Monday 30 January 2017

कविता

"सब कुछ मिलता है बस एक सच्चा यार यहाँ नही मिलता
मिल जाता है सब कुछ पर सच्चा प्यार यहाँ नही मिलता

कदम कदम पर नित मिलते है हमराही इन रास्तो पर यहाँ
उमर भर साथ निभाए ऐसा वो दिलदार यहाँ नही मिलता

हमसफर हमनशीं कहने वाले बहुत है लोग यहाँ जगत में
इश्क़ को पूजता हो रब की जगह वो दमदार नही मिलता

झुक जाये जहा आसमान भी जिसकी देख कर ये आशिकी
दुनिया में ऐसा कोई शख्स मुझे यहाँ असरदार नही मिलता

महफिले तो मोहब्बत की सजती हर दिन मिल जाती है यहाँ
बिन कामना के मोहब्बत का हसीं वो संसार यहाँ नही मिलता

सब कुछ मिलता है बस एक सच्चा यार यहाँ नही मिलता
मिल जाता है सब कुछ पर सच्चा प्यार यहाँ नही मिलता"

Sunday 29 January 2017

ईश्वर वाणी-१९०,जन्म जनम


ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों जैसे किसी भी
जीव का जन्म उसके पिछले जन्म
के कर्म अनुसार होता है वैसे ही उसके कर्म
ही तय करते है देह त्यागने के
बाद उसे क्या बनना है।
हे मनुष्यों जिसे तुम मृत्यु समझ अंत मान लेते हो ये मृत्यु
नही अपितु ये
तो एक नया जन्म है।
जीव जब भौतिक देह धारी होता है, वो जैसे
कर्म करता है वैसे ही देह
त्यागने के बाद उसे क्या बनना है उसके भौतिक देह पर निर्भर है।
इसके साथ ही समस्त ग्रहो की दशा भौतिक
देह और जीवन पर प्रभाव डालती है
वैसे ही उस जीवन पर भी प्रभाव
डालती है, कर्मो के अनुसार ग्रहो की दशा तय
करती है कोन क्या बनेगा।
हे मनुष्यों कर्म व् गृह-नक्षत्र ये तय करते हैं की
भौतिक देह त्यागने
वाली आत्मा क्या और कौन बनेगी, अर्थात
पुण्य कर्म और श्रेष्ट नक्षत्र
धारी उदार हृदय धारी पित्र लोक जा कर सुख
की भागी बनती है। वही
अनेक बुरे9
कर्म वाली आत्मा भूत, पिशाच, प्रेत

सदगुरु श्री अर्चना जी के सच्चे आत्मिक प्रेम पर विचार

"मित्रों मैंने अक्सर देखा है लोग प्रेम शक्ल-सूरत, आयु, धन-दौलत,
रूप-रंग देख कर अर्थात जो भौतिक और नाशवान है उसे देख कर
ही करते है।
ऐसा प्रेम कभी भी आत्मिक न हो कर भौतिक
रह जाता है, और जो भौतिक है वो तो नष्ट होगा ही,
फलस्वरूप रिश्ते टूटने लगते है, कभी कभी
टूटते नही लेकिन ज़िन्दगी भर बोझ
की तरह ढोने लगते है।
यदि प्रेम को आत्मिक रूप से किया जाता, मन की आँखों से
दोनों प्रेमियो ने एक दूसरे को देखा होता, चाहा होता तो रिश्तों में कटुता
कभी नहीं आती न ही ये
रिश्ता टूट कर बिखरता।
धन-धन्य, शक्ल-सूरत, आयु, अमीरी-
गरीबी, रंग-रूप तो बाहरी है, मिटने
वाला है, आयु भी भौतिक देह की लोग आंकते
है, अगर आत्मा से प्रेम करोगे तब अहसास होगा की
दोनों प्रेमियो की असल आयु क्या है, आत्मा जो युगों से है
और आगे भी रहेगी वही
उसकी आयु है।
रूप रंग जो आत्मा का है वही सत्य है, जो शक्ल सूरत
आकर आत्मा का है वही सत्य है, बाकी तो
मिटटी का पुतला है जो मिटटी में ही
एक दिन मिलने वाला है।
इसलिए जो माया अर्थात नाशवान और धोखा है प्रेम उससे न करे,
आत्मा से करे, आत्मिक प्रेम से और क्या लाभ है ये तुम्हे इसे
करके ही पता चलेगा।"
कल्याण हो

Friday 27 January 2017

एक सच्ची कहानी



एक बहुत बड़े खगोलविद थे, भगवन पर बड़ी  आस्था थी, पर उनके एक परम मित्र थे जो कि पूरी तरह नास्तिक थे, अक्सर दोनो के बीच इस बात पर बहस हो जाती थी, खहगोलविद् कहते भागवान है जिन्होंने पूरी श्रष्टि बनाई है, किन्तु उनके मित्र खहते भगवान नही है, सब अपने आप बन गया अचानक।

इक दिन खगलविद् ने अपने मित्र को सबक सिखाने की सोची, एक दिन जब उनके वह दोस्त उनके घर से गये तो एक बड़ा से ग्लोब बनवाया, कुछ दिन बाद जब वह दोस्त उनसे मिलने उनके घर गया और ग्लोब देखा तो पूछा ये पहले तो नही था, ये कब बनवा लिया, इस पर खगोलविद ने कहा ये अपने आप बन गया मैंने नही बनवाया, उनके दोस्त बोले अपने आप कैसे बन सकता है मज़ाक छोडो सच बताओ, इस पर खगोलविद बोले ये सच है ये ग्लोब मैंने ही बनवाया है,अपने आप नही बना, सोचो पूरा ब्रमांड अपने आप कैसे बना होगा, इसे बनाने वाला जो है वो परमेश्वर है।

खगोलविद की बात उनके दोस्त को समझ आ गयी, और वो नास्तिक नही आस्तिक बन गये।

मुक्तक

मिलता नही यहाँ यूँ कुछ भी आसानी से
खो जाता है सब कुछ बस एक नादानी से
अपना कहने वाले मिलते बहुत हे लोग यहाँ
ज़ख्म गहरा वही दे जाते है अपनी बेमानी से

Thursday 26 January 2017

ईश्वर वाणी-१८९, ब्रह्माण्ड

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों संसार बनाने के लिए उसे
चलाने एवम् विनाश
करने (ताकि पुनः उसे बनाया जा सके) मैंने त्रिदेवोल
को भेजा, ब्रम्हा ने
विशाल अंडे नुमा आकर की रचना की, ये बिलकुल
उसी प्रकार था जैसे एक थैला
तुम लेते हो और उसमे जो तुम्हारी आवश्यकता है उसमे
डालते जाते हो, फिर सब
कुछ डालने के बाद देखते हो सब डाला है या नहीं,
निश्चित समय बाद सब
निकलते हो वो सब वस्तु जो तुमने डाली थी।
ब्रम्हा जी ने भी वही किया, इस विशाल अंडे के
आकर के अंदर जो उन्हें
अच्छा लगा सब दाल दिया, फिर निश्चित समय बाद
एक भयानक विष्फोट हुआ, और उस
विशाल अंडे से समस्त ब्रमांड का अविष्कार, तभी
पृथ्वी सहित सभी गृह अंडे
के आकर के है एवम् सभी गृह अंडे व्यास के अनुसार ही
अंतरिक्ष में भ्रमड
करते है।
हे मनुष्यों अभी तक तुमने यही सुना होगा की
अंतरिक्ष निराकार है किन्तु
आज तुम्हे बताता हूँ ये निराकार नहीं अपितु
अंडाकार है।
जिस प्रकार विशाल सागर में ज़हाज़ निश्चित दुरी
और निर्धारित जल सीमा को
ध्यान में रख कर सागर में घूमते है, वेसे ही आकाश में
सभी गृह उस विशाल
अंडे रुपी सागर में विचरण करते है।
हे मनुष्यों विशाल ब्रमांड की रचना जिस विशाल
अंडे से हुई वही प्रक्रिया
समस्त जीव-जन्तु, पेड़-पोधे की भी है, जीवन की प्रथम
क्रिया अथवा जीवन का
प्रथम चरण अंडा ही है।
अंडा जिसे ध्यान से देखो एक ज्योति अर्थात बिंदु
जैसा आकर नज़र आता है, ये
बिंदु उस विशाल शून्य से निकल आता है, भाव यही है
ब्रह्माण्ड भी जो भले
अंडाकार अथवा विशाल अंडा ही क्यों न हो शून्य से
ही इसका निर्माण हुआ है,
शून्य अर्थात कुछ नहीं किन्तु कुछ न हो कर भी सब
कुछ।
ऐसा ही अंडा जो कहने को कुछ नही पर एक जीवन
देता है जो इससे पहले नही था।
हे मनुष्यों इसलिए ब्रमांड अर्थात ब्रह्या का बनाया
सबसे पहला जीवन और
जीवन योग्य वस्तुओं को देने वाला अंडा।
हे मनुष्यों देश, काल परिस्तिथि के अनुसार तुम ब्रम्हा
पर यकीन करो न करो
पर उस विशाल अंडे पर यकीन अवश्य करना जो ब्रमांड
का जनक है।"

  • कल्याण हो

गीत-फलक से एक तारा


फलक से एक तारा आज टूट गया
आज फिर हमराही मेरा रूठ गया

अपना बना पलको पर बैठाया जिसको
आज वही क्यों ऐसे हमसे दूर गया

फलक से एक तारा आज...............

सपनो की दुनिया से लाये थे उसे हम यहाँ
सारे सपने मेरे वो ऐसे क्यों वो तोड़ गया

पल पल जो दिल में रहा,
हर पल जिसे अपना कहा

दिल को खिलौना समझ खेल गया
आज फिर हमराही मुझसे रूठ गया

बहुत की कोशिश उसे मानाने की
फिर कोशिश करी उसे करीब लाने की

पर वो रूठे ऐसे की हम मना न सके
वो दूर गए ऐसे करीब की आ न सके

बेवफाई का दामन वो कुछ यूँ ऐसे पकड़ बैठे
हम तो रह गए तनहा वो किसी और के बन बैठे

अश्क़ मेरी आँखों से आज दिन-रात गिरते हैं
रोता है दिल जाने कितने सवाल ज़हन में उठते हैं

मोहब्बत करने वाले का हाल क्या हो गया
आज इश्क़ में कितना तू बदहाल हो गया

टूटते तारो सा टूटा है तेरा भी दिल आज
देख तू अपने को तू क्या से क्या हो गया

फलक से एक तारा...............

कितने गिराये मोती इन आँखों से
खेला हमेशा वो तेरे जज़्बातों से

हाय तड़पता कैसे तुझे आज वो छोड़ गया
इन राहों पर तनहा तुझे वो आज छोड़ गया

फलक से एक तारा आज टूट गया
आज फिर हमराही मेरा रूठ गया-२
--

Tuesday 24 January 2017

गीत- यही प्यास थी ज़िन्दगी में

"बस एक यही प्यास थी ज़िन्दगी मे
एक छोटी सी आस थी ज़िन्दगी में
कही तो मिलेगा हमसफ़र मुझे भी
बस उसकी तलाश थी ज़िन्दगी में

हर दिन बस ख्याल उसका ही आता था
हर शख्स में बस वो ही नज़र आता था

कब उनसे नेन मिलेंगे कब वो हमारे होंगे
पल पल बस ये ही सवाल मन में आता था

मिलेगा मुझे भी कही प्यार करने वाला
कही तो होगा मुझ पर भी मरने वाला
बस उसकी ही आस थी ज़िन्दगी मैं
मोहसब्बत की ही प्यास थी ज़िन्दगी में

क्या पता था ये एक कसूर होगा
इस कदर हर शख्स हमसे दूर होगा

मोहब्बत के सपने दिखाने वाला वो
मेरा मेहबूब बेवफाई में मशहुर होगा

खता बस क्या की थी ज़िंदगी में
बस उसकी तलाश थी ज़िन्दगी में

बस एक यही प्यास थी ज़िन्दगी मे
एक छोटी सी आस थी ज़िन्दगी में
कही तो मिलेगा हमसफ़र मुझे भी
बस उसकी तलाश थी ज़िन्दगी में-2"















Monday 23 January 2017

मुक्तक

"तू है नज़्म मेरी मैं हूँ गीत तेरा
तू है सरगम मेरी मैं हूँ संगीत तेरा
तुझसे ही जुडी है हर ख़ुशी मेरी
तू है ज़िन्दगी मेरी मैं हूँ मीत तेरा"


Friday 20 January 2017

ईश्वर वाणी-१८८, इश्वरिये क्रीड़ा

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों संसार का प्रथम तत्व मैं हूँ, संसार का प्रथम जीवन मैं हूँ, संसार का प्रथम दिन और रात मैं हूँ, संसार का प्रथम युग अथवा काल मैं हूँ, संसार का प्रथम वर्ष मैं हूँ, संसार की प्रथम रचना मैं हूँ, संसार की प्रथम इच्छा मैं हूँ, संसार की प्रथम आत्मा मैं हूँ, संसार की प्रथम स्वास में हूँ, प्रथम सोच में हूँ, प्रथम रौशनी में हूँ, प्रथम रंग मैं हूँ, संसार का प्रथम जल में हूँ, संसार का आदि में ही हूँ मैं ईश्वर हूँ किन्तु मैं अंत नहीं हूँ, सच तो ये है अंत श्रष्टि में कही नहीं है किन्तु शुरुआत अवश्य है।

"एक बालक जिसके पास उसके माता पिता सगे संबंधियो द्वारा दिए अनेक खिलोने है, प्रतिदिन वो उनसे खेलता है, जब उसका जी भर जाता है तब सभी वो खिलोने एक टोकरी में डाल कर एक तरफ रख देता है ताकि अगली बार फिर इनसे खेल सके, और इस प्रकार अपने खिलोने संभाल के रख देता है।"

हे मनुष्यों उस बालक का खिलोंनो का इस प्रकार खेलने के बाद बंद करके रखने का अभिप्राय ये तो नहीं हो सकता की बच्चे ने सदा के लिये खेलना बंद कर दिया है, अपितु वो बाद में इनसे खेलेगा अभी तो कुछ समय के लिये खेलना बंद इसलिए किया की या तो वह थक चूका था अथवा उसे अब इस खेल में आनंद की अनुभूति नहीं हो रही थी, किन्तु दोबारा जब वह खेलेगा फिर नई ऊर्जा और जोश के साथ जिससे उसे आनंद की अनुभूति की भी प्राप्ति होगी।

हे मनुष्यों वेसे ही संसार के साथ में करता हूँ, समस्त संसार, गृह नक्षत्र धरती आकाश जीव जन्तु सब मेरी ही क्रीड़ा का ही तो एक भाग हैं, जिसे तुम अंत समझते हो वो तो वापस उस टोकरी में मैं डाल देता हूँ ताकि बाद में उससे खेल सकूँ, इस प्रकार जिसे तुम प्रलय और श्रष्टी का अंत समझते हो वो तो उस बालक के समान ही है जो अपने खेल के बाद अपने सभी खिलौने टोकरी में डाल देता है ताकि फिर इनसे खेल सके।

हे मनुष्यों इसी प्रकार सारी श्रष्टि मेरे लिये उस खिलोने के समान ही है और अंत इसका कभी नहीं होता और न होगा अपितु ये तो वो खिलोने है जिनसे खेल कर वापस में फिर अपनी टोकरी में अगली बार खेलने के लिए डाल लेता हूँ, और जिसे अनजाने में तुम अंत समझ बैठते हो, ऐसा हमेशा से हुआ है और होता रहेगा, इस क्रीड़ा में तुम हमेशा मेरे साथी थे और सदैव रहोगे।

कल्याण हो




ईश्वर वाणी-१८७, पिता और पुत्र

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों जब जब धरती पर मानवता एवं प्राणी जाती का दोहन हुआ तब तब मैंने ही संसार में अपने एक अंश को धरती पर मानव एवं समस्त प्राणी जाती की रक्षा हेतु भेज।

"एक राजा था, एक बार उसने अपने पुत्र को अपने सामान अधिकार दे कर कहा 'हे पुत्र तुम जरा राज्य में प्रजा का हाल चाल जान कर आओ, यदि कोई कष्ट में है या दुखी है तो उसका कारन पूछना और दूर करने लायक है तो उसे दूर करना, मैं तुम्हे अपने समान ही अधिकार देता हूँ, और जो तुमसे मदद मांगेगा अथवा तुम जिसकी भी सहायता करोगे अथवा तुम मुझे किसी की सहायता के लिए कहोगे वो पूरी जरूर होगी, आखिर मैं और तुम एक ही तो है, जो तुम्हे सम्मान देगा वो मुझे देगा, जो तुम्हारी निंदा करेगा वो मेरी करेगा, जो तुमसे मांगेगा वो मुझसे मांगेगा, जिनकी तुम सहायता करोगे वो मेरे द्वारा सहायता पायँगे, मैंने तुम्हे वो सब अधिकार दिए हैं जो मेरे पास है, क्योंकि मेरा पुत्र होने के कारण मुझमे और तुममे कोई भेद नहीं है।'

पिता की आज्ञा प्राप्त कर पुत्र राज्य में गया, और जो कष्ट में थे, दुखी और अन्य लोगों द्वारा सताए हुए थे उनकी सहायता की, चूँकि राजा पिता के समान ही उसे अधिकार थे इसलिए उससे जिसने सहायता माँगी न्याय माँगा उसे वो मिला, हालांकि लोगों ने राजा कभी नहीं देखा था, राजा राज्य के अनेक कार्यो में व्यस्त होने के कारण कभी प्रजा के पास नहीं आ पाया था किन्तु तभी उसने अपने प्रिये पुत्र को राज्य में भेज अपने समान अधिकार प्रदान कर यहाँ भेजा ताकि जो वो कार्य करे उसे राजा के समान माना जाये।

इस प्रकार राजा को जिसने नहीं देखा था पुत्र को ही राजा मान सम्मान करने लगे और राजा पिता होने के कारण अपने पुत्र और उसके कार्य एवं उसके सम्मान को देख कर प्रसन्न हुआ।

हे मनुष्यों ऐसे ही मैं जगत का राजा हूँ, मैं ही अपने समान अधिकार दे कर आपने एक अंश को धरती पर प्राणी जाती के हित के लिए भेजता हूँ, तुम जिस पर विश्वाश करते हो, जिसकी आराधना करते हो वो मुझ तक ही पहुँचता है, संसार का राजा में ही हूँ और अपने पुत्र को धरती रुपी प्रजा के उत्थान हेतु भेजता हूँ, जब जब मानव व् प्राणी जाती का दोहन होता है।

कल्याण हो

Wednesday 18 January 2017

मानव के पास उसका अपना क्या है? आध्यात्मिक सवाल

एक बार सदगुरु से ईश्वर ने पूछा

प्रश्न-: ये बताओ ऐसा क्या है मानव के पास अपना जो वो मुझे दे सकता है, ये धन-दौलत, संतान, परिवार, सेहत, शरीर, रूप, रंग, दिन-रात, सुबह-शाम, उजाला-अंधेरा, पेड़-पोधे, जल-वनस्पति,  तीनो स्थानों (जल, आकाश, भूमि) पर विचरण करने वाले जिव, ये जीवन ये मृत्यु, ये कल आज और आने वाला कल, समस्त ब्रमांड, यहाँ तक की तुम्हारी आत्मा जो तुम्हारे भौतिक शरीर को प्राण देती और मिटटी में मिलने से बचाती मैंने ही तो बनाई, अर्थात सब कुछ तो मैंने ही तुम्हे दिया है, पर ऐसा क्या है जो तुम मुझे दे सकते हो जो केवल तुम्हारा है जिसे तुमने रचा है, ऐसा क्या है जो मुझे तुम दे सकते हो, 
मेरे पास बहुत कुछ है तुम्हे देने के लिए पर एक चीज़ अगर तुमसे कही जाए मांगने को तो क्या मांगोगे?

सदगुरु ने उत्तर दिया

उत्तर:-हे प्रभु मेरे अथवा समस्त मानव के अंदर की बुराई ही केवल उसकी अपनी होती है, केवल वही आपको दे सकता है, और यदि आपसे बहुतो में से केवल एक ही चीज़ मांगने के लिए कहे तो केवल इतना देना की अपने अंदर की अच्छाई का एक छोटा सा अंश मुझे अथवा मानव जाती को दे देना, बदले में जो बुराई हमने अपने इस जीवन में कमाई है वह हमसे ले लेना।

सदगुरु का उत्तर सुन कर ईश्वर मुस्कुरा दिए और तथास्तु कह अंतरधान हो गए

Tuesday 17 January 2017

ईश्वर वाणी-१८६, आध्यात्म की जीवन मैं आवश्यकता

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों तुम सत्संग करते हो, प्रवचन कहते हो सुनते हो, आध्यात्म की बात कहते और सुनते हो किंतु इसका लाभ तुम्हारे जीवन मैं क्या है तुम्हें पता भी है!!

आध्यात्म व्यकिति को मानवता की शिछा देता है, सभी प्रकार के भेग-भाव से दूर मानव को मुझसे जोड़ता है! तुम्हें मेने क्यौं धरती पर भेजा, तुम्हें क्या करने यहॉ भेजा, तुम कौन हो, तुम्हारा वास्तविक लक्श्य क्या है, संसार मैं तुम्हारा क्या और कितना योगदान होगा, मानव धर्म का प्रचार कैसे करोगे, अग्यानता मिटा कर ग्यान का दीपक कैसे प्रज्जवलित करोगे ये सब तुम्हें आध्यात्म से पता चलता है!!

इसके साथ सही अर्थ मैं मानवता की शिक्छा दे कर नैतिकता के पथ पर चलते हुये अपने कर्तव्यों को पूर्ण करने की प्रेरणा देता है!

हे मनुष्यों तुम धार्मिक पुस्तकें पड़ते हो उनसे भी तुम्हें मानवता की शिक्छा मिलती है, विपरीत परिस्तिथी मैं भी समभलने की प्रेरणा मिलती है, इसलिये आध्यात्म की शिक्छा अतिआवश्यक है जो मानव को उसकी देह से नही अपितु कर्म से मानव बनाती है!

जैसे तुम पाठशाला मैं व विश्वविध्यालय मैं उचित शिक्छा प्राप्त कर अच्छी नौकरी व आय की इच्छा रखते हो और प्राप्त भी करते हो वैसे ही आध्यात्म तुम्हें तुम्हारी आत्मा की तरक्की करता है, उसे श्रेष्ट से सर्वश्रेष्ट बनाता है!

हे मनुष्यों इसलिये आध्यात्म को तुम आत्मसात करो, उसे केवल सुनकर भूलने और फिर सुनने के लिये नही अपितु उस पथ पर चलने के लिये सुनो, यदि ऐसा तुम करोगे तो निश्चित ही खुद को जान लोगे और खुद को जान लिया तो मुझे भी जान लोगे, मैं परमेश्वर!!

कल्याण हो

ईश्वर वाणी-१८५, जगत का पिता

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों युँ तो मैं निराकार हूँ, किंतु जब जब मानव द्वारा मानवता की हानी हुई मैंने ही अपने एक अंश को इसकी रक्छा हेतु भेजा, मैने ही उसे बताया देश, काल, परिस्तिथी के अनसार क्या व्यवहार करना है, कैसा ग्यान प्राणी जाती के कल्याण हेतु देना है, ऐसा ग्यान जब दुनियॉ में जाये तो सबका हित करे,

'एक ज़मीदार था, उसके बहुत सारी जमीन थी, कई गॉव उसके अधीन थे, पहले तो गॉव के लोग उसका सम्मान करते थे, वह इस सम्पूर्ण भुमी का स्वामी है ये कहते थे, उन्हें ये भी मालूम था आखिर ज़मीदार ने उन्हें ये भूमी रहने के लिये इसलिये दी है ताकी इसकी उचित देखभाल कर सके और ज़मीदार अन्य कार्य अपने पूर्ण कर सके,


किंतु समय के साथ ज़मीदार की इस जमीन पर रहने वालों के मन मैं पाप आ गया, वो खुद को ही इसका स्वामी मानने लगे, ज़मीदार को वह कुछ नही समझने लगे, इस प्रकार ताकतवर कमज़ोर को दबा कर उसका शोषण करने लगे, पहले तो ज़मीदार ने सोचा उन्हें समझ आ जायेगी क्यौकि ये भूमी तो उसी की है, उन्हें अहसास हो ही जायेगा इसका असली स्वामी मैं ही हूँ!


किंतु ऐसा नही हुआ और स्तिथी बुरी से बुरी होती गयी, तब ज़मीदार ने सोचा अब समय आ गया है जब गॉव वालों को बताया जाये कि इस भूमि का असली मालिक कौन है और आखिर क्यौ उन्हें यहॉ रहने की अनुमति दी गयी है, इसके लिये ज़मीदार ने अपने एक पुत्र को उस स्थान पर भेजा, उसने बताया कि ये भूमी उसके पिता की है और किसलिये तुम सभी को इस गॉव मैं भेजा गया है, कुछ लोगों ने उस पर विश्वास किया कि ये स़च में ज़मीदार का पुत्र है, जो कमजोर असहाय और शक्तिशालीयौं द्वारा सताये गये थे उन्होने सहर्ष स्वीकार लिया की ये जमीन के स्वामी का पुत्र है किंतु शक्तिशाली शकिति के अहंकार मैं आ कर खुद को ही यहॉ का स्वामी समझ ज़मीदार के पुत्र को पाखंडी कह कर दोष देने लगे, सच तो यह था मन ही मन वो खुद भी भयभीत हो रहे थे कि कहीं ज़मीदार का पुत्र अपने पिता से अनुमति ले उन्हें वहॉ से हटा न दे इसलिये वो उसे नुकसान पहुँचाने व जनसाधारण को उसके खिलाफ करने की कोशिश करते रहे!


किंतु जिसने पुत्र पर विश्वास किया पिता की आग्या अनुसार पुत्र ने उसकी रक्छा की लेकिन जिसने नही किया और बुरे कर्म में पड़ कर दुसरों को सताता रहा उसे ज़मीदार द्वारा दंड मिला! इस प्रकाक जहॉ और जिस गॉव में ज़मीदार की सत्ता को चुनौती दे वहॉ के गॉव वालों ने खुद को ही वहॉ का स्वामी बनने की कोशिश की, अन्य निर्बलों का शोशण किया, ज़मीदार के द्वारा दिये कार्यों की अवह्लेलना की ज़मीदार ने अपने अनेक पुत्रों में से एक किसी भी पुत्र को वहॉ भेजकर वहॉ की स्तिथियॉ सामान्य कर असली स्वामी कौन है और यहॉ रहने वालों के क्या काम है ये बताने भेजा!!


इस प्रकार जब जब ज़मीदार को वहॉ के रहने वालों द्वारा नकारा जाने लगा तब तब ज़मीदार को अपने एक पुत्र को वहॉ भेजकर सबको यह अहसास कराना पड़ा की आखिर असल स्वामी कौन है और तुम सब यहॉ क्यौ हो!!


हे मनुष्यों इस प्रकार मैं ही जगत का स्वामी हूँ, जब जब तुम मेरी सत्ता को चुनौती देते हो मैं ही अपने एक अंश को धरती पर भेजकर मानवता की रक्छा करता हूँ एवम तुम्हे तुम्हारे कर्तव्यों का बोध कराता हूँ, देश, काल, परिस्तिथी, बोली, भाषा, रीति-रिवाज़ो के अनुसार तुम उन्हें अनेक नाम से पुकारते हो, भगवान अथवा मसीह कहते हो, किंतु उन्हें भेजने वाला मैं जगत का जनक और पिता हूँ!

मैं भौतिक देह वाला पिता नही अपितु कण कण को बनाने सवॉरने वाला पिता हूँ, प+इ+त+आ=पिता

प=परम, प्रथम
इ=इच्छा ,ईश्वरिय
त=तत्व
आ=आत्मा

अर्थात परम प्रथम इच्छा ईश्वरीय आत्मा तत्व में ही जगत पिता हूँ, मैं ईश्वर हूँ!

कल्याण हो







Muktak

"Ateet ki fir wahi baat yaad aati,
Ashqo ki fir wahi raat yaad aati hai,
Bewafa se dil lagane ki khata kya ki,
Tanhaiyo ki ye saugat yaad aati hai"

Sunday 15 January 2017

ईश्वर वाणी-१८४, धरती की अवस्थाये

ईश्वर कहते हैं, ''हे मनुष्यों जैसे मानव के भैतिक देह की एवम् सभी देह धारी जीवो की मुख्य चार अवस्थाये होती हैं वेसे ही पृथ्वी की चार अवस्थाये हैं, इन सभी अवस्थाओ को 'काल' नाम दिया है, ऐसा नहीं है केवल ये अवस्थाये पृथ्वी की ही है अन्य ग्रहो की नहीं, ये तो सभी ग्रहो की अवस्थाये है किन्तु जीवन केवल धरती पर होने के कारण धरती की प्रत्येक अवस्था का प्रभाव सीधा धरती के जीवो पर पड़ने के कारण मैं आज इसके जन्म पूर्व से लेकर अंत तक के विषय में संछिप्त ज्ञान दूंगा।

हे मनुष्यों जब धरती विभिन्न परिस्तिथियों में बन रही रही थी एवं सभी गृह उस समय इसी अवस्था में ही थे, ये बिलकुल वेसी ही प्रक्रिया थी जैसे किसी देह धारी के जन्म लेने से पूर्व की होती है, इसके पश्चात् आदि सतयुग व् सतयुग ये वह समय है जब धरती अपने शैशवास्था में थी, जैसे एक शिशु किसी भी बुराई से दूर होता है, ठीक उस युग में धरती अपने शैशव काल के समय थी।

त्रेता युग धरती का बाल्यकाल है, जैसे एक बालक अपने आस पास के वतावरन को देख कर व्यवहार करता है, कभी झूठ बोलता है कभी चोरी करता है, इस प्रकार छोटी छोटी बुराई उसमे आने लगती है, वेसे ही पृथ्वी पर बुराई जन्म लेने लगी, ये धरती का बाल्यकाल था।

द्वापर युग धरती का एक युवा युग था, जिस प्रकार कुछ युवा सत्कर्म करते है तो कुछ बुरे कर्म करते है, एक जोश और ताकत से सदा भरे होते है, ठीक वेसे ही धरती के युवावस्था के काल द्वापर युग में था, तभी उस काल में 'महाभारत'  जैसे युद्ध हुए, ये सब यव अवस्था के उस अधिक जोश और शक्ति प्रदर्शन के कारण हुआ जोकि धरती के उस युवा काल द्वापर युग में हुआ।

धरती की अंतिम अवस्था वृद्धवस्था अर्थात कलियुग, जैसे वृद्ध के पास अनुभव का अपार सागर होता है वैसे ही धरती के इस युग 'कलियुग' अर्थात वृद्ध अवस्था 
में अनेक अनुभव का अथाह भंडार है किन्तु जैसे वृद्ध अपनी इस अवस्था में कुछ स्वार्थी हो जाते है, सब कुछ जानकर भी अनजान हो जाते है, स्वार्थ में फस कर अंत की चिंता न करते हुए केवल भौतिक सुख को सब कुछ समझ कर उसे पाने में लगे रहते है, वेसे ही कलियुग रुपी धरती की वृद्धवस्था अर्थात कलियुग है, वृद्धवस्था के बाद मृत्यु एक सत्य है फिर नव जीवन भी सत्य है, उसी प्रकार इस युग के बाद फिर धरती की मृत्यु एवं फिर पुनः जन्म होता है,

हे मनुष्यों ये क्रिया अनंत काल से हो रही है और होती रहेगी, किन्तु हे मनुष्यों तुम सोच रहे होंगे ये निम्न अवस्थाये तो धरती की है फिर हम प्रभावित कैसे हुए, धरती को होना चाहिए, किन्तु हे मनुष्यों जैसे तुम्हारे जन्म से पूर्व से ले कर मृत्यु तक तुम्हारे शारीर के अंग प्रभावित होते है वेसे ही धरती पर समय के साथ परिवर्तन से तुम सब प्रभावित होते हो, तुम इसके उन अंगो के समान हो जैसे तुम्हारे शारीर के वह अंग जो तुम्हारी खाल से ढके तो है लेकिन तुम्हारी शारीरिक अवस्था में परिवर्तन के कारण प्रभावित होते है और तुम्हारी मृत्यु के साथ ये भी मृत्यु को प्राप्त होते है।"

कल्याण हो

Saturday 14 January 2017

ईश्वर वाणी-183, अतुल्य संस्कृति

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यूँ तो तुम्हें में पहले भी चारों युग की जानकारी दे चूका हूँ। किंतु आज आदि सतयुग के विषय के बारे में थोड़ी और जानकरी देता हूँ।

हे मनुष्यों आदि सतयुग वो 'काल' जब संसार में जीवन आ ही रहा था, उस समय इस धरती पर कोई मृत्यु भी नहीं होती थी, सभी जीव प्रेम और भाईचारे से रहते थे, उस समय धरती को मृत्यु लोक का नाम भी नहीं दिया गया था, सभी जीव एक समान ही थे, किसी भी तरह का न भेद भाव और न कोई बुराई थी, सभी आत्माए एक दूसरे का सम्मान करती थी,

हर एक जीव खुद को देह और अन्य को भी देह से नहीं अपितु आत्मा से अपना मानता था, हर तरफ केवल जीवन ही जीवन था।करोडो वर्षो तक ये सब ऐसे ही चलता रहा, बिना किसी बुराई के सभी जीव खुद को एक पवित्र आत्मा मान धरती की रक्षा कर इसे पावन करती रही,

किन्तु सतयुग के समापन और त्रेता के शुरू होने से पूर्व जीव आत्माओ में अनेक बुराइयां उत्पन्न होने लगी, देह के अभिमान में आ कर शक्तिशाली निर्बल को दबा कर उन पर शाशन करने की कोशिश करने लगा।।

किन्तु हे मनुष्यों आदि सतयुग में जहा धरती अनेक खंडो में न बट कर एक ही थी और अथाह सागर दूसरी तरफ,प्राणी जाती के आपसी बेर को देख कर सतयुग के आखिर और त्रेता युग के शुरुआत में भयन्कर भूस्खलन हुआ, फलताह जहाँ कभी भूमि थी वहाँ सागर आ गया और सागर के स्थान पर भूमि, कई जीव इस परिवर्तन को न झेल सके और मृत्यु को प्राप्त हुए, इस प्रकार धरती का नाम मृत्युलोक पड़ा, हर एक काल के बाद इसमें भारी परिवर्तन होता है जिसमे कई प्राणी मृत्यु को प्राप्त होते है, ये क्रिया है जो चलती रहती है साथ ही त्रेता से कलियुग तक सदा जीवन और मृत्यु साथ साथ चलेंगे।

हे मनुष्यों सतयुग आखीरी चरण व् त्रेता के प्रारंभिक चरण से ही मानव ने अपने समुदाय हेतु कुछ व्यवष्ठए और नियम बनाये ताकि कोई किसी का अहित न कर सके

हे मनुष्यों जब सतयुग के आखिर और त्रेता युग के शुरू में भूस्खलन हुआ और नए दीपो का उदय हुआ, वहाँ जो मानव जीवित बचे समय और परिस्तिथि के  अनुसार सभी ने कुछ नियम व् व्यवस्था बनायीं।

हे मानवो यही आगे चल कर रीति रिवाज़ व् संस्कृति कहलायी, समय के साथ बोली बदली भाषा बदली, सब कुछ काल के अनुसार हुआ। किन्तु जब जब जहाँ जहाँ मानव ने अपनी शक्ति के मद में आ कर मेरी सत्ता को चुनोती दी और प्रकति और प्राणी जाती का दोहन किया मैंने ही अनेक स्थानों पर एक अंश के रूप में उन स्थानों पर जन्म लिया।

हे मनुष्यों ये सब जान लेना तुम्हारे लिए अति आवश्यक है क्योंकि तुम ये अभिमान नहीं कर सकते की तुम्हारी संस्कृति सबसे प्राचीन है क्योंकि देश काल परिस्तिथि के अनुसार सारी संस्कृति ही प्राचीन है अतुल्य है किन्तु समय के अनुसार हर सभ्यता संस्कृति में बदलाव तो हुआ है और आगे भी होता ही रहेगा, जो जैसा है हमेशा वैसा नहीं होगा, इसलिए केवल खुद की संस्कृति को प्राचीन न बोल और घमंड मत दिखा, सब सामान है सब श्रेष्ठ है ये याद रख।

कल्याण हो
"Fir se us milan ki aas hai dil mein,

Jo kabhi na bichhade aisi pyas hai dil mein,

Kho jaaye ek doosre ki baaho mein ab bas,

dhadkan ban ek dusre ke hai rahe paas dil mein"

सदगुरु श्री अर्चना जी के आध्यात्मिक विचार

सदगुरु श्री अर्चना जी के अनुसार

सन्सार में सबसे सुखी वो नहीं जिसने अपनी मनचाही वस्तु को प्राप्त कर लिया है क्योकि इच्छाये कभी समाप्त नहीं होती, जिसे जो मिला वो और पाने की चाहत मन में रख कर दुखी होता है।
किन्तु केवल वो ही सुखी रह सकता है जिसने सब कुछ त्याग दिया हो, सच्चा सुख प्राप्त करने मैं नहीं अपितु त्याग में है।
एक गृहस्थ की अपेक्षा एक सच्चा सन्यासी अधिक सुखी और संपन्न होता है कारण-एक ग्रहस्थ की इच्छाये कभी पूरी नहीं होती, हमेशा और की भावना बनी रहती है, एक इच्छा पूरी हुई तभी दूसरी की लालसा, यही भावना दुःख का कारण है।
किन्तु सच्चा सन्यासी जिसे कोई लालसा नहीं, जिसने केवल प्रभु को चाहा उसकी भक्ति के अतिरिक्त किसी की लालसा नहीं की, केवल भक्ति का मार्ग चाहा और उस पर चला,
उसे जो परम सुख की अनन्त अनुभूति हुई वो भौतिक सुख की प्राप्ति में किसी को नहीं मिलती।।
एक सन्यासी जो सभी भौतिक वस्तु का मोह त्याग कर केवल ईश्वर से मोह रखता है वही सच्चा सुखी है।।
इसलिए सच्चा सुख कुछ पाने में नहीं अपितु त्यागने में है, जब हम भौतिकता त्यागेंगे तभी परम सुख दाता परमेश्वर को प्राप्त कर परम सुख प्राप्त कर सकते है।।

Tuesday 10 January 2017

ईश्वर वाणी-१८२, सच्ची पूँजी

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों युँ तो तुम अपने इस वर्तमान भौतिक देह को तमाम सुख सुविधा देने के अनन्य प्रयास करते हो, धन कमाते हो ताकी अधिक से अधिक सुख सुविधा पा कर आत्मसंतुष्टी प्राप्त कर सको,
किंतु क्या तुमने वास्तविक वो धन कमाया है जो इससे भी अधिक कीमती है!!

हे मनुष्यों तुम्हारे कर्म ही जीवन की सबसे कीमती पूँजी है, अच्छाई व सच्चाई के मार्ग पर यदि तुम चलते रहे बिनी डगमगाये तब तुम्हें वो सुख मिलेगा जो अनंनत है साथ ही अगला जन्म भी वही होगा जहॉ किसी भी वस्तु का अभाव नही होगा,

किंतु यदि तुमने बुराई का मार्ग अपनाया तो निसंदेह तुम अपने कर्मों से उस पूँजी का नाश कर रहे हो जो तुम्हे अनंनत सुख देकर एक सुखी व सम्रध्ध परिवार देती, तुम्हारे कर्मो व लालसाओं ने वह सब नष्ट कर दिया जो तुम्हे मिलने वाला था, मानव जन्म ही तुम्हे इसलिये मिला था ताकी इस जन्म मैं नेक कर्म कर अगला जन्म सुद्रण बना सको ऐसी पूँजी अर्जित कर सको!!

हे मनुष्यों ये भी सत्य है तुम्हारे सच्चे और नेकी के रास्ते पर चलते हुये मैं ही अनेक व्यवधान तुम्हारी परीक्षा हेतु डालता हूँ, मैं देखता हूँ मुसीबत मैं कैसे खुद को सम्भालते हो, कैसे अपनी सबसे कीमती पूँजी की रक्षा कर पाते हो, यदि तुमने मुसीबतों का सामना करके भी इस कर्म रूपी धन की रक्षा की तो अनंनत सुख के पात्र बन सुख प्राप्त करोगे किंतु मेरी परीक्छा से घबरा कर बुराई का मार्ग अपना कर्म रूपी पूँजी में कटोती की तो अनेक जन्मों तक दुख प्राप्त करोगे!!

हे मनुष्यों इस लिये इस भौतिक पूँजी के पीछे मत भाग, भाग तो उस धन के लिये जो तुझे अननंत सुख देने वाला है, तेरे भौतिक देह को ही नही अपितु तेरी आत्मा को सम्पन्न करने वाला है, इसके लिये थोड़ा कष्ट तुझे सहना पड़े तो सह, जैसे- तू किसी अच्छी नौकरी के साक्षत्कार के लिये गया, तुझे ये नौकरी तभी मिल सकती है जब इसे उत्तीर्ण करेगा, नौकरी देने वाला तुम्हारी कीबिलियत देखने के बाद ही तुम्हें नौकरी देगा और अनेक तरह से तुम्हें परखेगा और जब संतुष्ट होगा तब ही नौकरी देगा,

हे मनुष्यों एसे ही मैं तुम्हें परख कर ही जन्म व किस्मत देता हूँ, तभी कुछ व्यक्ति बहुत शीघ्र सफलता प्राप्त कर लेते है तो कुछ उमर भर इसके इंतज़ार मैं रहते हैं, सब कुछ पिछले जन्म मैं अर्जित पूँजी के कारण है, 

हे मनुष्यों यदि तुम्हें अगला जन्म सुख सम्रध्धी से पूर्ण चाहिये तो इस जीवन के सुख के पीछे न भाग कर आत्मा की उन्नती के पीछे भाग, आत्मा की उन्नती तेरे कर्म सुधार अननंत सुख देगी साथ ही अगले जन्म को हर सुख सम्रध्धी से परिपूर्ण करेगी किंतु तुझे प्रयास आज़ से अभी से प्रारम्भ करना होगा!!

कल्याण हो



Sunday 8 January 2017

ईश्वर वाणी-१८१, मानवता की शिक्षा

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों मैने ही आवश्यकता अनुसार देश, काल, परिस्तिथी के मुताबिक अपने ही एक अंश को धरती पर भेजा जब-२ धर्म व मानवता की हानी हुयी, आगे भी मैं अपने ही एक अंश को भेजता रहूँगा जब जब मानवता ही हानी  होगी,

हे मनुष्यों युँ तो मैं खुद सक्षम संसार को सत्य का मार्ग दिखाने के लिये किंतु तुम माया के अधीन हो इसलिये सहज़ मुझ निराकार परमेश्वर पर यकिं नही कर सकते, तुम्हें केवल इन भौतिक देह पर यकीन है, देह का उत्पन्न होना अर्थात नया जीवन आना देह का त्यागना अर्थात म्रत्यु होना, तुम्हारे लिये सब कुछ देह से जुड़ा है इसलिये तुम्हारे विश्वास के लिये मुझे भी देहधारी बना कर ही अपने एक अंश को धरती पर भेजा!!

हे मनुष्यों ये भी सत्य है तुम्हारे ह्रदय मैं जो सोच है उसे मैं ही लाता हूँ किंतु ये सब तुम्हारे पिछले जन्मों के कर्मों पर निर्भर है, इसलिय प्रेम व कटु भावना, ईर्ष्या द्वेष अनेक भाव, भक्ति व नास्तिक भाव, मेरे कौनसे रूप मैं आस्था तुम्हारी जागेगी ये सब मेरे द्वारा ही तुम्हारे पिछले जन्म के कर्मों से तय होता है!!

हे मनुष्यों देश, काल, परिस्तिथी के अनुसार मैंने ही अपने एक अंश को धरती पर भेज मानवता की होती हानी रोकने हेतु भेजा, जिसे वहॉ के रीति-रिवाज़ और भाषा के अनुरूप कही भगवान, कही गॉड कही फरिस्ता कहि मसीहा कहा गया, इसके साथ मानवता की रक्षा हेतु जिन शिक्षाऔं का प्रसार प्रचार किया उन पर विश्वास कर चलने वाले व्यक्तियों को अलग पहचान करने के लिये केवल मानव द्वारा नाम दे दिया गया धर्म!!

इस प्रकार भाषा व देश, काल, परिस्तिथी के अनुसार न सिर्फ मेरे अंश का नाम बदल मेरा नाम बदला मानवों द्वारा अपितु मेरी शिक्षा मेरे मानने वाले के द्वारा अन्य देश में गयी वहॉ मुझे और मेरे मानने वालों को उसी नाम से जाना जाने लगा जहॉ मेरे ही अंश ने मानवता का ग्यान दिया और ग्यान के प्रचार प्रसार हेतु जो व्यक्ति गये और वहॉ अन्य व्यक्तियों द्वारा इसपर विश्वास किया गया, उन्हें अलग कर पहचान देने के लिये नाम दिया गया 'धर्म', अमुक व्यक्ति उस धर्म का अनुयायी है, साथ ही जिन व्यक्तियों ने उन शिक्षाऔ को आत्मसात किया वह भी अपना नाम व मेरा नाम अपने क्षेत्र व भाषा के अनुसार न रख जिस रूप व नाम पर मुझपर आस्था रखी वहॉ की ही भाषा अनुसार उसने नाम भी रखा जो की आवश्यक नही है!!

आवश्यक केवल इतना है जिस रूप नाम व मेरे ग्यान पर विश्वास रखो किंतु मानव धर्म का सदा पालन करते रहो, देश, काल, परिस्तिथी के अनुसार मैंने हर बार तुम्हें केवल मानवता की ही शिक्षा दी है!!"

कल्याण हो



Friday 6 January 2017

kavita


"hai kitna masoom ye chehra tumhara,
khushnasib hu main tu hai hamara,

poori hui meri dua Jo mujhe tu mila,
ab is jivan ka ek tu hi hai sahara,

sunese is aagan mein kadam Jo tere pade,
sukhi is sarita ka kewal tu hai kinara,

tanhaiyo mein beete Jo mere subah shaam,
tumse milkar nahi ab ye dil hai bechara,

tujhse prit laga tujhpe vaare jaau,
aa meri baaho mein dekh ham hai nahi awara"

Thursday 5 January 2017

ईश्वर वाणी-१८०, अतिसूछ्म मैं 'ईश्वर' हूँ

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों जैसे आत्मा के बिना जीवन सम्भव नही है किंतु ये भी एक परम सत्य है ये दिखती भी नही है किंतु इसके अस्तित्व को तुम नकार भी नही सकते!!

शरीर के सभी अंग आंतरिक और बाहरी वो सभी देखे जा सकते हैं, उन सभी का अपना एक आकार है, कौन सा अंग कहॉ है ये जाना जा सकता है किंतु आत्मा का क्या आकार है, शरीर के किस भाग मैं रह कर संपूर्ण शरीर को संचालित करती है ये तुम नही जान सकते किंतु आध्यात्मिक ग्यान से इसे जाना जा सकता है, आत्मा शरीर का अति सूछ्म तत्व है जिसके बिना जीवन ही नही है, पूरे भौतिक शरीर को चलाने वाली और जीवन दे कर भौतिक काया को मिटने से बचाने वाली आत्मा ही है!!

हे मनुष्यों जैसे आत्मा के बिना किसी भी जीव का जीवन संभव नही है, उसे जीवन दे माटी में मिलाने से बचाने वाली अतिसूछ्म आत्मा है वैसा ही अतिसूछ्म मेरा स्वरूप है, संपूर्ण ब्रह्माण्ड को चलाने वाला मैं अजन्मा अविनाशी 'ईश्वर' हूँ, मैं ही आत्माऔं मैं परम हूँ इसलिये परमेश्वर हूँ,  मुझे तुम भौतिक अॉखों से नही अपितु श्रध्धा, भक्ति और विश्वास के साथ जो नियम मैंने  मानव जाती के लिये बनाये हैं उनपर चलकर ही मुझे देखा जा सकता है,

हे मनुष्यों जैसे आत्मा भौतिक अॉखों से दिखायी नही देती किंतु उसके बिना जीवन ही संभव नही, वैसे ही तुम मुझपर यकीं करो अथवा नही श्रष्टी सम्भव नही, मैं ही आकाशिय दिव्य अनंत सागर हूँ जिसने  सभी  ग्रह नक्षत्रौ को थाम रखा है जो एक गति मैं ब्रह्माण्ड मैं एक निश्चित दूरी पर विचरण करते हैं, अनंनत आकाश मैं तैरते हुये कभी आपस मैं नही टकराते, इन सबका चलाने वाला पालन करने वाला जीवन देने वाला श्रष्टी की रचना करने वाला, भूतकाल, भविष्यकाल, वर्तमान तीनो कालों को बनाने वाला, दिन रात बनाने वाला वायु दे जीवन  देने वाला अतिसूछ्म, निराकारी, अनंनत, अविनाशी मैं 'ईश्वर' हूँ!!"

कल्याण हो

Wednesday 4 January 2017

ईश्वर वाणी-१७९,आत्मा को संवारो

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यध्यपि तुम मेरा कभी नाम न लो, कभी मुझपर आस्था भी न रखो, यध्यपि तुम मेरी आलोचना भी तुम करो किंतु कभी किसी नरीह जीव को न सताओं, किसी की हत्या न करो, किसी की ईर्ष्यावश निंदा न करो, निर्बलों की सहायता बड़ों को सम्मान दो, दूसरों से अपने समान ही प्रेम करो, प्रक्रति व प्राणी जाती की सदा रक्छा करो!!

हे मनुष्यों यदि तुम ये करते हो जो मैंने तुम्हें कहा इससे तुम्हारी आत्मा शुध्ध होती है, किंतु तुम ऐसा नही करते तो तुमेहारी आत्मा मलिन होती है, तुम मेरी आलोचना करो एसा करने से केवल तुम्हारा भौतिक स्वरूप ही मलिन हुआ किंतु निम्न कार्यों से आत्मा पावन हुई!!

हे मनुष्यों आत्मा का पहले पावन होना अतिमहत्वपूर्ण है, आत्मा के पवित्र होने जो तुम्हारे कर्मों से होती है मेरा प्रिय बनाती है, यध्धयपि तुम मेरी चाहे कितनी ही आलोचना कर लो, जैसे यदि किसी बालक के माता पिता की तुम कितनी ही निंदा करते हो किंतु जब उसके बालक को किसी मुसीबत मैं देखते हो उसकी दौड़ कर सहायता करते हो, ये देख कर अमुक व्यक्ति ये भूल जाता है कि तुम उसके घोर निंदक हो और तुम्हारी उसके प्रति कटु भावना भुला तुमसे प्रेम भाव रखने लगता है!!

हे मनुष्यों ऐसे ही मैं तुम सबका जनक हूँ, तुम सब मेरे बालक हो, ऐसे मैं घोर निंदक मेरा कोई भी हो किंतु मेरे बताये मार्ग पर चल प्रक्रति व प्राणी कल्याण के कार्य करता है मेरा प्रिय बनता है तभी मैं कहता हूँ मुझे केवल अपनी बुराई दे दो अपनी हर कमी दे दो, बदले मैं वो मुझसे लो जो तुम्हें मेरा प्रिय बनाता है!!

हे मनुष्यों ये न भूलो तुम्हारी आत्मा का घर ये भौतिक शरीर है, यदि तुम मुख से जिह्वा से मेरा नाम लेते हो किंतु अनेक बुरे कर्मों में लिप्त हो तो तुम्हारी आत्मा मलिन किंतु ये भौतिक शरीर और जिह्वा पावन होगी, किंतु यदि तुम मेरी आलोचना निंदा कर ह्रदय से जगत व प्राणी कल्याण के कार्य करते हो तुम्हारी आत्मा शुध्ध होती है जैसे- किसी घर मैं रहने वाले लोग खुद तो साफ सुथरे सवरें हुये हो किंतु अपना घर साफ न रखते हो फिर भी जहॉ जाते हो अपने व्यक्तित्व के कारण हर कोई पसन्द उन्हे करने लगता हो,

    वही यदि तुम अपना घर तो साफ सुथरा संवरा हुआ रखते हो किंतु खुद मलिन रहते हो, ऐसे मैं जो भी तुमसे मिलेगा घ्रणा करेगा कि तुम कितने मलिन रहते हो, लोग एक बार तुम्हारे घर की गंदगी को नज़रअंदाज़ कर सकते तुम्हारे उस सुंदर रूप को देखकर किंतु रूप ही मलिन कर लिया फिर घर को कितना ही संवार कर रख लो सम्मान न कहीं पाओगे,

हे मनुष्यों संभव हो तो भौतिक शरीर रूपी घर और अत्मा रूपी तुम इस घर के वासी दोनो ही पावन बनो ताकी मैं और समाज तुम्हें दोनों ही रूपों मैं प्रेम करे किंतु ये संभव न हो तुम्हारे लिये तो आत्मा रूपी इस घर के वासी को सदा सदगुणों से संवार कर रखना, ये संवरा हुआ रूप ही तुम्हे मेरा प्रिय बनाता है!!"

कल्याण हो




Tuesday 3 January 2017

ईश्वर वाणी-१७८, धार्मिक ग्रंथ

ईश्वर कहत् है, "हे मनुष्यों युँ तो तुमने अनेक धार्मिक ग्रंथ पड़े होंगे उनसे बहुत कुछ सीखा होगा, किंतु ये ग्रंथ केवल देश/काल/परिस्तिथीयों में मेरे द्वारा भेजे धरती पर मेरे ही अंश द्वारा कही गयी बातों का सक्षिप्त सारांश मात्र है,

हे मनुष्यों हर एक धार्मिक ग्रंथ मैं केवल मेरे ही अंश विशेष का वर्णन मात्र है जैसे - शिव महापुराण मैं भगवान शिव का, श्रीमदभागवत मै श्री क्रष्ण का, बाईबल मैं जीसस का, किसी भी धार्मिक ग्रंथ का अध्धयन तुम करो केवल तुम्हे विशेष वर्णन ही तुमहें मिलता है,

हे मनुष्यों इसलिये केवल इनका अध्धयन मात्र ही तुम्हे आध्यात्मिक ग्यान दे संभव नही है, आध्यात्मिक ग्यान एक श्रेष्ट गुरू अथवा मैं ही तुम्हें दे सकता हूँ"

कल्याण हो 

ईश्वर वाणी-१७७, देह बंधन

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों संसार मैं दुख का कारण देह मोह में पड़ना ही है, मनुष्य मेरी उपासना और मुझसे प्रेम न कर भौतिक रूप से जिनसे जुड़ा है उनसे प्रेम व मोह रखता है, मुझे तो  केवल संकट के समय ही याद करता है, ये ही दोहरा चरित्र मावन के दुख का कारण है,

हे मनुष्यों ये सत्य है मैं ही तुम्हें मोह मैं डालता हूँ ताकी तुम किसी को हानी ना पहुँचा कर प्रेम व भाईचारे के साथ धरती पर रहो किंतु मैं ही तुम्हें  मोह मैं ना पड़ने की बात कहता हूँ,

हे मनुष्यों तुम न अपने भौतिक स्वरूप, धन, सम्प्रदा, संतान का मोह न करो, ये भौतिक है और एक दिन मिटने वाला है, इसलिये मोह रखो तो आत्मा से जो कभी नही नष्ट होती सदा तुम्हारे साथ तुम्हारे पास रहती है तुम खुद भी एक आत्मा हो जिसे निम्न कार्यो के लिये ये भौतिक घर दिया है जैसे कार्य पूर्ण घर खाली कर दूसरा आशियाना तुम्हें मिल जाता है,

हे मनुष्यों इस जीवन मैं तुम जिससे मिले जिससे जुड़े भावात्मक लगाव हुआ और एक दिन वो चला गया, ये सब तो उस परम मिलन का छोटा सा सारांश ही था जो तुम्हें अपने भौतिक देह को त्याग आत्मिक रूप मिलने वाला है,

हे मनुष्यों भौतिक देह त्यागने के बाद भी व्यक्ति मैं उपर्युक्त व्यक्ति के प्रति जब प्रेम की भावना व मिलन की प्रबल इच्छा होती है तब उनकी आत्माऔ का मिलन होता है और जहॉ भी जन्म ये फिर लेते है एक ही स्थान पर लेते है साथ ही सदा सारी उमर एक दूसरे से प्रेम करते है,

किंतु यदि एक व्यक्ति दूसरे के देह त्यागने से पहले ही (मुक्ति प्राप्त कर) जन्म ले लेता है तब भी दूसरी भी वही जन्म लेता है जहॉ अमुक पैदा हुआ था,

हे मनुष्यों इसलिये देह का मोह लोभ न कर ये तो कितनी बार तुझे मिला है कितनी बार नष्ट हुआ है और जिनहें तू अपना कहता है उनमें से कुछ तेरे पहले के अपने है और कुछ आगे तेरे अपने होंगे,

हे मनुष्य यदि सच्ची श्रध्धा तुम मुझ पर रखो तो इस सत्य को जान और आत्मसात कर भौतिक देह के बंधन ठुकरा मुझसे प्रीत लगा मोझ को पाप्त कर परधाम में स्थान पाओगे"


कल्याण हो