Tuesday 27 December 2016

कविता-जीवन की इन राहों पर मैं नित नित बड़ते जाता हूँ



"जीवन की इन राहों पर मैं नित नित बड़ते जाता हूँ
संघर्षों से घिरा हुआ था आज़ अपनी कथा सुनाता हूँ

मंजिलों से दूर कही मैं भटक रहा था इन सूनी राहों मै
बिखर कर फिर बना हूँ आज अपनी बात बताता हूँ

ना कोई साथी था साथ मेरे ना ही था कोई हमराही
अकेले बड़ जो जीत लिया जग खुशी अपनी जताता हूँ

रूलाया सताया बहुत जहॉ ने था मुझे कभी इस कदर
पर आज़ हसाके सबको ना किसी को रुलाता हूँ

कहते थे ज़माने वाले मैं हूँ नही किसी काबिल यहॉ
फलक का तारा बन आज मैं अपने ही गीत गाता हूँ

रहा कितना तन्हा और अकेला इस महफिल मैं
दुख अपना पी कर सदा मैं युंही तो मुस्कुराता हूँ

मिले जो धोखे ज़माने से मुझे और लगी जो ठोकरे
आज़ जीत कर आसमान उन्हें ये जिन्दगी दिखाता हूँ

छोड़ गये थे साथ जो मेरा मज़लूम मुझे बताकर
दिखा अपने लबों पर हसी आज़ उन्हें मैं जलाता हूँ


जीवन की इन राहों पर मैं नित नित बड़ते जाता हूँ
संघर्षों  से घिरा हुआ था आज़ अपनी कथा सुनाता हूँ-२"

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