Wednesday 5 September 2018

कविता-टूट कर गिरता एक तारा हूँ मैं







“आसमां से टूट कर गिरता एक तारा हूँ मैं
कभी जो भी शान हुआ करता था महफ़िल की

आज लोगों की आंखों का बेबस एक नज़ारा हूँ मै
नज़्में में भी शान हुआ करती थी इस साहिल की

आज ज़मीन पर निशां ढूंढता कितना हारा हूँ मै
मोहब्बत की ज़माने से बस ये हरकत ज़ाहिल की

कभी आसमां में मेरा भी वज़ूद था औरो की तरह
बेवफ़ा से वफ़ा की उम्मीद ये अदा बस काहिल की

नाम भूल बैठा अपना शोहरत से भी आज मारा हूँ
कभी जो भी शान हुआ करता था महफ़िल की

“आसमां से टूट कर गिरता एक तारा हूँ मैं
कभी जो भी शान हुआ करता था महफ़िल की-२"

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