Saturday 31 December 2016

ईश्वर वाणी-१७६, आत्मा का वस्त्र शरीर

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यो ये भौतिक शरीर तो केवल तुमहारी आत्मा को बाहरी रूप की बुराईयों से ढ़कने के लिये ही केवल है जैसे तुम वस्त्र धारण करते हो न कि शरीर नग्न होने से बचाने के लिये अपितु बाहरी गंदगी से बचाने के लिये!!

हे मनुष्यों वैसे ही आत्मा को मैंने शरीर रूपी वस्त्र दिया है ताकि वो न खुद को नग्न होने से बचा सके अपितु बाहरी बुराई रूपी गंदगी से इसकी रक्षा कर सके,
हे मनुष्यों जैसे तुम अपनी आर्थिक स्थिति के अनूरुप वस्त्र खरीदते हो वैसे ही आत्मा अपने जन्म जंमांतर के कर्म अनुसार ही देह प्राप्त करती है, तभी संसार मैं अनेक रूप रंग व आकार के जीव है यहॉ तक की मानव ही एक  सा नही, कोई बहुत सुंदर और कोई कुरूप किंतु समस्त जगत मेरे द्वारा ही रचा गया है इसलिये मेरे लिये कोई कुरूप नही जैसे बच्चे चाहे कितने ही बुरे वस्त्र धारण कर लें किंतु माता पिता के सदा प्रिय ही रहते है,

हे मनुष्यों तम सब जीव जंतु मुझे बहुत प्रिय हो क्योकि मैने तुम सब को जन्म दिया  है, सभी जीवों को जन्म देने वाला जीवन व पालन करने वाला समस्त ब्रह्माण्ड का रचियता मैं ईश्वर हूँ!!"

कल्याण हो

मुक्तक

"कल का सूरज एक नया साल लायेगा
कुछ खट्टे कुछ मीठे से वो पल लायेगा
भुला न देना इस बरस को जब हम मिले
आने वाला लम्हा फिर न ये कल लायेगा"

"कुछ खट्टे कुछ मीठे-मीठे  पल दे गया  कोई
जीने  की फिरसे एक वज़ह मुझे दे गया कोई
खुद तो चला गया यहॉ से गुज़रे साल की तरह
जीवन का फिर ये नया साल मुझे दे गया कोई"

ईश्वर वाणी-175, आध्यात्म कि आवश्यकता

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों युँ तो तो तुम्हें मैं पहले भी आध्यात्म का अर्थ बता चुका हूँ, किंतु आज़ तुम्हें मैं बताता हूँ मानवीय जीवन मैं आध्यात्म का क्या महत्व है??

आध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है आत्मा का अध्यन अर्थात आ+त+म+आ= आत्मा

आ= आदी
त= तत्व
म= मैं
आ= आवश्यक, आदि, अनादि, अनंत,

अर्थात:- आदी तत्व मैं,आवश्यक, अनंत, अनादी आदी

अध्यन अर्थात मंथन गहन चिंतन,
अ+ध+य+न अध्यन

अ= आवश्क
ध= ध्यान
य= योग
न= नियम 

मुझे पाया जा सकता है केवल आवश्यक ध्यान योग और नियम से,

हे मनुष्यों आध्यात्म केवल पुष्तक पड़ने और उस पर विश्वास करने से हासिल नही होता, जब तक  आत्म का चिंतन नही होगा आध्यात्म की प्राप्ती नही होती,

हे मनुष्यों आध्यात्म तुम्हें मुझसे जोड़ता है, यदि तुमने आध्यात्म को समझ लिया आत्मसात कर लिया तब तुम्हें मुझसे जोड़ने से कोई नही रोक सकता,

इसलिये प्रत्येक मनुष्य के लिये आध्यात्म अति आवश्यक है, केवल आध्यात्म ही तुम्हें और पशुऔं मैं भेद करता है, केवल तुम ही आध्यात्म को आत्मसात कर मोझ को प्राप्त कर सकते हो, केवल इसके माध्यम से तुम अपने मानव जीवन के महत्व और उद्देश्य जान सकते हो।

हे मनुष्यों इसलिये केवल पुष्तकिय ग्यान (जो देश, काल, परिस्तिथी के अनुसार) परिवर्तित होते रहते है उन पर ही केवल विश्वास न कर कर श्रेष्ट गुरू जन(जो किसी धर्म, जाती, भाषा, सम्प्रदाय, रंग-रूप) का पछ न कर  सम्पूर्ण मानव जाती व प्राणी जाती के हित एवँ मेरे निराकार रूप कई शिक्षा देता हो।

हे मनुष्यों यदि ऐसा कोई गुरू तुम्हें न मिले तो मुझे ही अपना गुरू बनाओ मैं ही तुम्हें आध्यात्म की दीक्षा दुँगा।"

कल्याण हो




Tuesday 27 December 2016

ईश्वर वाणी-१७४, मेरे अंश

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों देश/काल/परिस्तिथी के अनूरूप  मैंने ही अपने ही एक
अंश को भौतिक देह धारण कर धरती पर जन्म लेने के लिये भेजा,
देश/काल/परिस्तिथी के अनुरूप तुमने उसे कही मसीहा कहा कही फरिश्ता तो कही
अवतार,

उसने तुम्हें देश/काल/परिस्तिथी के अनुसार वह बातें कही जिन्हें तुम भूल
गये अथवा भुला दिये गये (बुरे कर्मों द्वारा),
हे मनुष्यों जो व्यक्ति उनके द्वारा बतायी गयी सुझाई गई धारणा पर चलने
लगा वह उस पर विश्वास करने लगा मानव ने एक नाम दे दिया धर्म और इस प्रकार
मानव के साथ मुझे भी बॉट दिया,
हे मनुष्यों संसार का प्रथम तत्व मै ही हूँ, मैने ही जगत की रचना हेतु
प्रक्रति की रचना की, प्रक्रति ने ही ब्रम्हा के द्वारा धरती पर जीवों व
जीवन की रचना की, सबको समान बनाया, और जगत के कल्याण के लिये कुछ व्यवस्थायें  बनायी,

किंतु मानव को संसार का प्रहरी बनाया, सभी जीवों का कल्याणकर्ता बनाया, इस प्रकार मैंने मानव धर्म की स्थापना की,
लेकिन समय के साथ शक्ति के मद मैं मानव अपने उन कर्मों को भूल गया, अपने वास्तविक धर्म को भूल गया, जो
मैंने उसके लिये निर्धारित करे थे,और इस प्रकार मानव न सि्र्फ अपनी जाती
का अपितु अन्य जीवों का दोहन करने लगा,
मानव को उसके वास्तविक कर्म याद दिलाने हेतु मै निराकार परमात्मा खुद
उसका मार्गदर्शन कर सकता था किंतु मानव मेरे इस स्वरूप को न सहज़ स्वीकार
करता न ही मेरे द्वारा दी गयी शिछा का प्रचार प्रसार कर अन्य मनुष्यों को
इस पर चलने की प्रेरणा देता,

मैने ही इसलिये अपने ही एक अंश को प्रक्रति द्वारा धरती पर भौतिक शरीर
मैं जन्म कराकर देश/काल/परिस्तिथी के अनुरूप ग्यान का व शिछा का (जो जगत
व प्राणी जाती के हित मै है) प्रचार प्रसार कराया और. अंत: उन्हें भी
भौतिक देह त्यागना पड़ा ताकी मानव जान सके जीवन अमूल्य है किंतु देह सदा
नाशवान है, साथ ही जो व्यक्ति मेरे द्वारा धरती पर जन्म लेने वाले अंश पर
यकिं करते गये, विश्वास करते गये मैंने उनके विश्वास की लाज़ रख कर फिर
यही संदेश दिया 'मैं ईश्वर निराकार हूँ, भौतिकता मैं बधॉ नही हूँ,
अजन्मा, अविनासी, अदभुत, आदि शक्ति मैं ही हूँ, मैं ईश्वर हूँ'!!!"

कल्याण हो

कविता-जीवन की इन राहों पर मैं नित नित बड़ते जाता हूँ



"जीवन की इन राहों पर मैं नित नित बड़ते जाता हूँ
संघर्षों से घिरा हुआ था आज़ अपनी कथा सुनाता हूँ

मंजिलों से दूर कही मैं भटक रहा था इन सूनी राहों मै
बिखर कर फिर बना हूँ आज अपनी बात बताता हूँ

ना कोई साथी था साथ मेरे ना ही था कोई हमराही
अकेले बड़ जो जीत लिया जग खुशी अपनी जताता हूँ

रूलाया सताया बहुत जहॉ ने था मुझे कभी इस कदर
पर आज़ हसाके सबको ना किसी को रुलाता हूँ

कहते थे ज़माने वाले मैं हूँ नही किसी काबिल यहॉ
फलक का तारा बन आज मैं अपने ही गीत गाता हूँ

रहा कितना तन्हा और अकेला इस महफिल मैं
दुख अपना पी कर सदा मैं युंही तो मुस्कुराता हूँ

मिले जो धोखे ज़माने से मुझे और लगी जो ठोकरे
आज़ जीत कर आसमान उन्हें ये जिन्दगी दिखाता हूँ

छोड़ गये थे साथ जो मेरा मज़लूम मुझे बताकर
दिखा अपने लबों पर हसी आज़ उन्हें मैं जलाता हूँ


जीवन की इन राहों पर मैं नित नित बड़ते जाता हूँ
संघर्षों  से घिरा हुआ था आज़ अपनी कथा सुनाता हूँ-२"

Monday 26 December 2016

ईश्वर वाणी-१७३ तीन सागर

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों धरती पर तीन प्रकार के सागर हैं १-तरल
सागर, २-कठोर सागर, ३-सूखा सागर
हे मनुष्यों वह सागर जिसने धरती के एक बड़े भाग को घेरा हुआ है वह 'तरल' सागर है,
उसी प्रकार धरती पर एक भाग बर्फ से सदा ढ़का हुआ है वह है 'कठोर' सागर,
और जो धरती पर रेगिस्तानी स्थान है वह है 'सूखा' सागर,
जिस प्रकार तरल सागर मैं लहरें आती हैं तूफान आते हैं प्रलय तक होती है
वैसे ही कठोर सागर व सूखा सागर मै भी होता है,
हे मनुष्यों आज़ जहॉ कठोर सागर व सूखा सागर हैं कभी वहॉ तरल सागर होता
था, साथ ही आज़ जो जैसा है हमेशा वैसा भी नही होगा, समय के साथ परिवर्तन
ही प्रक्रति का नियम मैंने निर्धारित किया है,
है मनुष्यों जिस प्रकार धरती पर तीन सागर मौज़ूद है उसी प्रकार समस्त
ब्रमाण्ड मैं भी तीन सागर मौज़ूद है,
तरल आकाशिय दिव्य सागर की रेत से ही ब्रह्माण्ड की व ग्रहों व नछ्त्रों
की रचना हुई है व उनमैं उलब्ध बर्फ व गैस (निम्न वायु) कठोर सागर के कारण
ही है,
हे मनुष्यों क्या तुमने कभी विचार किया है आकाश मैं पत्थर व ग्रहों मैं
पहाड़ मिट्टी व अनेक गैस व बर्फ कैसे आये??
हे मनुष्यों ये सब उन सागरों के कारण ही आये जो अनंत आकाश मैं मौजूद है व
श्रश्टी की उत्पत्ती का कारक,
हे मनुष्यों मैं तुम्हे परहले भी बता चुका हूँ धरती समस्र ब्रह्माण्ड की
प्रतीक मात्र है इसलिये समस्त ब्रह्माण्ड की की एक छोटी सी झॉकी इस धरती
पर ही मौजूद है,
आकाशिय दिव्य सागर आकाश रूप मैं सदा तुम्हारे उपर है और तुम इसके नीचे
ठीक वैसे ही हो जैसे समुन्दर के जीव समुन्दर के नीचे होते है,
हे मनुश्यो जगत  व प्रक्रति का निर्माण करने वाला समस्त ब्रह्माण्ड को
ढकने वाला वह दिव्य सागर मैं ही हूँ मैं ईश्वर सदा तुम्हारे साथ हूँ,

हे मनुष्यों  तभी ईश्वर को याद किया जाता है तो आकाश को देखते हो, जब कोई अपना भौतिक शरीर त्यागता है तब कहते हैं वो उपर चला गया भगवान के पास, मनुष्यें आकाश बन कर मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ, पर मुझे उस दिव्य सागर के रूप मैं केवल परन ग्यानी व पवित्र आत्मा ही देख सकती है क्यौंकि  मैं ईश्वर हूँ"

कल्याण हो

भक्ति कविता

मेरे मीत तुम्ही हो हारी हर बाजी़ की जीत तुम्ही हो,
मैं तो हूँ एक सरगम यहॉ जिसका संगीत तम्ही हो

हे प्रभु तुम्हीसे मेरी सुबह है होती तुमसेही हर शाम
लेता हूँ पल पल नाम तुम्हारा मेरे तो गीत तुम्ही हो

भक्तीहीन अल्पविश्वासी जगसे हारा मैं दास तुम्हारा

अधूरे से मेरे जीवन की बस प्रभु एक प्रीत तुम्ही हो

ना मानू बंधन कोई ना मानू दुनिया का रिवाज़ प्रभ

दिलसे माना जिसे अपना इस प्रेम की रीत तुम्ही हो


मेरे मीत तुम्ही हो हारी हर बाजी़ की जीत तुम्ही हो,
मैं तो हूँ एक सरगम यहॉ जिसका संगीत तम्ही हो-२

Sunday 25 December 2016

ईश्वर वाणी-१७२, देवता, यछ, दानव, रिषि-मुनि तुम ही हो

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों श्रष्टी निर्माण के समय सबसे पहले मैंने जिसको उत्पन्न किया वह है प्रक्रति, प्रक्रति ने ही त्रिदेव (ब्रह्मा,विष्णु व महेश) की रचना की, ब्रह्मा जिसने समस्त प्राणियों की रचना की ब्रह्माण्ड की रचना की, विष्णु जो सभी का पालन पोषण करते हैं अथवा उनकी ही इच्छाशक्ती से समस्त ग्रह नक्छत्र शक्ति प्राप्त कर आकाश मैं विचरण करते हैं, महेश जो संहारकर्ता हैं, जब जब श्रश्टी पर पाप अपनी चरम सीमा पार कर लेता है तब उसका विनाश सुनिश्चित हो जाता है, इस विनाश के बाद फिरसे नयी श्रश्टी का निर्माण होता है!!

हे मनुश्यों ब्रम्हा को ब्रम्ह लोक मैं स्थान प्राप्त है, अर्थात जीवन देने वाला सदा ही उच्च स्थान का अधिकाऱी होता है इसलिये वह अनंत ब्रह्माण्ड मैं ब्रम्ह लोक मैं रहते हैं,

वही विष्णु छीर सागर मैं रहते हैं, ये सागर धरती पर बहने वाला कोई साधारण सागर नही अपितु जिसके पावन जलसे समस्त श्रष्टी का निर्माण हुआ है वहॉ रहते हैं, जल जो जीवन प्रप्त करने व जीवन यापन की प्रथम मूलभूत आवश्कता है, तभी समस्त नदीयों का श्रोत ऊँचे पहाड़ों पर ही है, जहॉ से भगवान विष्णु समस्त धरती को जीवन यापन हेतु जल की व्यवस्था करते है,

महेश जो संहारक है, उनका निवास धरती अर्थीत म्रत्यु लोक है, एक निश्चित समय के बाद सभी को अपना भौतिक शरीर त्यागना ही पड़ता है, इस म्रत्यु लोक मैं सभी की म्रत्यु निश्चित है, संहारक होने व म्रत्यु के कारण उनका स्थान धरती है,

है मनुष्यों इन त्रिदेवों के साथ पत्नी रूप मै त्रदेवीयॉ है जो प्रक्रति है अर्थात जिसके बिना त्रिदेव भी कुछ नही, व अन्य देवता, दानव, यछ, रिषी-मुनि समाज़ का ही प्रतीक है

सत्तकर्मी जो अपने दायित्वों को कुशलता के साथ पूरा करता है वही देवता है,

जो व्यकति अपने लिये नही अपितु अन्य प्राणयों के विषय मैं सोचता व उनका कल्याण करता है, ईश्वर के वचन पर चलता है, वही रिषी-मुनी है,

जो व्यकति समय व स्वार्थ के साथ स्वभाव बदल लेते है वही यछ है,

जो व्यक्ति अपने अतिरिक्त किसी के विषय मैं नही सोचते, सदा अपने हितों को साधने के लिये दूसरों का भी बुरा करने से नही चूकते, छल कपट व झूठ का साथ सदा अपनाते है, निरीहों पर अत्याचार करते है, रक्त रंजित  भोज पदार्थ का सेवन करते है वही दानव है!!

कलियुग मैं निम्न व्यक्ति ही देवता, यछ, रिषी-मुनि व दानव है , ये कोई पारग्रही नही अपितु तुम्हारे कर्म ही तुम्हें ये बनाते है, प्राचीन काल के समय ये ही धरती रहते थे तुमने श्रेश्ठजन से सुना होगा, किंतु ये व्यक्ति उस समय भी ऐसे ही थे जैसे आज तुम हो, और आज भ तुममे ही इनका निवास है, अब तुम इसे पड़ कर सनकर खुद मूल्यांकन करो की तुन खुद क्या हो"

कल्याण हो

Friday 23 December 2016

कविता-कुछ लिखूँ मैं

"आज फिर दिल ने कहा कुछ लिखूँ मैं
मोहब्बत की कोई कहानी लिखूँ

या मिले हैं जो अश्क इश्क मैं तेरे मुझे
तेरी इस बेवफाई की बयानी लिखूँ

रूलाया बहुत मुझे तूने कर के ये बेफाई

अपने दर्द की क्या निशानी लिखूँ

फिदा था ये दिल तुझपर कभी इसकदर

अपने प्यार की आज रवानी लिखूँ


आज फिर दिल ने कहा कुछ लिखूँ मैं
मोहब्बत की कोई कहानी लिखूँ"-2

Wednesday 21 December 2016

shayri-betiya

"Ashq nahi anmol moti hai betiya,
Fir bhi har pal roti hai ye betiya,
naseeb mein hai bas aansu inke
Kya isliye zahan mein hoti hai betiya"

"Phool nahi khushboo hoti hai betiya,
Shayad tabhi dil se dur hoti hai betiya,
Lutati hai apni har khushi jinpar yaha,
Fir bhi kyon itni mazboor hoti hai betiya"

"Ek madhur sargam hoti hai betiya,
Suroon ka sangam hoti hai betiya,
Bojh na samajh inhe na bol parayi,
Bas prem ka samagam hoti hai betiya"

ईश्वर वाणी-१७१, भगवान का अर्थ

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों युँ तो तुम नित्य 'भगवान' शब्द कहतै हो, भगवान की पूजा आराधना करते हो किंतु तुम्हें इस शब्द का शाब्दिक अर्थ भी पता है, भगवान और ईश्वर के वास्कविक व आध्यात्मिक अर्थ को समझना मानव जाति के लिये सम्भव नही, इसे केवल पवित्र आत्मा ही जान सकती है किंतु तम्हारे लिये शाब्दिक अर्थ है जिसे तुम जान और समझ सकते हो!!

हे मनुष्यों मैं तुम्हें 'ईश्वर' के शाब्दिक अर्थ के विषय मैं जानकारी दे चुका हूँ किंतु आज़ 'भगवान' शब्द के विषय मैं बताता हूँ,

भ+ग+व+आ+न= भगवान जिसका शाब्दिक अर्थ है,

भ= भाव, भक्ति, भजना
ग= गुन गान, गीत, गायन
व= विश्वास
आ= आस्था
न= नित्य, नियम, नभ, नैतिक

अर्थात भक्ति भाव से गुनगान गीत गायन कर भजना विश्वास आस्था नभ की तरफ नित्य नियम से देखना पुकारना, क्यौंकि नभ मैं ही भगवान रहते हैं और नभ मैं ही हूँ मैं ईश्वर हूँ,

हे मनुष्यों यदि तुम दूर किसी शहर यात्रा पर गये, वहॉ कोई पहचान वाला भी नही, ऐसे मैं तुम्हारे पैसे भी चोर चुरा ले गया, तुम दुखी सोच मैं डुबे की अब वापस घर कैसे जायें कोई व्यकि नही ऐसा जिसको व्यथा सुनायें अपनी जो मदद कर सके,
ऐसे मैं कोई अजनबी तुम्हारी सहायता करे, तुम्हें सकुशल घर तक पहुँचा दे  तो क्या और लोंगोँ से तुम उसकी अच्छाई नही भजोगे, उसके उपकार के प्रति क्रतग्यता नही दिखाओगे, उसके इस नैतिक गुन का गान नही करोगे, जो तुमने उस पर विश्वास किया, आस्था जताई तुम लोंगों को नही कहोगे, चूँकी वो अनजान था इसलिये नभ को देखकर ये नही कहोगे वो भगवान था मेरे लिये उस समय, नित्य नियम से नभ को देखकर उस अनजान का दिल मैं धन्यवाद कहोगे जिसने तुम्हारी समय पर सहायता की,


हे मनुष्यों जैसे एक व्यक्ति किसी जरूरतमंद की सहायता कर उसका भगवान बन जाता है वैसे ही जब समाज व समस्त जीवों को सहायता की आवश्यकता होती है तब मै ही अपने से एक अंश को भौतिक शरीर भारण कर देश/काल/परिस्तिथी के अनुसार जन्म लेने की आग्या देकर जीव मात्र की सहायता करने का आदेश देता हूँ जिसे तुम व समाज भगवान कहता है!!"

कल्याण हो







Saturday 17 December 2016

meri shayri

1-:"Ye jeevan tere bin kitna tanha hai,
Ye to bata 'khushi' tu kaha hai,
'Meethi' ne dhunda bahut tujhe,
Dekh mudke jara bin tere ye suna zaha hai"

2-: "tod kar dil ye mera khushi mujhse ruth gayi,
Bhula ke har rishta meethi bhi mujhse dur gayi
Khata ek mohabbat ke siwa kari kya thi maine
Tanha kar 'meethi-khushi' mujhe aaj bhul gayi"

3-:"kaun kahta hai tum nahi ho kahi nahi ho
Kaun kahta hai 'khushi' ko tum bhul gayi ho
In fizao mein 'meethi' sugandh hai tumhari
Har in nazare mein basi tum yahi ho yahi ho"

4-:"har khwaab mein tum hi the mere
Jeevan ke raaz mein tum hi the mere
'Meethi-Khushi' chalkti thi kabhi yaha
Kyonki saath ab talak tum hi the mere"

Friday 16 December 2016

कवता-मैं बदलने लगी हूँ

"अकेले मैं दिन-रात मुस्कुराने लगी हूँ
शायद ये सच है मैं बदलने लगी हूँ

जीने की चाहत फिर जागी है मुझमें
शायद फिर दुनियॉ जीतने चली हूँ

बहुत बहाये अश्क इस महफिल मैं
सुखा हर अश्क आगे बड़ने लगी हूँ

कर दिखाऊगी वो सब जो न किया
खुद से यही बस अब कहने लगी हूँ

नही हूँ यहॉ मैं तन्हा और अकेली
खुद मैं ही ये अब बड़बड़ाने लगी हूँ

बेबस समझ जो छिपती थी जमानेसे
आज़ दुनियॉ से नज़रें मलाने लगी हूँ

टूट कर बिखर गयी थी कभी मैं यहॉ
आज़ फिर एक बार सम्भलने लगी हूँ

अकेले मैं दिन-रात मुस्कुराने लगी हूँ
शायद ये सच है मैं बदलने लगी हूँ-२"

Wednesday 14 December 2016

कविता-संग तेरे चली आयी

"छोड़ के वो दुनिया संग तेरे चली आयी,
तूने जो पुकारा मुझे मैं तेरी गली आयी-२

रहना अब संग तेरे चाहे तु कुछ भी कहले,
पास आ कर तेरे मैने तो ये प्रीत निभायी

तोड़ के हर बन्धन छोड़ के हर सम्बन्ध

आ कर युं बाहों मैं तेरे ये कली मुस्कुराई

'खुशी' की हर बात हो या गम की बरसात 

साथ तेरे 'मीठी-खुशी' है अब दिलमें छायी

नही रहना ना है जीना ऐ मेरे हमदम बिन तेरे

तड़पता ना छोड़ जाना तुझे इश्क की दुहायी

बहुत रोई है 'मीठी' मोहब्बत मैं ठोकर खाकर

'खुशी' साथ पा कर तेरा आज़ मैने भी है पायी

मिली हर बार दगा वफा के बदले इश्क मैं मुझे

एक तू ही है जिसने की मुझसे हर पल वफायी

ये वादा कर अब तू मुझसे दिलमे रहेगा पल पल
भले न बजी हो  यहॉ अपने मिलन की शहनायी

तोड़ दुनिया की रस्मो रिवाज़ गिरा हर दीवार

थाम कर हाथ तेरा साथ तेरे मैं तो चली आयी

छोंड़ के वो दुनिया संग तेरे चली आयी,

तूने जो पुकारा मुझे मैं तेरी गली आयी-२"

ईश्वर वाणी-१७०, मैने ही तुम्हे निम्न कार्यों के लिये चुना है

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों जो मेरे वचन सुनता है, उनका पालन करता है वो भीड़ मैं से मेरे द्वारा चुना गया है, यध्यपि तुम मुझे किसी भी रूप व नाम मैं मानते अथवा जानते होगे किंतु तुम्हारा मुझपर विश्वास मेरे ही द्वारा चुने तुम्हें जाने पर उत्पन्न हुआ है,

शैतान अर्थात बुराई तुम पर हावी होने लगती है, तुम्हें अनेक कष्ट व यातनायें मिलती हैं (हालाकी पिछले जन्मों के कारण वो मिलना स्वाभाविक है) ताकी तुम मुझपर से विश्वास खो कर शैतान अर्थात बुराई का मार्ग अपनाओ,

हे मनुष्यों जे मानव शैतान की परीक्छा मैं उत्तीर्ण हो मुझसे मुह नही फेरते वे मेरे द्वारा चुने लोग हैं किंतु जो लोग इस परिक्छा मैं घबराकर शैतान को चुनते है वह शैतान द्वारा ही चुने होते है,

किंतु ये भी सत्य है मेरा अर्थात ईश्वर का दूसरा रूप ही शैतान अथवा बुराई है किंतु मैं सदैव अपने ईश्वरीय नेक स्वरूप को ही तुम्हें चुनने को कहता हूँ, मैं नही चाहता कोई भी मेरे उस स्वरूप को अपनाये, किंतु एक सत्य ये भी है बिना बुराई के किसी भी व्यक्ति को अच्छाई का महत्व पता नही चल सकता इसलिये अच्छाई और बुराई अथवा ईश्वर और शैतान दोनो ही एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, कौन किस पहलू को चुन परमधाम मैं अथवा नरक मै जायेगा ये तय पहले ही चुका है,

हे मनुष्यों जो मेरी वाणी पर यकीन नही करेगा वह शैतान द्वारा चुना गया है और अंतत: नरक को प्रप्त होगा क्यौंकी उसने ईश्वर की बात पर असहमती जताई किंतु जो सहमत तो है लेकिन उनका पालन नही करते वह भी नरक ही भोगेंगे, किंतु जो मेरी वाणी सुनते एवं पालन करते है वह ही परधाम पहुँचेंगे,

हे मनुष्यों मेरी वाणी सभी के लिये है, तुममे से जाने कितने मुझ पर यकीं नही करेंगे, कुछ करेंगे पर पालन नही करेंगे और उनमेसे ही कुछ ऐसे होंगे जो मेरे वचन मेरी वाणी ध्यान से न सिर्फ सुनेंगे अथवा औंरों को भी इसे सुनने पालन करने की प्रेरर्णा देंगे, वो सब चुने जा चुक् है,

हे मनुष्यों ये मत सोचना तुमने मुझे चुना है, तुमने निम्न कार्य चुना है क्यौंकि तुम्हें और निम्न कार्यों हेतु तुम्हें चुना जा चुका है "

कल्याण हो

गीत- तुझे क्या बताऊँ

"तुझे क्या बताऊँ ऐ मेरे हमदम
किया है कितना प्यार तुझसे हरदम

भले तुझे फिकर नही मेरे जज्बात की
ना ही कदर की मेरी किसी बात की

है तेरी याद मैं आज भी ये अॉखे नम
किया है कितना प्यार तुझसे हरदम

बेवफाई पर तेरी रोते हैं दिन रात हम
क्योंं नसीब ने दिया मुझे बेवफा सनम

पर शिकवा नही किसी से कोई
ना ही कोई मुझे गिला है

वफा के बदले मिली बेवफाई
इन लकीरों मैं ही ये लिखा है

दिल तोड़ने वाले ने ही तोड़ी हर कसम
जान भी उसीने ली जिसे कहा जानम

उसे है पता बिन उसके मुझमैं कहॉ दम
आज वो नही पास मेरे तभी हाथ मैं है रम

काश लौट आ फिर मेरी बाहों मै जिन्दगी
भुला दुँगा तेरी  हर एक खता जो तूने की
तेरे बिन हूँ कितना तन्हा सुन मेरी शबनम


तुझे क्या बताऊँ ऐ मेरे हमदम
किया है कितना प्यार तुझसे हरदम

तुझे क्या बताऊँ ऐ मेरे हमदम
किया है कितना प्यार तुझसे हरदम"


Thursday 8 December 2016

कविता-दौड़ा चला आया

सारे बंधन तोड़ आया, दुनिया से मुह मोड़ आया
आया मैं आया तेरे पास दौड़ा चला आया,

तुझको ही मैंने अपना माना, सबको किया बेगाना,
हर रिश्ता छोड़ मै तेरे पास दौड़ा चला आया

जादू तेरे हुस्न का मुझपे कुछ ऐसे चला
भूला हर नाता और तेरे पास दौड़ा चला आया

मासूम तेरी अदा किया जिसने तुझे सबसे जुदा
तुझपे हो फिदा मैं तेरे पास दौड़ा चला आया

'मीठी' मुस्कान लबों पर तेरी करती दीवाना मुझे
'खुशी' के साथ मै पास तेरे दौड़ा चला आया

रोका बहुत मुझे जमाने ने, लिया बहुत हर्जाने मैं
दे अपनी जिंदगी मैं पास तेरे दौंड़ा चला आया

मिले जख्म नज़राने मैं, गम ही थे मेरे खज़ाने मै
लुटा वही खजा़ना मै पास तेरे दौंड़ा चला आया

सारे बंधन तोड़ आया, दुनिया से मुह मोड़ आया
आया मैं आया तेरे पास दौड़ा चला आया,

कविता-हवाओं मैं हो तुम

"इन  हवाऔं मैं हो  तुम,
इन  घटाऔं  मैं  हो  तुम
है   ये  अहसास  तुम्हारा
इन  फिज़ाऔं  मैं हो तुम,

मेरी  हर  बात मैं हो  तुम
हर  शुरूआत  मैं हो  तुम
हो जुदा कहॉ तुम  मुझसे
इन  जज़्बात  मैं  हो  तुम,

इन चहचाहटों  मैं हो  तुम
मेरी  हर आहटों  मैं हो तुम
दूर होकर भी तुम दूर कहॉ
'खुशी' की चाहत मैं हो तुम,

चॉद  की  चॉदनी  मैं हो तुम
मेरी  हर रवानगी  मैं हो  तुम
मौत भी जुदा कैसे करे  हमें
'मीठी' दीवानगी मैं हो तुम"

ईश्वर वाणी-१६९, आत्मा क्या है

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों जैसे मैने तुम्हें 'परमात्मा' का अर्थ बताया वैसे ही आज आत्मा का अर्थ ब॒ताता हूँ, वही आत्मा जिसके बिना ये देह केवल एक मिट्टी का पुतला है,

आत्मा जो प्रत्येक देह को जीवन प्रदान करती है, आ+त+म+आ अर्थात आत्मा,
आ= आदि
त=  तत्व
म=  मैं
आ= आदि, अनादी, अनंत,अदभुत, अंश, आवश्यक

अर्थात श्रष्टी को व समस्त जीवों को जीवन देने हेतु मैने ही अपने एक आदि अंश को तुम सभी जीवों मैं प्राण डालने हेतु भेजा, इसलिये न इसकी म्रत्यु होती है न कही आत्मा बिना देह के जन्म लेती है, येये आवश्यक आदी से तत्व यानी मुझसे निकल कर अनादी व अनंत काल तक रहती है और एक दिन पुन: मुझमैं मिल जाती है!!

हे मनुष्यों ये आत्मा जो प्रत्येक जीव मैं है वो मेरा ही एक अंश है किंतु मैं उनका अंश नही, मैं उनमैं हूँ पर वो मुझमैं नही, अर्थात जैसे तुम्हारे बालक तुम्हारा ही अंश हैं किंतु वो तुम्हारे माता पिता तो नही आखिर वो बालर ही रहे तुम्हारे, वैसे ही मैं उनमैं हूँ, कन कन मैं हूँ जैसे किसी बहुत बड़े घर का स्वामी, घर की प्रत्येक वस्तु उसकी, हर वस्तु पर उसका अधिकार किंतु वस्तुऔं का स्वामी पर कोई अधिकार नही,

हे मनुष्यों इस पूरी श्रष्टी और जीवन का स्वामी मैं ही हूँ, मेरी द्रष्टी मैं जिस देह त्याग को तुम म्रत्यु कह भय खाते हो ये तो एक प्रक्रिया है जैसे तुम वस्त्र बदलते हो आत्मा भी देह रूपी वस्त्र बदलती है, और धरती पर अपने कर्म पूर्ण कर मुझमैं मिल जाती है, मैं ईश्वर हूँ!!"

कल्याण हो

कविता

दूर नही बस दिल के पास हो तुम
मेरी 'खुशी' का हर अहसास हो तुम

सब कहते हैं तुम हो ही अब नही
पर 'मीठी' की हर सॉस हो तुम

जब चलती हवा छुए मझे जाती है
लगता है यही कही पास हो तुम

'मीठी' है अधूरी तुम्हारे बिना कितनी
'खुशी' का पल-पल अहसास हो तुम

इन नजा़रो मैं आज़ भी तुम दिखते हो
फिर उस मिलन की एक आस हो तुम

कहने वाले कुछ भी कहते रहें तेरे लिये
उन्हे क्या पता मेरे कितने खास हो तुम

जिन्दगी ने मिलाया मौत जुदा कैसे करेगी
क्या अब जिन्दा नही सिर्फ लाश हो तुम

दिल मैं रहता है जो धड़कन बनकर मेरे
इस जीवन लीला का हसीं वो रास हो तुम

मौत भी हार गयी हमारी मोहब्बत को देख
वही मिलन का जीता हुआ पत्ता ताश हो तुम




Monday 5 December 2016

ईश्वर वाणी-१६८, मैं ईश्वर हूँ

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुषयों यु तो मैं अजन्मा, अनंनत, अविनाशी हूँ, मैं पावन जल से भी अधिक निर्मल, वायु से भी अधिक पारदर्शी, एक पौधे के सूखे हुये पत्ते से भी हल्का हूँ!!

मैं आकाश से भी अनंनत, सागर से गहरा, तारों से भी चमकीला, अंधेरे से भी गहरा हूँ!!
मैं ही जगत को बनाने वाला, जीवो को बनाने व जीवन देने वाला हूँ, मै ही श्रष्टी हूँ और श्रष्टी की प्रथम रचना मैं ही हूँ मै ही आत्माऔं मैं परम हूँ, जीवो मैं शक्ती मैं सर्व हूँ, आकारों मैं निराकार हूँ, ग्यानियों मै 'महा' हूँ, प्राणियों मै 'श्रेष्ट' हूँ, दिशाऔं मै 'केन्द्र' हूँ, जीवो मैं 'जीवन' हूँ, ऊँचाई मैं 'गगन' और गहराई मैं 'सागर' हूँ, सखों मैं 'संतुष्टी' मैं ही हूँ मैं परमात्मा!!

आज साधारण शब्दों में तुम्हे इसका अर्थ बताता हूँ,

प+र+म= परम
आ+त-म+आ= परमात्मा

प= प्रथम
र= रचना
म= मैं

आ= आदि
त= तत्व
म= मैं
आ= आदी, अनंनत, अजन्मा, अवनाशी, अतिआवश्यक

हे मनुष्यों मै ही श्रष्टी का प्रथम तत्व हूँ, मैने ही श्रष्टी निर्माण किया है जीवो को उत्पन्न किया है, ये सब मुझसे निकल कर मुझमें ही विलीन हो जाते है जैसे सागर के जल से वाष्प बूँद बन जल पुन: सागर मैं गिर उसमैं मिल जाता है,

मैं ही शून्य हूँ जिसका कोई छोर नही होता, जो जहॉ से शुरु वहॉ खत्म होता है, जो कुछ न होकर भी खुद में पूर्ण हूँ, मैं ही सत्य हूँ, मैं ही जीवन हूँ मैं ईश्वर हूँ!!"

कल्याण हो


ईश्वर वाणी१६७, जन्मों के कर्म व जीवन

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों मैं तुम्हें सतयुग मैं जैसी आत्माये प्रवेश करेंगी उनके विषय मै बता चुका हूँ किंतु आज तुम्हें उन मनुष्यों के विषय मैं बताता हूँ जौ कलियुग मै घोर पाप कर्मों मैं लग कर मानव जीवन नष्ट करमद हे है, साथ ही मैं बताता हूँ उन मनुष्यों के विषय मैं जो सतयुग मैं मानव जन्म ले चुके हैं एवं आने वाले युगों मैं वो क्या भूमिका निभाते है साथ ही वह आत्मायें जो सतयुग मैं मानव रूप मैं नही थी आने वाले युग मैं क्या भूमिका निभाती हैं!!

हे मनुष्यों जो व्यक्ति सतयुग मै मानव जीवन प्राप्त कर चुके है वह ही आने वाले युग मैं सच्चे साधु, संत व सन्यासी बन जगत व प्राणी जाति के कल्याण मैं योगदान देते है (जैसे स्वामी विवेकानंद), ऐसे ही व्यक्ति अंतत: मोछ प्राप्त कर निश्चित समय बाद मुझमें ही मिल जाते है एवं जब मै फिर श्रष्टी का निर्माण कर युग प्रथा का चलन प्रारम्भ करता हूँ वे ही आत्मायें पुन: सतयुग मैं मानव जीवन पाते हैं!/

कितु जो आत्माये सतयुग मैं मानव जीवन प्राप्त नही कर पायी वह अन्य युग मैं मानव जीवन प्राप्त करते हैं, केवल यही आत्मायें ही सच्चे साधु, संत व संयासीयों का सानिध्य पा कर नेक कर्म करके सतयुग मैं अपना श्रेष्ट स्थान सुनिश्चित करते है, इनके कर्म ही उस युग क्या जीवन पायेंगे ये तय करते है!!

किंतु जो मनुष्य केवल पाप कर्म और स्वार्थ सिध्धी मैं निहित रहते हैं वह मानव जीवन के पुन्यों का नाश कर युगों तक विभिन्न जन्म प्राप्त कर दुख भोगते हैं, इन्हें मानव जीवन अपने पिछले कर्मों का प्रायश्चित कर सतयुग मैं तथा स्वर्ग मैं स्थान प्राप्त करने हेतु मिलता है किंतु इस बात को भुला कर शक्ति के मद मैं आकर अपने पुण्यों को नष्ट कर सदा जन्म जनमातंर के फेर मैं घूमते हुये दुख पाते हैं!!

किंतु प्रलय युग मै् मानव के अतिरिक्त जो भी जीव जंतु है निश्चित काल के बाद मानव जीवन मै प्रवेश पायेगे, और जो आज मानव है अपने बुरे कर्मो के अनुसार अन्य जीव जंतु का जीवन पायेंगे!!

हे मनुष्यों यु तो सारी श्रष्टी और सभी जीवों को जीवन मैं ही देता हूँ इसलिय कोई कम या अधिक मेरे समछ नही जैसे  तुम्हारी संतान जो बहुत तेज तर्रार है तो दुसरी मंद बुध्धी किंतु जब प्रेम की बात आती रै तो तुम दोनों से समान करते हो लेकिन मंद बुध्धी बालक के साथ अधिक समय बिताते हो क्यौकि उसे तुम्हारी आवश्यकता अधिक होती है,

वैसे ही मैं तुम्हारे साथ तब हूँ जब तुम मुझे पुकारते हो किंतु पशु-पछियों के साथ सदा हूँ, किंतु मनुष्यों तुम्हें मैने जगत व इन प्राणियों के कल्याण हेतु भेजा है ताकि मेरी बनायी रचना की उचित देख रेख कर तुम खुद भी उध्धार पाओ!!"

कल्याण हो


Saturday 3 December 2016

ईश्वर वाणी-१६६, भौतिक व ईश्वरीय स्वर्ग व नरक

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों  यध्यपि मैं तुम्हें पहले ही स्वर्ग व परमधाम के विषय मैं बता चुका हूँ किंतु आज तुम्हे अपने भोतिक शरीर मैं प्राप्त स्वर्ग व आत्मा द्वारा प्राप्त स्वर्ग व नरक के विषय मैं बताता हूँ,

हे मनुष्यों तुम्हारे भोतिक शरीर द्वारा प्राप्त सभी सुख, तुम्हारी सफलता व संतुष्टी ही भोतिक देह द्वारा प्राप्त धरती पर स्वर्गीय सुख है जो तुम्हैं सभी भौतिक सुख की सुखद अनुभूती देता है!!

इसके विपरीत तुम्हारे दुख, भोतिक सुख का अभाव, असंतुष्टी, संघर्ष, निराशा, हताषा, असफलता, क्लेश धरती पर ही प्रप्त नरक है, जो तुम्हैं पिछले जन्मों के कर्मों से मिला है, किंतु मानव जीवन मिला ताकी तुम अपने पिछले जन्मों के पापों का प्रायश्चित कर स्वर्ग प्राप्त कर सको जहॉ का सख वैभव धरती के सुख वैभव अनंतगुना अधिक है,

हे मनुष्यों यदि प्रथवी पर सभी दुख झेल कर भी सदा मेरे बताये मार्ग पर चलते है, गलत मार्ग नही चुनते, ईश्वर पर आस्था रखते हुये पाप कर्मों से भय खाते हुये उनसे दूर रहते हैं वही उस स्वर्ग को प्राप्त करते है,

हे मनुष्यों सच्चे मन से मेरी उपासना करने वाला, सदैव दूसरों से अपने समान प्रेम करने वाला, जरूरतमंदों की निस्वार्थ सहायता करने वाला ही परमधाम मैं प्रवेश पाता है, परमधाम स्वं मै ही हुँ, मुझमें लीन व्यक्ती युगों तक जन्म नही लेता, किंतु स्वर्गीय आत्मा फिर निश्चित काल के बाद जन्म लेते हैं जो उच्च व श्रेष्ट जीवन जी कर समाज व प्राणी जाती का कल्याण करते हैं!!

हे मनुष्यों जो आत्मा परमधाम यानी मुझमें लीन हो जाते है वह आदी सतयुग व सतयुग मैं पुन: जन्म लेते हैं और धरती को अपने श्रेष्ट गुणों से ईश्वीय व पावन बना देते हैं,तभी आदी सतयुग को व सतयुग को ईश्वरीय युग कहा जाता है तथा उस युग मैं भगवान रहने की बात कही गयी है,

अर्थात मानव मै इतने श्रेष्ट गुण होते हैं की उन्हें भगवान का स्थान प्रापत है, मानवों इसलिये अपने कर्म ऐसे बनाओ जो उस युग मैं प्रवेश पा सको,

हे मनुष्यों बुरे कर्म के कुछ व्यक्ति भी उस युग मैं प्रवेश पायेंगे जिन्होंने पिछले जीवन अथवा इस जीवन मैं जाने अनजाने कोई श्रेष्ट कर्म किया होगा, किंतु वह मानव नही अन्य जीव-जंतु के रूप मै ही तब वहॉ जीवन पायेंगे, इसलिय अपने कर्म सुधार कर उस युग मैं अपने लिये स्थान सुनिशचित करो जिसे दैविय युग भी कहा है"

कल्याण हो