Tuesday 27 June 2017

मुक्तक

"जाने कैसे सबको उनका प्यार मिल जाता है
जाने कैसे सबको उनका यार मिल जाता है
हमको तो मिलते है मोहब्बत में ठग हर मोड़ पर
जाने कैसे सबको उनका संसार मिल जाता है"

Monday 26 June 2017

ईद मुबारक

"ऐ खुदा कुछ ऐसी रहमत कर दे
 इस ईद पर गरीब का पेट तो भर दे
 रोये न भूख से बिलखकर कोई फिर
खुदा करिश्मा तू आज ऐसा कर दे"

Sunday 25 June 2017

लेख--हिन्दू धर्म नही बल्कि एक प्राचीन सभ्यता

"मैंने एक रिसर्च की और पाया की जो लोग 'हिन्दू' को धर्म कहते है वो
अज्ञानी है, क्योंकि सच्चाई ये ही है हिन्दू कोई धर्मं नहीं, तभी
शास्त्रों और ग्रंथों में कही भी हिन्दू धर्म और हिंदुत्व का जिक्र नहीं
नहीं है।
अब लोग कहेंगे हिन्दू धर्म नहीं तो क्या है? क्या मुझे हिंदुत्व से
दिक्कत है?? तो उन्हें मैं बता दू हिंदुत्व से मुझे दिक्कत नही, पर
हिन्दू एक धर्म भी नही ये सत्य है, 'हिन्दू' एक सभ्यता है, विश्व की अनेक
प्राचीन सभ्यताओ में से अभी तक जीवित बची सबसे विकसित प्राचीन सभ्यता जो
प्राचीन काल से अब तक अपना अस्तित्व बचा कर रख पायी है, हालांकि अब इसमें
बहुत बदलाव आधुनिकता के आधार पर आ चूका है फिर भी मूल तत्व अपने साथ लिए
ये आज भी जीवित है।
'हिमालय पर्वत श्रंखलाओ से हो कर अनेक नदियो के किनारे' एक विशाल विकसित
सभ्यता का विकास हुआ, हिन्दू का 'हि' शब्द उसी हिमालय के समीप व् 'न्द'
शब्द नदी किनारे बसी उसी सभ्यता के विषय में जानकारी देता है, यहाँ पर
रहने वालो को ही हिन्दू कहा जाने लगा।
विश्व की सबसे प्राचीन और विकसित सभ्यता के नाम पर ही उसके समीप बहते
विशाल सागर को ही हिन्द महा सागर कहा गया, याद रखने योग्य ये है अभी तक
किसी धर्म के नाम पर किसी नदी या सागर का नाम नही रखा गया है, केवल हिन्द
महा सागर नाम क्यों ?? क्योंकि ये धर्म नही बल्कि प्राचीन विकसित और अब
तक जीवित इकलौती सभ्यता है।
तभी सभी हिन्दुओ के नाम, भाषा, रीती रिवाज़,त्योहार सब अलग है, कारण केवल
हिमालय तथा उससे निकलने वाली नदियो के किनारे बसे लोग, सभी ने अपने
अनुसार भाषा बोली, रीती रिवाज़ और त्योहार मनाये, तभी एक ही नाम की
धार्मिक पुस्तक 'रामायण' दक्षिण में अलग और उत्तर भारत में अलग
तथामलेसिया व् इंडोनेशिया में अलग है।
यदि ये धर्म होता तो मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन, बौद्ध आदि धर्मो के सामान
इसके मानने वाले एक ही त्योहार करते, रीती रिवाज़ एक होती, एक भाषा मुख्य
होती, किंतु ऐसा नही है।
अब सवाल उठता है विश्व की सबसे प्राचीन विकसित सभ्यता आज इतनी कम क्यों रह गयी?
इसका उत्तर है समय के साथ इसमें आई बुराई, और उन बुराइयों को दूर करने के लिए आने
अनेक मतानुयायी आये, जिन्होंने उसकी बुराई दूर करने के लिये उपदेश दिए,
जिन्होंने उन उपदेशो को माना वो उसी मत अर्थात धर्म को मानने वाले होते
गए, बाद में कुछ शाशको ने बलपूर्वक या लालच दे कर इस सभ्यता के लोगो को
बहका कर किसी दूसरे मत अपने
अनुसार किया, फलस्वरूप आज ये सभ्यता विश्व
में इतनी ही बची है।
किंतु उम्मीद है दुनिया का हर देश आज इस अत्यंत प्राचीन सभ्यता का शोषण
और खत्म करने की अपेक्षा बचा कर रखेगा, यही सभ्यता है अब बची है जब मानव
इतिहास की पूर्ण व्याख्या करती है।
--
Thanks and Regards
*****Archu*****
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Saturday 24 June 2017

कविता-मुझे मिटाया

"दुनिया में जब जब मैंने दिल लगाया
धोखा ही हर उस शख्स से पाया
कसूर फिर भी किसी का नही शायद
किस्मत ने उन्हें आखिर मुझसे मिलाया

ख़ुशी की चाहत दिखा सभी ने रुलाया
इश्क के नाम पर सभी ने सताया
मीठी बाते बना सदा बहलाते रहे मुझे
पर वफा का वादा न किसीने निभाया

दिलके रिश्ते बना दिलसे से ठुकराया
अपना बना कर भी न अपना बनाया
एक मोहब्बत की ही चाहत की थी
ज़िन्दगी बता अपनी ज़िन्दगी से हटाया

फिर भी साथ रखा तेरी बेवफाई का साया
तूने भुला दिया मुझे पर न मैंने तुझे भुलाया
ज़िन्दगी के आखिर तक एक साथ चाहा था
पर तूने तो ज़िन्दगी से ही मुझे मिटाया"



Friday 23 June 2017

ईश्वर वाणी-२१८, चौरासी लाख योनिया

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यद्धपि पापी मनुष्य अपने पाप कर्म का दंड इसी जन्म में भोगता है किंतु अनेक पापी अपने पापो का प्रायश्चित नही करते जिसका कारण उनके मन को उनके पाप रुपी शैतान ने ढक रखा होता है, जिसके कारण पाप कर्म का दंड मिलने पर भी प्रायश्चित नही करते और अवसर मिलते ही फिर पाप कर्म करने लगते हैं।

हे मनुष्यों ये मानव देह तुम्हे चौरासी लाख योनयो के बाद मिली है, अर्थात करोडो वषो व् अनेक युगों के बाद, यदि इसे तुम अपनी भौतिक महत्वकांशा पूर्ती में ही लगा देते हो तो फिर करोडो वषो व् अनेक युगों तक मानव देह के लिये तरसते हो।

हे मनुष्यों जीवन को चौरासी लाख योनियो से क्यों जोड़ा गया है इसके विषय में बताता हूँ, चौरासी लाख बार स्त्री तत्व व् पुरुष तत्व के संगम से तुम्हे इतनी ही देह की प्राप्ति हुई है, एक नया जीवन देना तो पाप कर्म में नही आता किंतु स्त्री और पुरुष तत्व का संगम पाप कर्म में आता है कारण कभी ये संगम आपसी सहमति से हुआ तो कभी जोर जबरदस्ती से, इस संगम में ईश्वर को भुला कर सिर्फ आपसी संगम के कारण मन में घृणित विचार रख कर किया मिलन, चौरासी लाख बार हुये इस मिलन के बाद मुक्ति तथा पाप द्वारा जन्म मरण के बन्धन से मुक्त होने के लिए ही मानव देह तुम्हें दी है, ताकि नैतिकता व् सत्कर्म का अनुसरण कर भव सागर से मुक्त हो कर फिर सतयुग में श्रेष्ट जीवन पाओ।


हे मनुष्यों चौरासी लाख योनियो में तुम्हारा केवल देह रुपी जन्म आता है, यद्दपि तुम्हारे प्रेत, आत्मा, निशाचर आदि अनेक सूक्ष्म शरीर में प्राप्त जन्म नही आते"।


कल्याण हो


अर्चना

ईश्वर वाणी-२१७, कर्मफल

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यूँ तो तुम अपनी देह में रह कर अनेक सुख और दुःख प्राप्त करते हो, यद्धपि तुम्हें पहले भी में बता चूका हूँ दुःख क्या है और सुख क्या, फिर भी सारांश में आज इतना ही कहता हूँ 'तुम्हारी इच्छित वस्तु अथवा इच्छा का पूर्ण होना तुम्हे हर्षित करता है, तुम्हे उस भौतिक वस्तु की प्राप्ति ही प्रसन्नता देती है मिलने पर, वही यदि वो वस्तु तुम्हे नही मिलती तो उसका न मिलना ही दुःख का कारन', भाव ये है सब कुछ तुम्हारे अनुसार ही जब होता है तब जो भाव मन में तुम्हारे आते है वही खुशी है चाहे इससे किसी को कष्ट मिल रहा हो पर तुम प्रसनन होते हो क्योंकि सब तुम्हारे अनुसार ही हो रहा है,

वही जब तुम्हारे अनुसार कार्य नही होता, परिस्तिथियां भी विपरीत होती जाती है तब खिन्नता का भाव मन में तुम्हारे आता है जो दुःख का कारण बनता है।

हे मनुष्यों ये मानव जीवन तुम्हे अनेक योनियो के बाद मिला है, तुम्हारे पिछले कई जन्मों के कर्म और इस जन्म के कर्म ही तुम्हे दुःख व् सुख की प्राप्ति करवाते हैं।

जैसे कोई पापी व्यक्ति  इस जन्म में कई पाप कर चुका और फिर भी सुख प्राप्त करता है, ऐसा इसलिये पिछले जन्म के कर्म उसके अधिक श्रेष्ट थे, उनके प्रभाव से उसके बुरे कर्मो का फल इस जन्म में नही मिला किंतु उसने अगला जन्म अपने बुरे कर्मो से खराब कर अगले जन्म के लिए केवल दुःख ही कमाया।

घृणा, झूठा आरोप, अपमान, हत्या, व्यभिचार, रिश्तों की अवमानना, देश ध्रोह, राज ध्रोह, निरीहों और कमजोर को सताना, सदा अपनी ही हाँकना, दूसरो को नीचा समझना, बुरी नियत रखना, संपत्ति हड़पना, दूसरे का हिस्सा छिनना, धन का व् ।मनुष्यों का देह का अभिमान करना ये सब पाप कर्म है, इसका दंड यदि पिछले जन्म के पुन्य पूरे इस जन्म में पूर्ण होते है तो इसी जन्म में दंड मिलता है यद्दपि ऐसा नही होता तो अगले जन्म में तुम्हारे जन्म से लेकर जब तक दंड तुम्हारा पूर्ण नही होता मिलता रहता है।

हलाकि बीच में कुछ वक्त के लिए कष्ट कम जरूर हो जाते है कारण कुछ इस जन्म के अच्छे कर्म व् जो लोग तुमसे जुड़े है उनकी किस्मत तुमसे जुडी जिससे उनके पुन्य कर्म के कारण अस्थाई रूप से कुछ पल के लिए तुम्हारे भी कष्ट कम हो गए।

हे मनुष्यों इसलिये तुमसे कहता हूँ केवल भौतिक वस्तुओं की लालसा कर उन्हें प्राप्त करने के पीछे मत भागो, कर्म मत खराब करो, यही तो असल पूँजी है इसे अधिक कमाओ और संभाल के रखो क्योंकि अगले जन्म में यह ही तुम्हे मिलेगी, अगर अभी बुराई का रास्ता युही अपनाते रहे तो अगला जन्म दुःख में बीतेगा क्योंकि सुख रुपी धन बुरे कर्मो में तुम आज जो खर्च कर चुके हो,

वक्त अभी भी है, इसे न जाने दो, मेरे बताये मार्ग को अपनाओ और सच्ची पूँजी कमा के आनंद प्राप्त करो"


कल्याण हो

कॉपीराइट@अर्चना





Wednesday 21 June 2017

पौराणिक कथा- भाग-5, जब श्रवण कुमार के मन में भी जागा था पाप


बात उस समय की है जब श्रवण कुमार अपने नेत्रहीन माता-पिता को ले कर चार धाम यात्रा पर निकले थे, चलते चलते वो किसी वन में पहुचे, माता पिता को भूख लगी तो उन्होंने श्रवण कुमार से कुछ भोजन की व्यवस्था करने के लिए कहा, श्रवण उन्हें वन में एक नदी किनारे बैठा कर भोजन की व्यवस्था करने चल पड़े।
उन्हों कुछ जंगली फल मिले, उन्हें ले कर माता पिता के पास आने लगे, उन्हें थकान महसूस हुई तो सोचने लगे एक पेड़ के नीचे थोड़ा विश्राम कर लू फिर चलूँगा आगे, और वो एक पेड़ के नीचे बैठ गए, पता नही कब आँख लग गयी, पर तभी मनमे विचार आने लगे "आखिर कब तक मैं इन अंधे बूढे माता पिता को धोता फिरूँगा, मेरी अपनी भी तो ज़िन्दगी है, इन्हें छोड़ कर वापस लौट जाऊँगा और विवाह कर अपना घर बसाऊंगा और सुखी जीवन जिऊंगा, ऐसा करता हूँ इस नदी में ही इन्हें डुबो देता हूँ, नही नही ऐसा करता हूँ जगंल में ही छोड़ देता हूँ और अपने नगर लौट जाता हूँ",
इसी उधेड़बुन में ही उसकी आँख खुल गयी और वो अपने माता पिता के पास गया ये कहने की वो अब उनको नही और ढो सकता है इसलिए उन्हें इसी वन में छोड़ कर नगर लौट जाएगा विवाह कर घर बसाएगा।
माता पिता ने धैर्य पूर्वक उसकी बात सुनी और कहा "पुत्र जैसी तुम्हारी इच्छा, पर आखिरी बार ये नदी तो पार करवा दो",
श्रवण ने सोचा चलो एक आखिरी बार ये कार्य भी कर ही देता हूँ, और वो नदी पार करवाने लगे, जैसे जैसे वो नदी में बढ़ने लगे ह्रदय परिवर्तन होने लगा, सोचने लगे "मेरे माता पिता का मेरे अतिरिक्त कौन है, मेरा भी उनके अतिरिक्त कौन है, ये तो मेरा संसार है, इनकी सेवा ही मेरा कर्तव्य है, इनकी सेवा ही ईश्वर की सेवा है, हे प्रभु कैसे बुरे ख्याल दिलमे आ गए थे मेरे, स्वार्थवश मैंने माता पिता का अहित सोचा",
इस बीच नदी पार हो चुकी थी, दुःख के कारण श्रवण कुमार माता पिता के समझ रो रहे थे, छमा मांगते हुए अपनी गलती की व्याख्या कर रहे थे, तभी माता पिता बोले "पुत्र मत रो, इसमें गलती तुम्हारी नही उस भूमि की है जहाँ तुम रुके थे, अनेक राक्षस व् बुरे लोग उस धरती पर पाप कर्म करते आये है, इसलिए वो भूमि अपवित्र है,इसलिए इसने तुम्हारे मन में भी पापी विचार भर दिए किंतु ये नदी साधू संत व् ऋषि मुनियो के पूजन व् स्नान के कारन पवित्र है, तभी हमने तुमसे नदी पार कराने को कहा ताकि तुम्हारे अंदर उपजे पाप धूल सके और वही हुआ,
माता पिता की बात सुन कर श्रवण कुमार का विलाप बन्द हुआ और उन्हें यात्रा पर वो ले गए।
Just now

गीत-"तू ही ज़िन्दगी है......."

"तू ही ज़िन्दगी है, तू जीने की वजह है,
देखु मैं जहाँ भी, तू ही हर जगह है-२

दूर तुझसे हो कर, क्यों मैं दूर नही हूँ,
जुदा तुझसे हो कर, जुदा तुझसे नही हूँ,

है ये कैसी लगन, जुड़ा तुझसे हर कही हूँ,
हूँ तेरा दीवाना, तू देख मैं वही हूँ,

लेता हूँ, तेरा ही नाम रब से पहले
ऐ मेरे हमनशीं, तू ही तो मेरी बन्दगी है,

तू ही ज़िन्दगी है...........................

शामो-सुबह बस, तुझे ही पुकारता हूँ
हर घडी मैं तो, तेरी ही राह देखता हूँ,

बंजर सी ज़िन्दगी में, बहार तुम लायी हो
किस्मत से मुझे तुम, यार मिल पायी हो-२,

तनहा थी ज़िन्दगी मेरी, ऐ मेरे हमदम
तुमसे मिली हर ख़ुशी, ऐ मेरे सनम,

तेरी ही चाहत के, जादू का असर है
तुझमें ही बसती, मेरी जान हर पहर है-२

है कितनी भोली, तेरी ये सूरत
है मासूम सी अदा, और कितनी सादगी है,


तू ही ज़िन्दगी है, तू जीने की वजह है,
देखु मैं जहाँ भी, तू ही हर जगह है--४"


--
Thanks and Regards
   *****Archu*****

Tuesday 20 June 2017

मुक्तक

"आज भी उसकी बेवफाई याद आती है
रह-रह कर उसकी रुसवाई याद आती है
जिसके लिये खुद को कभी भुला बैठे थे 
उस बेवफा के लिए वफाई याद आती है"

"सता कर सदा मुझे कैसे हस्ता रहा है वो
रुला कर सदा मुझे खुश होता रहा है वो
कैसे अपना ये सदा दर्द छिपाते रहे हम
मरते यु हम रहे और कैसे जीता रहा है वो"

Sunday 18 June 2017

ईश्वर वाणी-216, ईश्वर का क्रोध, प्राकतिक विपत्ति आदि

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों अधिकतर तुमने प्राकृतिक आपदा, दुःख, कष्ट, विपत्ति के समय लोगों से सुना होगा अथवा कहा भी होगा की ईश्वर अथवा भगवान के नाराज़ होने पर ऐसा हुआ।

किंतु आज मैं तुम्हें बताता हूँ मैं तुमसे कभी नाराज़ नहीं होता, यदि मैं तुमसे नाराज़ ऐसे ही होता रहता तो अब तक तुम्हारा अस्तित्व रहता क्या??

हे मनुष्यों जाती, धर्म, सम्प्रदाय के नाम पर मेरे आराधनालय को तुम नष्ट करते हो, मेरी प्रतीकात्मक प्रतिमाओ को नष्ट करते हो, मेरे बताये वचनो की पुस्तको को नष्ट करते हो, झूठी परम्परा के नाम पर निरीहों कि हत्या करते हो, अपने स्वाद जीभ के पूर्ण करने हेतु जाने कितने ही मासूम जीव जन्तुओ को मौत के घाट असमय ही उतार देते हो, लोगो से छल करते हो, झूठ बोलते हो, बुरी नज़र रखते हो, चोरी डकैती करते हो,व्यभिचार करते हो,भ्रष्टाचार करते हो, देश द्रोह करते हो, रिश्तों का सम्मान नही करते, स्वार्थ पूर्ती में लगे रहते हो, सदा पाप कर्म में लीन रहते हो।
इन सब बातो के आधार पर तुमसे क्रुद्ध हो कर मैं समस्त मानव जाती का ही विनाश कर दूंगा जैसा की तुम कहते हो।

हे मनुष्यों ये न भूलो तुम्हारी आत्मा के जन्म से ले कर अनंत काल तक सब कुछ तुम्हारे विषय में लिखा जा चूका है, तुम्हारे कष्ट, तुम्हारी ख़ुशी, तुम्हारे कर्म, तुम्हारी सोच, सब कुछ पहले ही लिखा जा चूका है।

यदि कोई दुर्घटना या किसी भी प्रकार की विपत्ति तुम पर आती है तो वो भी लिखी गयी है तुम्हारे जन्म से पूर्व ही, साथ ही पिछले जन्मो और इस जन्म के तुम्हारे कर्म अनुसार तुम्हे मिलने वाला ये एक दंड मात्र है जो पहले ही लिखा जा चूका है।

इसलिये ये न सोचो की कोई दुर्घटना या विपत्ति मेरे क्रोध के कारण तुम्हारी ज़िन्दगी में आई है, क्योंकि इन्हें तो आना ही था इसलिये ये तुम्हारी ज़िन्दगी में आयी।

हे मनुष्यों मेरी अथवा मेरे किसी भी अंश की तुम पूजा करते हो भक्ति करते हो, तुम्हे उसका प्रतिफल भी मिलता है, तुम्हारी प्राथना पूर्ण होती है, ये सब पहले ही लिखा जा चूका है।

तुम इस श्रष्टि रुपी रंगमंच पर केवल अपना किरदार निभाते हो, किंतु इसका मालिक मैं हूँ, इस श्रष्टि रुपी नाटक का लेखक भी मैं हूँ, संचालक भी मैं, निर्माता भी मैं हूँ, तुम सिर्फ एक कलाकार हो जो अपना किरदार निभा कर चले जाते हो फिर नाटक में भाग लेने।

इसलिये मैं कभी किसी पर क्रोधित नही होता, तुम सब मेरे समझ एक अबोध बालक समान हो, जैसे एक बालक को पता नही गलत और सही, उसकी कई बार की गयी नासमझी की गलतियों को माता पिता नासमझ कह कर भुला देते है, न की छोटी छोटी हर गलती पर दण्डित करते है, वैसे ही तुम सब मेरे लिये उस अबोध बालक समान हो, मैं तुम्हारा पिता ईश्वर हूँ।

कल्याण हो


**अर्चना मिश्रा**







Friday 16 June 2017

ईश्वर वाणी-215, भौतिक माता पिता व् भौतिक रिश्ते



ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों जिस परिवार में तुमने जन्म लिया है, जिन माता-पिता की कृपा से तुमने भौतिक देह पायी है यद्धपि तुमसे वो बुरा से बुरा अथवा अच्छा व्यवहार करे किंतु तुम्हें केवल सत्य का अनुशरण कर उनका सम्मान करना है, जब भी जहाँ भी उन्हें तुम्हारी आवश्यकता हो तुम्हें उनकी सहायता करनी बिना ये सोचे की उन्होंने तुम्हारे साथ क्या और कैसा व्यवहार किया।


हे मनुष्यों ये न भूलो की तुम्हारे सूक्ष्म शरीर तुम्हारी आत्मा का जन्म दाता मैं ही हूँ, मैं ही माता और पिता तुम्हारी आत्मा का हूँ, मेरे लिये तुम न स्त्री हो न पुरुष हो, मेरे लिये तुम सिर्फ एक आत्मा हो, तभी मैं तुम्हारे साथ कोई और किसी भी प्रकार का भेद भाव नहीं करता, किंतु तुम्हारे भौतिक माता पिता तुम्हारे भौतिक स्वरुप के अनुसार व्यवहार करते है, समाज की अनेक परम्परा को अपना कर कई बार तुम्हें अन्तर्मन तक चोट पहुचाते है, किंतु मैं फिर भी ये नहीं कहता की तुम भी उनके साथ ऐसा ही करो, यदि तुम ऐसा करते हो तो तुममे और उनमे कोई भेद नही होगा।


हे मनुष्यों जो तुम्हारे आज भौतिक माता पिता है पिछले जन्म में वो तुम्हारी अपनी संतान भी हो सकते है, मित्र व् बंधू भी हो सकते है,जो तुम्हारा रिश्ता तुम्हारे भौतिक माता पिता से आज है संभव हैं अगले जन्म में न हो, संभव है फिर कई जन्मों तक तुम एक दूसरे से न मिलो।


हे मनुष्यों ये न भूलो जैसे कर्म तुम आज करते हो उसका फल युगों तक पाते हो, इसलिये भले तुम्हारे भौतिक माता पिता तुम्हारे साथ बुरा व्यवहार करे, किंतु जब भी उन्हें तुम्हारी आवश्यकता हो बिना झिझके उनके काम आओ, साथ ही ये बात भी याद रखो ये केवल भौतिक माता पिता है, भौतिक रिश्ते तो दुखदायी होते ही है किंतु इसका अर्थ ये नहीं की जिसने तुम्हे दुःख पहुचाया उसे इससे भी अधिक कष्ट दो, उसकी आवश्यकता पर मुह मोड़ लो, उसे अकेला छोड़ दो।


हे मनुष्यों आदि काल से ले कर अनंत काल तक तुम्हारी आत्मा का जनक मैं ही हूँ, मैं ही वस्त्विक माता व् पिता हूँ,  मैं ही देह रुपी वस्त्र तुम्हे पहनने को देता हूँ, देह एक भौतिक वस्तु है इसलिये एक निश्चित समय के साथ नष्ट हो जाती है फिर दूसरा वस्त्र धारण करती है, किंतु इस बीच अनेक भौतिक रिश्ते और नाते बना अनेक सुख व् दुःख प्राप्त करती है, ये दुःख व् सुख सभी स्थायी नही होते क्योंकि ये भौतिकवाद से बने होते है, और जो भौतिक नही है वो है आत्मा और सच्चा रिश्ता है जो सिर्फ सुख की अनुभूति देता है वो है ईश्वर और आत्मा का सच्चा रिश्ता।


हे मनुष्यों मैं ये नही कहता की अपने भौतिक रिश्तों को भुला कर संन्यास धारण कर सदा मेरी ही भक्ति करो, तुम सिर्फ इतना करो कोई तुम्हारे साथ अच्छा या बुरा व्यवहार करे किंतु तुम कटुता त्याग सदा मानव पथ पर चल सत्मार्ग का अनुसरण करो, किसी के प्रति बेर भाव न रख कर जो भी व्यक्ति तुमसे सहायता माँगे उसकी सहायता करो बिना इसकी इच्छा किये की वो तुम्हारी भी कभी सहायता करेगा या काम आयेगा, हो सकता है शैतान के वशिभूत तुम्हे वो तुम्हारे उपकार के बदले नुक्सान पहुचाये किंतु तुम बेर न रखते हुए सत्मार्ग पर चलो और भौतिक रिश्ते पर ध्यान न देते हुए आत्मा और ईश्वर के पवित्र रिश्तों की सत्य मान कर नेक कर्म करते रहो, तुम्हारा कल्याण होगा।"



कल्याण हो

Thursday 15 June 2017

ईश्वर वाणी-214, ईश्वर का साकार व निराकार स्वरूप

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यद्धपि संसार में अनेक लोग मेरे भौतिक स्वरुप अर्थात मूर्ती पूजक है और वही अनेक लोग मेरे निराकार स्वरुप के अनुयायी है, किंतु जो लोग मेरे भौतिक स्वरुप की निंदा करते और उसे मानने वाले को हेय दृष्टि से देखते है आज उन्हें मैं कुछ जानकारी अवश्य देना चाहता हूँ।

देश, काल, परितिथि के अनुरूप मैं ही अपने एक अंश को भौतिक रूप धारण कर धरती पर भेजता हूँ, वही मानवता की हानि रोकने हेतु ज्ञान का पुनः प्रचार प्रसार करते ताकि जो व्यक्ती मेरे ज्ञान और बातो को भूल गए है पुनः उन्हें सत्य का ज्ञान हो और सत्मार्ग का अनुसरण वो करे।

हे मनुष्यों जहाँ जहाँ मानव केवल मेरे भौतिक स्वरुप पर विश्वास कर मेरी सत्ता को चुनोती दे कर जगत व् प्राणी जाती का दोहन व् शोषण  लगा वहा वहा मेरे ही एक अंश ने वहा जन्म ले कर एकेश्वरवाद की नीव रख ये सन्देश दिया की ईश्वर एक है, वो केवल भौतिक स्वरुप मूर्ती आदि में तथा मंदिर मैं नहीं अपितु समस्त जगत में है, अतः मानव को केवल उस मूर्ती की पूजा नहीं करनी चाहिये जो नाशवान है, बल्कि निराकार आदि अनंत ईश्वर की अरांधना व् पूजा करनी चाहिये उसी के समस्त मश्तक झुकना चाहिये क्योंकि वो ही परम सत्य है।

वही जहाँ मानव निराकार ईश्वर पर विश्वास कर जगत व् प्राणी जाती का दोहन करते हुये मेरी सत्ता को चुनोती देने लगे, ।मैंने ही अपने एक अंश को भेजा वहा, उन्होंने जगत व् प्राणी जाती की रक्षा हेतु कभी युद्ध किया तो कभी मानवता के प्रचार हेतु उपदेश दिए, मानव में बुराई के बीज न पनपे तथा सदा बुराई के प्रति वो दहसत में रह कर सत्मार्ग पर ही चले इसलिये मूर्ती पूजा का प्रचलन वहा किया, ताकि मूर्ती जो भले एक कलाकार की एक कल्पना मात्र है जब भी मनुष्य उसे देखे तो पाप कर्मो से भय खाते हुये मेरी ही शरण में आये।

हे मनुष्यों यधपि तुम मेरे साकार और मूर्ती स्वरूप पर यकीं करो या निराकार रूप पर, तुम जिस पर भी विश्वास कर मेरे बताये मानव पथ पर यदि चलोगे तो निश्चित ही मुझे प्राप्त करोगे किंतु अपनी विचारधारा मेरे साकार व् निराकार रूप की एक दूसरे पर धोपोगे व् एक दूसरे का उपहास करोगे नुक्सान पहुँचाओगे तो निश्चित ही मेरे क्रोध के पात्र बनोगे, क्योंकि साकार व् निराकार दोनों ही स्वरुप तुम्हे मुझ तक पहुचाने का ही एक मार्ग मात्र है, मैं ईश्वर हूँ।

कल्याण हो




ईश्वर वानी-213, प्रकति और पुरुष

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यद्दपि संसार की और जीवो की उत्पत्ति के विषय में अनेक जानकारी मैं तुम्हें दे चूका हूँ, किंतु आज इसी श्रेढ़ी में और अधिक जानकारी तुम्हें बताता हूँ।

श्रष्टि की उत्पत्ति का एक प्रमुख कारक प्रकति और पुरुष का मिलन है जिनके सहयोग से ही समस्त श्रष्टि का निर्माण हुआ है, इसी प्रकति को कोई आदि शक्ति कहता तो कोई जगत माता जगदम्बा, वही पुरुष जिसे कोई परम पिता ब्रह्माँ कहता है तो कोई परमेश्वर।

हे मनुष्यों मैंने ही जगत की उत्पत्ति हेतु सर्व प्रथम इनकी रचना की जिनके सहयोग से समस्त ब्रमांड का निर्माण हुआ तत्पश्चात पृथ्वी पर जीवन हेतु ये ही अति सूक्ष्म रूप धारण कर धरती पर आये और यहाँ जीवन की नीव रखी।

हे मनुष्यों ये प्रकति और पुरुष आदि समय से ब्रमांड में अदृश्य रूप से विराजित है और अनन्त समय तक रहेंगे, मेरे द्वारा इनका जन्म हुआ इसलिये इनमे मेरे समान ही शक्तिया है, देश, काल, परिस्तिथि के अनुरूप मेरी ही आज्ञा प्राप्त कर ये धरती पर भौतिक रूप प्राप्त करते है मानवता की हानि रोक फिर से मानवता की नीव रखते है।

यहाँ ये बात अवश्य जानने योग्य है अलग होते हुये भी प्रकति और पुरुष एक ही है, अपने निर्धारित उद्देश्य पूर्ण कर ये एक हो कर मुझमे ही विलीन हो जाते है, मैं एक विशाल अनंत सागर हूँ और ये उस सागर की एक बूँद, मैं ईश्वर हूँ ।

कल्यान हो