने अपने एक अंश को सभी अपने समान शक्ति व् अधिकार दे कर देश, काल, परिस्तिथि के अनुरूप भेजा, जिसे तुमने अपने रीति-रिवाज़ व् भाषा के अनुरूप कही मसीह कही खुदा कही भगवान कहा।

हे मनुष्यों मेरे इन्ही अंश ने देश, काल, परिस्तिथि के अनुरूप जो ज्ञान व् शिक्षाये संसार व् मानव जाती व् प्राणी जाती के लिए दी, उन्हें अपना कर चलने वालो को उन पर विश्वाश करने वालो को नाम दे दिया गया इंसान द्वारा ही 'धर्म', अर्थात वो व्यक्ति उक्त धर्म का अनुयायी है, इस प्रकार तुम्हारे द्वारा जन्म हुआ तुम्हारे द्वारा बनाये गए इस भेद-भाव पूर्ण धर्म का जो खुद को सदा श्रेष्ट और अन्य को नीचा कहता है।

हे मनुष्यों तुम आज धर्म के आधार पर लड़ते हो, इसलिये क्योंकि वो लोग मेरे अंश द्वारा दी गयी उस शिक्षा का पालन कर रहे है जिसका तुम  नहीं कर रहे, इसलिये तुम उसे नीची निगाह से देख रहे हो उसकी निंदा कर रहे हो क्योंकि वो मेरे उस अंश अथवा रूप पर आस्था रख मेरे वचनो का पालन कर रहे है जिसका तुम नहीं कर रहे, किन्तु ऐसा करके अपने ही पापो को बड़ा रहे हो।

ऐसा इसलिये तुम कर रहे हो क्योंकि तुमने मेरे द्वारा धरती पर भेजे मेरे अंश को उसके भौतिक रूप से जाना, देश, काल, परिस्तिथि, भाषा, रीती-रिवाज़, पहनावा जो उसने वहाँ के अनुरूप अपनाया उसे उसके ही आधार पर समझा, किन्तु तुमने उस आत्मा को नही देखा जो अनंत वषो से एक है,
'जैसे तुम किसी वस्त्र को धारण करते हो, फिर कल दूसरा फिर अगले दिन तीसरा किन्तु तुम तो वही रहे न केवल वस्त्र ही बदला',
'जैसे तुम शहर से गाँव रहने गये वहा के अनुरूप ही भाषा, रीती, रिवाज़, वेशभूषा तुम्हे अपनी पड़ती है, वैसे ही गाँव से शहर आने पर यहाँ के अनुरूप खुद को ढालना पड़ता है।
यदि तुम दूर देश जाओ रहने तब भी तुम्हे वहाँ के अनुरूप ही खुद को ढालना पड़ता है, देश, काल, परिस्तिथि के अनुसार भाषा, वेशभूषा, रीती-रिवाज़ सब बदल जाते  है जब तुम अपने एक स्थान से दूसरे दूर किसी स्थान पर जाते हो किन्तु मूल भाव तुम रहते तो वही हो न, न की बदल गए, कुछ और बन गये, परिवार और मित्रों के लिये तुम प्रेम भाव तो वही रखोगे न चाहे कितनी भाषा बदल जाये, वेशभूषा, रीती रिवाज़ दूसरे स्थान और वहा की परिस्तिथि के अनुसार बदल जाए।

हे मनुष्यों जब तुम नही बदले तो मेरा ही अंश जो मुझसे ही निकला है, अर्थात एक रूप से मैं स्वम अपने अंश के रूप में धरती पर देश, काल, परिस्तिथि के अनुसार जन्म ले कर आता हूँ मैं खुद कैसे बदल सकता हूँ।

हे मनुष्यों ये तुम्हारी बड़ी ही अज्ञानता है जो तुम सिर्फ इसलिए अपने बंधुओं से लड़ते हो व् उनके धार्मिक स्थानो को नुकसान पहुचाते हो जो मुझे अल्लाह, मसीह या भगवान कहते है, क्योंकि तुम्हारे पापो ने तुम्हारी आँखों को अँधा कर दिया है, तुम मुझे केवल भौतिक देह के आधार पर ही मान रहे हो, केवल उसे ही और उस रूप को ही सत्य मान रहे हो जिस पर तुम्हारी आस्था है, बाकी मेरे स्वरुप को नकार कर मुझपर विश्वाश करने वालो को नुक्सान पंहुचा रहे हो ऐसा करके तुम मुझ पर ही अश्रद्धा दिखा रहे हो और अपने पुण्यो को कम कर रहे हो।

हे मनुष्यों यही अज्ञानता और मूर्खता तुम्हारे अंत का कारण बनेगी, संभल जाओ और मेरे भौतिक नहीं वास्तविक रूप को पहचानो उसकी उपासना करो, मानव धर्म का पालन करो तभी उद्धार पाओगे, आत्मा जो परम है परमात्माँ मुझे पहचानो, मुझे मेरे अंश अथवा भौतिक रूप से नहीं उस सत्य से पहचानो से अनंत काल से है और रहेगा और जो तुम्हारा और समस्त जीवो व् समस्त ब्रह्माण्ड का जनक है।"

कल्याण हो