Monday 19 October 2020

ईश्वर वाणी-293 आखिर कौन है परमात्मा

 ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यद्धपि मैं ईश्वर हूँ, सृष्टि का असली मालिक हूँ किँतु इसकी रचना और संचालन हेतु मैंने ही विभिन्न रूपों का निर्माण किया। हालाकिं इसके विषय मे पहले भी बता चुका हूँ किँतु कुछ संछिप्त जानकारी आज तुमको देता हूँ।

मैंने ही संसार में 'परमात्मा' आर्थात संसार का प्रथम तत्व को उतपन्न किया, परमात्मा ही ऊर्जा है, शक्ति है और उसी के कारण अनेक देव, दानव व मानवो का निर्माण हुआ, अनेक लोको का निर्माण भी इसी ऊर्जा के निम्न माध्यमो द्वारा ही हुआ।

संसार मे जितने भी ग्रह नक्षत्र और भैतिक देह धारी जीव है उनमें ऊर्जा रूप में परमात्मा एक अंश उनकी आत्मा रहती है जो उनके भौतिक शरीर को वैसे ही चलाती और जीवन देती है जैसे सम्पूर्ण श्रष्टि को परमात्मा ऊर्जा देते हैं ।

हे मनुष्यों यद्धपि प्रलय काल के विषय मे तुमने सुना होगा, निःसंदेह ये सारी श्रष्टि व समस्त लोक जिसमे त्रि लोक भी शामिल है नष्ट हो जायँगे और परमात्मा में मिल जायँगे। हे मनुष्यों वो परमात्मा में इसलिए मिल जायँगे क्योंकि उन्हें फिरसे निश्चित समय बाद जन्म लेना होता है, यद्धपि परमात्मा को भी यदि मे चाहू तो खुद में विलीन कर लूं किंतु मैं ऐसा नहीं करता क्योंकि ऐसा करने से संसार मे फिरसे सिर्फ शून्य रह जायेगा इसलिए मैं परमात्मा अर्थात मेरे द्वारा निर्मित प्रथम तत्व को मैं नष्ट नही करता ताकि निश्चित समय बाद संसार की उत्पत्ति युही होती रहे।

हे मनुष्यों इस श्रष्टि के अतिरिक्त जो 7 अन्य श्रिष्टिया है उनको बनाने और ध्वस्त करने हेतु भी परमात्मा को ही मैंने अधिकार दिए हैं और दुबारा वही पुनःनिर्माण करते हैं।

हे मनुष्यों तुम मेरा रूप नही देख सकते न जान सकते इसलिए मैंने परमात्मा को बनाया और उसने अनेक रूपो को जन्म दिया और तुम्हे जन्म दिया और तुमने परमात्मा को अपने देश, काल व परिस्थिति के अनुरूप नाम दे दिया, किँतु तुम कभी वास्तविक रूप से मुझे इस भौतिक स्वरूप के माध्यम से नही जान सकते, यदि मुझे जानना है तो मेरे समस्त रूपो को समझो, खुद को समझो, तुमने यदि खुदको समझ लिया, मेरे सभी भौतिक अभौतिक स्वरूप को समझ लिया तो निश्चित ही मुझे जान लोगे और हर तरह के वहम से खुद को दूर रखोगे।"

कल्याण हो

Saturday 17 October 2020

ईश्वर वाणी-292 आध्यात्म में अंक 7 का महत्व

 ईश्वर कहते है, "हे मनुष्यों यद्धपि तुमने मेरे विषय में सुना है, पड़ा है किँतु जानते भी हो कि आखिर में रहता कहाँ हूँ, आखिर मेरा अस्तित्व क्या है हालांकि इस विषय मे पहले भी बता चुका हूँ किंतु आज फिर तुम्हें बताता हूँ।

हे मनुष्यों में निराकार हूँ, मै एक महासगर की भांति हूँ जिसमे अनेक नदिया समाई होती है वैसे ही मुझमे समस्त श्रष्टि व उनके जीव व समस्त जीवात्मा व उनकी मान्यता समाई हुई है।

मैं ही शुरुआत और अंत हूँ, एक ऊर्जा रूप में निरन्तर कार्य करता रहता हूँ किंतु श्रष्टि के निर्माण और संचालन हेतु ही मैंने विशेष कार्य करने के लिए त्रि-देव व देवियो की रचना की, उन्होंने देवता, दानव, मानव, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, अप्सराओ, इंद्र, सप्त ऋषियों, ग्रह नक्षत्र, विभन्न लोकों की रचनाएं की, व प्रत्येक को उसके कार्य सौंपे।

हे मनुष्यों यद्धपि ये पूरी श्रष्टि मुझसे ही संचालित है किँतु मैंने अपने निम्न रूपों को इसके संचालन का कार्य सौंपा है, और मेरे ही ये रूप निश्चित समय बाद अपने अपने लोकों के साथ मुझमे ही विलीन हो जाते हैं।
हे मनुष्यों यद्धपि मैं चाहता तो स्वयं ही समस्त श्रष्टि व जीवों की उत्पत्ति व समाज की रचना कर सकता था किँतु मैंने ऐसा नही किया क्योंकि यदि ऐसा करता तो आने वाले युगों में मानव समुदाय का विश्वास मुझसे उठ जाता यद्धपि सतयुग एक ऐसा युग था इस धरती पर जब मेरे अस्तित्व पर कभी किसी जीव ने शंका नही की, और इसी युग से सभ्यताओं के निर्माण शुरू हुआ किंतु मानव बुद्धि परिवर्तन में यकीन रखती है और उसको साक्ष्य चाहिए, इन्ही साक्ष्यों के लिए विभिन्न वेद-पुराण, ग्रंथ व उनकी कथाओ का निर्माण व उन कथाओ को देश, काल, परिस्थितियों अनुसार मुझे सत्य करना पड़ा।

आज मनुष्य मुझे किसी विशेष नाम और रूप में बांधने का प्रयास करता है किंतु नादान नही जानता कि जो खुद सर्वव्यापक है वो किसी 1 नाम और रूप का मोहताज नही किंतु यदि तुम्हारी आस्था सत्य है तो मै अवश्य वो बन जाता हूँ।

अक्सर तुमने स्वर्ग के विषय मे सुना होगा, निम्न मान्यता के अनुसार ये कहा गया है कि मै स्वर्ग में रहता हूँ जो सातवे आसमाँ के बाद आता है, आज इस सत्य से पर्दा हटाता हूँ।

क्या है सातवे आसमां का चक्कर आखिर है क्या ये?/
स्वर्ग तक केवल वही मनुष्य पहुचता है जिसने अपने कर्म अच्छे रखे इस मृत्यु लोक में, इसलिए मेरे अंशो ने जब धरती के विभिन्न स्थलों पर देश, काल, परिस्तिथि अनुसार जन्म लिया तो कहा जीवन एक बार ही मिलता है इसलिए इसको पाप कर्मों में न लगाओ बल्कि मेरी भक्ति में लगाओ, ऐसा इसलिए भी कहा क्योंकि मानव जीवन युगों में से जीवात्मा को मिलता है जिसको वो सांसारिक भोगो व स्वार्थ सिद्धि में बिता देता है फिर युगों तक भटकता रहता है निम्न योनियो मैं।

आज बताता हूँ सभी मान्यताओ में मान्य स्वर्ग आखिर है कहाँ??
7 लोक 

1- मृत्यु लोक
2- पाताल लोक
3-  यम लोक
4 -गंधर्व लोक
5 - यक्ष लोक
6 -पित्र लोक
7 - देव लोक

और फिर स्वर्ग। यद्धपि संसार मे 7 और 1 अंक बड़ा महत्व है।
ऐसे समझ सकतो को 
विवाह के फेरे 7
वचन             7
समंदर।          7
इंद्र धनुष के रंग 7
जन्म               7
लोक                7
सप्ताह के दिन    7
ऋषि।                7(सप्त ऋषि)

इस श्रष्टि के अतिरिक्त जो श्रष्टीय है वो भी 7 है साथ ही हर जीव अपने भौतिक स्वरूप में 7 बार ही जन्म लेता है।

अब बताता हूँ अंक 1 के विषय मे, ईश्वर अर्थात में 
1, मेरे जितने भी स्वरूप हुए देश काल परिस्थितियों के अनुरूप हुए वो भी 1 समय पर 1 ही हुए, मैं देता हूँ सबको 1 होने की शिक्षा, तुमसे क्या चाहता हूँ सर्फ 1 सच्ची  निष्ठा, मृत्यु उपरांत हर जीवात्मा सब भेद मिटा कर हो जाती है 1, इसलिए इस 1 अंक का बड़ा महत्व है।
निःसंदेह जो मनुष्य भले जीवनकाल में कितना पापी रहा है, किँतु मृत्यु के समय मेरा स्मरण करता है अथवा मेरे जिस रूप में निष्ठा रखता है उसको प्राप्त होता है किंतु फिर उसको उसके कर्म अनुसार जन्म लेना ही होता है उदाहरण- रावण, मेरा परम सेवक होने पर भी उसको राक्षस योनि में जन्म लेना पड़ा, इसी प्रकार हर जीवात्मा को जन्म तो लेना ही पड़ता है भले मेरे किसी भी रूप अथवा लोक की उसको प्राप्ति हो क्योंकि मेरे सभी रूप व लोक नाशवान है और अंत मे मुझमे ही वो विलीन हो जाते हैं अर्थात शून्य हो जाते हैं, क्योंकि भले शून्य का महत्व तुम न समझो पर शून्य खुद में 1 पूर्ण अंक है, शून्य ही शुरआत है शून्य ही अंत है क्योंकि शून्य मैं हूँ।


हे मनुष्यों आशा है कि तुम्हे मेरे दिव्य वचन व वाणी समझ आयी होंगी यदि जिन्हें नही आई उनपर मेरी कृपा नही हुई, इसलिए किसी अज्ञानी के लिए ये वाणिया नही है, जिनके लिए है उन्हें स्वयं प्राप्त होंगी।"

कल्याण हो
 


Friday 16 October 2020

ईश्वर वाणी-291, सबकुछ मैं ही हूँ

 ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यद्धपि इस संसार में सबकुच मेरी ही इच्छा से होता है, मेरी इच्छा के बिना कुछ भी सम्भव नही है।

मैं ही सत्य हूँ मैं ही असत्य हूँ, मैं ही आज हूँ, मैं ही आने वाला व पिछला कल हूँ।

मैं ही तुम हूँ, मैं ही तुम्हारा मित्र, भाई, बहन, माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी व सभी नातेदार हूँ, मैं ही तुम्हारा पड़ोसी व मैं ही तुम्हारा शत्रु भी हूँ।

मै ही पुण्य हूँ, मैं ही पाप हूँ, मैं ही दुराचारी रावण व राम भी मै ही हूँ।

हे मनुष्यों मैं ही समस्त जीवों में प्राणशक्ति रूप में जीवात्मा बन कर, तुम्हारी शक्ति बन कर तुम्हारे अंदर हूँ।
मैं ही पथभ्रष्ठ हूँ व मैं ही मोक्ष हूँ। तुम यदि मुझे देखना चाहते हो तो हर जीव व समस्त प्रकृति में मेरी मौजूदगी को देखो और महसूस करो, यदि तुम ऐसा करते हो तो निश्चित रूप से अज्ञान का अंधकार तुम्हारे भीतर से चला जायेगा किन्तु यदि नही जाता तो कोई बात नही क्योंकि मैं ही ज्ञान हूँ मैं ही अज्ञान भी हूँ, इसलिए जब तक मेरी इच्छा नही होगी तुम मेरे वास्तविक रूप को नही जान सकते और युगों तक अज्ञान के अंधकार में रह जन्म-मरण के चक्र में उलझे रहोगे क्योंकि सब कुछ मुझसे है, सबकुच मुझमे है और सबकुच मैं ही हूँ।"

कल्याण हो


ईश्वर वाणी-290 अकाल मृत्यु व स्वाभाविक मृत्यु में भेद

 ईश्वर वाणी- अकाल मृत्यु व स्वाभाविक मृत्यु में अंतर



ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यद्धपि सुना और देखा है कई मृतक जीवों को, तुमने सुना भी होगा कि अगर कोई बालक या युवा जब उसकी मृत्यु होती है तो कहते हैं लोग की इसकी अकाल मृत्यु हुई है, शास्त्रों में भी अकाल मृत्यु के विषय मे लिखा है जहाँ वही ये भी लिखा है कि जन्म के समय से ही तय है कि किसकी मृत्यु कब और कैसे होगी फिर अकाल मृत्यु कैसे हुई क्योंकि सब कुछ तो पहले ही लिखा जा चुका है।



  किँतु आज तुम्हें बताता हूँ कि अकाल मृत्यु और स्वाभाविक मृत्यु में क्या भेद है, आखिर क्यों किसी की मृत्यु को अकाल कहा जाता है जबकि सबकुछ पहले से तय है।



  हे मनुष्यों ये आवश्यक नही की केवल किसी शिशु, बालक या युवा की मृत्यु हुई है तो केवल वही अकाल है, क्योंकि निश्चित समय से पहले हुई किसी की भी मृत्यु अकाल ही होती है यद्धपि तुम फिर कहोगे की अकाल कैसे हुई क्योंकि सबकुच पहले से ही तय था।



  हे मनुष्यों अकाल मृत्यु वो होती है जिसको समय रहते टाला जा सकता है, अर्थात कुछ न कुछ संकेत प्रकति के माध्यम से तुम्हें अवश्य मिलते हैं जिन्हें अगर तुमने समझा तो तुम किसी का जीवन बचा सकते हो जैसे-यदि कोई व्यक्ति बीमार है और इलाज नही करा रहा जबकि उसकी बीमारी ठीक होने वाली है कोई असाध्य रोग उसको नही है, किंतु वो अपना इलाज नही कराता और हर दिन उसकी दशा और खराब होती जाती है फिर एक दिन उसकी बीमारी असाध्य बन जाती है और फिर वही उसकी मौत की वजह बनती है, इस प्रकार की मृत्यु ही अकाल होती है।



  कोई व्यक्ति किसी की हत्या करने का प्रयास करता है और प्रहार करता है, घायल व्यक्ति को उपचार हेतु चिकित्सक के पास ले जाया जा सकता था जिससे उसके जीवन की रक्षा होती किँतु ऐसा नही हुआ तो ये हुई अकाल मृत्यु।



  किसी व्यक्ति के साथ कोई दुर्घटना घटी, व्यक्ति घायल हुए, ऐसे में उसको सही चिकित्सा मिले तो ठीक हो जाये पर लोग सिर्फ उसके मरने का तमाशा देखते हैं ऐसे मृत्यु अकाल कहलाती है।



  यदि कोई आत्महत्या, काला जादू, टोना-टोटका व नकारात्मक शक्तियों के माध्यम से किसी की हत्या करता है तो ऐसी मौत अकाल कहलाती है क्योंकि इन्हें सही समय पर टाला जा सकता था और मेरे द्वारा कुछ संकेत दिए भी जाते हैं कि इसकी अकाल मौत होने वाली है इसकी रक्षा करो पर लोग इस पर ध्यान नही देते।



इस प्रकार जिस भी तरह से मृत्यु हुई है जाना जा सकता है वो अकाल है या नही।



वही यदि स्वाभाविक मृत्यु होगी तो सबसे पहले उम्र आती है, यदि व्यक्ति की उमर काफी हो चुकी है तो देह का त्यागना स्वाभाविक है।



  वही यदि कोई गंभीर बीमारी है जो काफी समय से चल रही थी, इलाज़ के बाद भी तबियत न सुधर रही हो तो ये भी 1 स्वाभाविक मृत्यु होती है।



  वही यदि किसी की मृत्यु किसी के माध्यम से होना लिखा है और इसको टाला नही जा सकता तो कोई न कोई कारण ऐसे जरूर बनेंगे की व्यक्ति उपचार से पूर्व ही अर्थात बेहतर उपचार के बावजूद उसकी जान नही बच पायेगी।



किसी हादसे अथवा किसी के द्वारा हत्या होने अगर लिखा है तब भी कोई न कोई वजह ऐसी जरूर बनेंगी की हर तरह की कोशिश के बाद भी नही उसको बचा सकते, अर्थात उनकी मौत को टालने की लाख कोशिश करो पर नही उनकी जान बच सकती।



बहुत ही बारीक भेद है स्वाभाविक मृत्यु और अकाल मृत्यु का, किँतु यदि ये समझ लिया तो तुम्हे पता चल जाएगा कि उक्त व्यक्ति की मृत्यु किस प्रकार है फिर उसकी अगली यात्रा हेतु वैसे ही प्राथना करो जिससे उक्त व्यक्तिवकी आत्मा को शांति मिले"



कल्याण हो