Monday 6 February 2017

कविता

"यही बस एक इतनी सी चाहत थी मेरी
सबके साथ चलने की हसरत थी मेरी

इन फिज़ाओ में खुल कर मुस्कुरा सकूँ
बस एक इतनी सी ही तो ख्वाइश थी मेरी

क्या बता था ये ज़माने को ना मंज़ूर होगा
हर तरफ बस धोखों का ही एक मंज़र होगा

हमराही कहने वाले ही राह भुलाते है यहाँ
क्या पता था हमसफ़र भी यहाँ बेमान होगा

बस एक अपनी पहचान की ही चाहत थी
ज़िन्दगी में बस एक मुकाम की चाहत थी

बन कर मिशाल राह दिखा सकूँ सबको में
बस दिलमे एक यही तो हसरत थी मेरी

यही बस एक इतनी सी चाहत थी मेरी
सबके साथ चलने की हसरत थी मेरी-२"

No comments:

Post a Comment