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Saturday, 4 May 2013
Wednesday, 1 May 2013
ईश्वर वाणी-37, Ishwar Vaani-37**जो मनुष्य पूजा-पाठ के नाम पर मुझे बलि देते हैं मैं उनकी बलि स्वीकार नहीं करता**
प्रभु कहते हैं जो मनुष्य पूजा-पाठ के नाम पर मुझे बलि देते हैं मैं उनकी बलि स्वीकार नहीं करता, ऐसे लोग मेरा नाम ले कर केवल अपने जीभ के स्वाद हेतु ऐसा घ्रणित कार्य करते हैं, इश्वर कहते हैं ऐसे मनुष्यों की चाहिए की मेरे नाम की अपेक्षा किसी कसाई के पास जा कर अपनी भूख शांत करने हेतु मासाहार को खा कर अपने स्वाद को पाये।
प्रभु कहते हैं मैं केवल उन्ही से प्रसन्न होता हूँ जो मेरे बताये गए मार्ग पर चल कर उनका अनुसरण करते हैं, केवल वही मेरे प्रिये होते हैं जो मेरे वचनों का पालन करते हैं, किन्तु जो मनुष्य मुझे पसंन करने के नाम पर किसी निर्दोष की बलि देता है मैं उससे प्रसन्न होने की अपेक्षा क्र्धित होता हूँ क्यों को वो मेरे नाम पर एक निर्दोष की हत्या कर रहे होते हैं जबकि जीवन लेना और देना ये दोनों प्रक्रिया केवल मेरे ही अधिकार शेत्र में है, प्रभु कहते हैं मुष्य को केवल वो ही बस्तुये अपने भोजन में ग्रहण करनी चाहिए अवं मुहे अर्पित करनी चाहिए जिन्हें मैंने सब के लिए खुद उचित ठेराया है, उन समस्त खाने लायक वस्तुओं को मेरा प्रसाद मान कर मनुष्य को केवल वो ही ग्रहण करना चाहिए और अगर मुझे अर्पित करना है तो वो ही मुझे केवल अर्पित करना चाहिये…
प्रभु कहते हैं हमे अपने जीवन में किसी भी प्रकार की चिंता न रख कर बस प्रभु का ध्यान करते हुए अपने नित्य कर्म करते रहना चाहिए अवं अपने कर्मो के फल की चिंता उनपे छोड़ देनी चाहिए, ऐसा करने से निश्चित ही मनुष्य का कल्याण होगा ।
ईश्वर वाणी
ईश्वर वाणी -36, Ishwar Vaani-36 **प्रभु कहते हैं निश्चित रूप से प्रत्येक शादी के काबिल लड़के और लड़की को शादी के बंधन में बंध जाना चाहिए **
प्रभु कहते हैं निश्चित रूप से प्रत्येक शादी के काबिल लड़के और लड़की को शादी के बंधन में बंध जाना चाहिए क्योंकि ऐसा प्रकृति और नेतिकता के अनुसार उचित है, प्रभु कहते हैं की उन्होंने निश्चित ही किसी उद्देश्य से हर एक को इस दुनिया में भेजा है और निश्चित ही हर एक के लिए कोई न कोई जीवनसाथी चुना है किन्तु यदि किसी को उसका अभी तक कोई हमसफ़र नहीं मिला है तो वो निराश न हों क्यों की ऐसे मनुष्यों को यकीनन प्रभु ने किसी ख़ास कार्य के लिए ही चुना है, प्रभु कहते हैं यदि आप विवाह करना चाहते हैं और आपको अभी तक कोई नहीं मिला है तो निराश न हो प्रभु का नाम लेते हुए सत्कर्म करते जाए आपका निश्चित ही कल्याण होगा । किन्तु प्रभु कहते हैं जो व्यक्ति विवाह नहीं करना चाहते ऐसे व्यक्तियों को किसी भी प्रकार से विवाह के लिए विवश नहीं करना चाहिए, प्रभु कहते हैं की एक विवाहित मनुष्य में विवाह के बाद परिवर्तन आ जाता है, उसे उससे अधिक उसके जीवन साथी के साथ से ज्यादा जाना जाता है किन्तु एक अविवाहित के जीवन में ऐसा मोड़ नहीं आता की लोग उसे उसकी जगह किसी और की वज़ह से या किसी और के साथ होने की वज़ह से जाने, प्रभु कहते है विवाहित स्त्री विवाह के बाद सुहागिन कहलाती है और यदि उसके पति की मर्त्यु हो जाए तो लोग उसे विधवा के नाम से बुलाते हैं किन्तु एक अविवाहित स्त्री सदेव एक जैसी ही रहती है न तो लोग उसे कभी सुहागिन बुलाते हैं और न ही उसके पति की मृत्यु के पश्चात विधवा, ऐसे ही पुरुष शादी के बाद विवाहित कहलाता है और यदि उसकी पत्नी की मृत्यु हो जाए तो विधुर, कुल मिलाकर स्त्री-पुरुष के जीवन में विवाह के बाद उनके जीवन में ही नहीं उनके जान्ने में भी और एक दुसरे के साथ से ही अनेक परिवर्तन आ जाते हैं किन्तु एक अविवाहित व्यक्ति सदेव एक जैसा ही रहता है।
प्रभु कहते हैं जिस मनुष्य में अपनी कामेच्छा को काबू में रखने की द्रिड इच्छाशक्ति है केवल वे ही व्यक्ति विवाह न करे और जिन मनुष्यों में अपने कामेछाशक्ति को काबू में रखने दम नहीं है उन्हें विवाह कर व्याभिचारी होने से बचना चाहिए, प्रभु कहते हैं एक पुरुष को विवाह के पश्चात उसके अपने जीवन और अपने शरीर परा उसका अधिकार नहीं रह जाता, ये अधिकार उसकी पत्नी को मिल जाता है और ठीक उसी प्रकार एक स्त्री को भी विवाह के पश्चात उसके जीवन एवं उसके शरीर पर उसका अधिकार न हो कर उसके पति का पूर्ण अधिकार होता है, इस प्रकार एक विवाहित व्यक्ति पूर्ण रूप से अपने जीवनसाथी पर समर्पित हो कर सुखद वैवाहिक जीवन प्राप्त करता है।
प्रभु कहते हैं एक अविवाहित और नेतिक पथ पर चलने वाला व्यक्ति बड़ी ही आसानी से प्रभु को प्राप्त कर सकता है, क्यों की ऐसे व्यक्ति बड़ी ही सहजता से प्रभु में ध्यान लगा लेते हैं किन्तु विवाहित व्यक्ति इतनी आसानी से प्रभु में ध्यान नहीं लगा पाते और इस प्रकार वो प्रभु को नहीं प् सकते किन्तु उनके अपने सत्कर्म उन्हें प्रभु का प्रिये अवश्य बना देते है, इसलिए प्रभु कहते है सदेव सत्कर्म करो और मेरे द्वारा बताये गए पथ पर चल कर मेरी बातों का अनुसरण करो और मोक्ष को प्राप्त हो।
ईश्वर वाणी -35, ishwar Vaani-35 **स्वर्ग और नरक **
नमस्कार दोस्तों आज फिर हम हाज़िर हैं ईश्वर वाणी में ईश्वर द्वारा दिए गए ज्ञान के विषय में आपको जानकारी देने , दोस्तों हमारे मन में कुछ सवाल फिर जाग्रत हुए और उन्हें हमने प्रभु से पूछा, और प्रभु ने उन सवालों का जवाब हमे बड़े है अच्छे तरीके से दिया दोस्तों आप अब सोचने लगे होंगे की हमने क्या सवाल करे थे प्रभु से, तो आपका समय अब न लेते हुए हम आपको बता रहे है की क्या हमने प्रभु से पूछा और उनका क्या जवाब उन्होंने हमे दिय।
प्रश्न-१- हमने पूछा प्रभु से "भगवंत हमे बताये की स्वर्ग और नरक क्या है? हम मरने के बाद कहा जाते हैं, कुछ लोग कहते हैं की यही स्वर्ग और यही नरक है बताये प्रभु क्या सत्य है"?
उत्तर-२* प्रभु बोले " सर्ग वो स्थान है जहाँ कोई दुःख नहीं, हर तरफ ख़ुशी और आत्म संतुष्टि है, कही भी किसी प्रकार का कोई बेर भाव नहीं है, कोई भेद भाव नहीं है, किसी भी प्रकार की न तो सीमा है और न दीवार है, जहाँ केवल आत्मिक शान्ति और ख़ुशी है, जहाँ कोई दर्द नहीं जहाँ कोई दुःख अथवा पीड़ा नहीं वो ही स्वर्ग है"।
"प्रभु कहते है नरक के विषय में की जहाँ दुःख है, दर्द है, न शान्ति है, ना प्रेम है, जहाँ अनेक प्रकार की दीवारे हैं, जहाँ अनेक तरह के भेद भाव हैं, जहाँ न सम्मान है और न अपनापन है, जहाँ स्वार्थ सिध्ही है वो ही स्थान नरक है"।
प्रभु कहते हैं " जो मनुष्य अपने जीवन काल में अनेक पीड़ा झेल कर भी बुराई के मार्ग पर नहीं चलता अपितु सत्य के मार्ग पर चलता रहता है निश्चित ही अपने भोतिक शरीर को त्यागने के पश्चात वो स्वर्ग का भागी होता है, जो मनुष्य काम क्रोध लोभ, मोह और अहंकार का त्याग कर , अपने देश और विभिन्न प्रकार की मानव द्वारा बनायीं गयी सीमाओं को त्याग कर सम्पूर्ण श्रृष्टि को अपना घर और समस्त प्राणियों को अपना बंधू समझ कर सदेव उनके हित और उनके प्रति दयालु हो कर कार्य करता है, जो स्वाम के अपने दुखों से जितना विचलित नहीं होता किन्तु यदि और किसी और प्राणी को किसी दुःख में देख ले तो खुद से ज्यादा विचलित हो जाए और उन्हें उनके दुःख को दूर करने हेतु कार्य करे अथवा कोशिश भी करे तो ऐसे मनुष्य निश्चित ही ईश्वर के अति प्रिये होते हैं और उन्हें जितना कष्ट ही मानव रुपी भोतिक शरीर में भले उठाना पड़े किन्तु शरीर त्याग के बाद स्वर्ग के पात्र बनते हैं, किन्तु इसके साथ ही प्रभु कहते हैं की केवल वे ही स्वर्ग के पात्र बनते हैं मनुष्य जो इस प्रकार के कार्य तो करते हैं किन्तु साथ में वो ये भी अपने मन में सोचते हैं की इश्वर सब देख रहा है और उनके इस कार्य का उचित फल उन्हें अवश्य मिलेगा,
प्रभु कहते हैं जो स्वर्ग में आया है निश्य ही उससे असीम सुख की प्राप्ति होगी किन्तु जब उसके पुण्य पूर्ण होंगे तब उसे फिर से धरती पर भेज दिया जायगा, निश्चित ही उसे मानव रूप ही मिलेगा ताकि वो फिर से इस प्रकार सत्कर्म करे जिससे उसे मोक्ष की प्राप्ति हो।
प्रभु कहते हैं जो मानव बिना किसी फल की आशा करे सत्कर्म यानि की इश्वरिये मार्ग पर चल करा सदेव उचित व्यवहार के साथ उचित कार्य करते हैं चाहे उन्हें कितना भी कष्ट क्यों न भोगना पड़े किन्तु घबराते नहीं है और ईश्वर पे पूर्ण आस्था रख कर बिना स्वार्थ के अथवा ये भाव रखे बिना की भगवन उन्हें देख रहा है अवं उन्हें उसके कार्यों के कारण निश्य ही स्वर्ग अथवा उचित फल मिलेगा बिना ऐसी भावना के जो कार्य करते हैं उन्हें ईश्वररीये लोक की प्राप्ति होती है, अर्थात जिस रूप में और जिस नाम से मनुष्य उनकी पूजा करता है अवं अपने भोतिक स्वरुप में वो जिस पर आस्था रखता है ऐसे मनुष्य को शरीर त्यागने के पश्चात अपने आराध्य के लोक में स्थान प्राप्त होता है, प्रभु कहते हैं की ऐसा नहीं है की जितने नामों से लोगों ने उन्हें बाँट रखा है उतने ही लोक संसार में विराजित है और न ही जितने लोग आपस में अपने प्रकार के भेद भाव के कारण बनते हैं उतने ही स्वर्ग इस ब्रह्माण्ड में मौजूद है, प्रभु कहते हैं की स्वर्ग और ईस्वर का लोक ब्रह्माण्ड में केवल एक ही है किन्तु जैसी भावना जिसकी रहती है अपने भोतिक शरीर को त्यागते समय उसके सुक्ष शरीर यानि की अभोतिक शरीर जो की आत्मा है उसे उसी रूप में स्वर्ग अवं प्रभु लोक के दर्शन होते हैं अवं वैसा ही स्वर्ग अवं प्रभु लोक उसे प्राप्त होता है।
प्रभु कहते हैं जो मनुष्य नास्तिक होते हैं किन्तु जो सदा सत्कर्म करते रहते हैं अपने भोतिक रूप में यधपि ऐसे मनुष्य आजीवन प्रभु का नाम भी न लेते हो किन्तु केवल सत्कर्म निह्सार्थ भाव से करते रहे हो, ऐसे मनुष्य भी प्रभु लोक में प्रवेश के अधिकारी होते हैं, प्रभु कहते हैं ऐसे मनुष्यों को मैं अपने निराकार स्वरुप में खुद ही विलीन कर उन्हें मोक्ष प्रदान करता हॊन।
किन्तु प्रभु नरक के विषय में कहते हैं "जो प्राणी केवल अपने स्वार्थ के वश में, अहंकारी हो कर अपने सम्पूर्ण जीवन को केवल अपने भोतिक सुखों में लगाये रखता है अवं दुसरे निर्दोष प्राणियों का अहित अपने स्वार्थ सिध्ही हेतु करता रहता है, उसे निश्चित है नरक की प्राप्ति होती है, प्रभु कहते हैं नरक वो स्थान है जहाँ केवल उसे दंड के स्वरुप कष्ट और विभिन्न प्रकार की यातनाये दी जायंगी ऐसा इसलिए होगा क्यों की उसके जीवन काल में उसने कई निर्दोष प्राणियों के भी ऐसी ही यातनाये दी थी अपने स्वार्थ की खातिर,
प्रभु कहते हैं एक तरफ स्वर्ग और प्रभु का लोक ऐसे दुष्ट व्यक्तियों को नज़र आएगा और दूसरी और नरक जहाँ वो अपने कर्मोनुसार दंड प् रहे होंगे, उन्हें दिखाई देगा की जिन प्राणियों ने उनके द्वारा दुःख पाया अपने जीवन काल में अब वो सुख पा रहे हैं और एक वो हैं जिन्होंने अपने जीवन काल में सभी सुख भोगे आज उससे कई गुना ज्यादा कष्ट पा रहे हैं, प्रभु कहते हैं ऐसे मनुष्य अपने दंड भोगे के पश्चात फिर से अपने कर्मो के प्रायश्चित हेतु फिरसे जन्म लेते हैं और यदि वो इसके पश्चात नेक और भले कर्म बिना किसी स्वार्थ और आशा के करते हैं तो इस जन्म के बाद मोक्ष के पात्र बनते हैं,
"प्रभु कहते हैं की जो लोग स्वर्ग में रहते है वो लोग नरक की यातना झेल रही आत्माओ को भली प्रकार देखते रहते हैं, ईश्वर कहते हैं ऐसा इसलिए द्वारा निश्चित किया गया है क्यों जब स्वर्ग का समय पूर्ण करने के पश्चात वो फिर से जन्म ले तो अहंकारी और व्याभिचारी न बन जाए और अपने जन्म के उद्देश्यों से न भटक जाए, इसलिए स्वर्ग की यातना को वो सदेव किसी न किसी रूप में याद रख कर वो अपने जीवन को सदा नेक और सत्कर्मो को सौंप दे और शरीर त्यागने के पश्चात मोक्ष को पाये"।
प्रश्न-२* हमने पूछा प्रभु से "भगवंत क्या भोतिक शरीर के साथ भी स्वर्ग अवं नरक की अनुभूति हमे हो सकती है"? कृपया मार्गदर्शन करे।
उत्तर-२* प्रभु बोले" जिस मनुष्य के मन में आत्म संतुष्टि है, जिस मनुष्य में "और" की भावना नहीं है, जिसे जितना मिल गया उतने में ही प्रसन्न रहने का गुण है, जो व्याभिचार से दूर, भेद भाव और झूठी सीमाओं से दूर सदेव नेतिकता का पालन करने वाला, झूठा और धोकेभाजो का न साथ देने वाला और न समभंद रखने वाला और इसके साथ ही जो मनुष्य प्रभु वचनों का पालन करता है, उसे इसी भोतिक स्वरुप में स्वर्ग की अनुभूति होती है, ऐसे मनुष्यों को दुःख में दुःख की अनुभूति नहीं होती और ख़ुशी में ख़ुशी की", प्रभु कहते है " जिसे ख़ुशी में कोई ख़ुशी न महसूस और और दुःख में कोई दुःख न दिखाई दे, जो हर मौसम में और हर परिश्तिथि में एक जैसा रहे ऐसे मनुष्य को अपने भोतिक शरीर में ही स्वर्ग जैसा सुख प्राप्त होता है"।
प्रभु भोतिक जीवन में नरक के विषय में कहते है " जिस मनुष्य में "और " की भावना है, जो मनुष्य सदेव लालच में रह कर अधिक और अधिक अपने शारीरिक सुख की वस्तुओं को पाने में लगा रहता है उसे इसी शरीर में नरक की अनुभूति हो जाती है, प्रभु कहते है उसके आत्म संतुष्ट न होने की भावना ही उसका सबसे बड़ा कष्ट बनता है जो उसके इस जीवन को नाराकिये बना देता है"।
प्रभु कहते हैं की मैं मनुष्य को पहले ही बड़ा देता हूँ की उसे नरक का रास्ता चुनना है या मुझे अथवा स्वर्ग को प्राप्त करने का रास्ता चुनना है, यधपि जन्म से पूर्व सभी आत्माए ये ही कहती है की उन्हें तो प्रभु को पाने का मार्ग चाहिए किन्तु इस शरीर को प् कर वो अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं, ऐसे में मैं उन्हें विभिन प्रकार के कष्ट अवं अनेक परीक्षाओ के माध्हय्म से उन्हें उनके उद्देश्य याद दिलाने का प्रयत्न करता हूँ, इसके पश्चात जो प्राणी अपने को और अपने कर्तव्यों की जान जाते हैं उन्हें स्वर्ग जैसा अनुभव यही प्राप्त हो जाता है और शरीर त्यागने के बाद भी उन्हें असीम सुख की प्राप्ति होती है किन्तु जो जान नहीं पाते उन्हें नाराकिये कष्ट यही झेलने पड़ते हैं इसके साथ भोतिक शरीर त्यागने के पश्चात भी उन्हें नरक की प्राप्ति के पश्चात अनेक कास्ट दंड के रूप में झेलने पड़ते है।
अर्चना मिश्र
Tuesday, 30 April 2013
डर लगता है -kavita
डर लगता है अब नज़ारे मिलाने में, डर लगता है अब बाहर जाने में, क्या बता मिल जाए मुझे भी कबि कही कोई हवस का पुजारी
डर लगता है अब रिश्ते बनाने में, डर लगता है अब रिश्ते निभाने में, क्या पता कब कौन बन जाए मेरी अस्मत का सौदागरी,
डर लगता है अब अपनों से दर लगता है अब सपनो से, डर लगता है अब हर रिश्ते नातों से, क्या पता कब बन जाए कोई अपना ही मेरी लाज का लुटेरा और जिस्म का अभिलाषी,
डर लगता है अब हर करीब आने वाले से, डर लगता है अब हर मुस्कुराने वाले से, जाने कब बन जाए उसकी आखे मेरे जिस्म की प्यासी,
डर लगता है अब जीवन की हर उमंग से, डर लगता है अब नयी हर तरंग से, था कभी इंतज़ार ज़िन्दगी के किसी मोड़ पे किसी का साथ पाने का, था बस एक ख्वाब उनके साथ हर पल जीने का,
थी बस इतनी से तमन्ना ज़िन्दगी उनकी बाहों में बिताने की, चाहत थी इतनी सी की कभी तो कही मिलेगा जो होगा सिर्फ मेरा, साथ उसका पा कर ख़ुशी रहने की बस ये ही हसरत मैंने बस की थी,
सोचता था मन ये मेरा मिलेगा कही तो मुझे वो जिसका दिल होगा सबसे सच्चा होगा जो इस जग में सबसे अच्छा,
दुनिया की हर बुराई से कोशों वो दूर होगा, किसी और के नहीं बस मेरे ही वो करीब होगा, रहे चाहे दुनिया में कही भी वो पर उसके दिल में सिर्फ प्यार तो मेरे लिए ही होगा,
पर जैसे जैसे मुझे आने लगी है समझ, दिखने लगे है इस दुनिया के रंग और नज़र आने लगे है लोग मुझे बेरंग,
आज वक़्त और हालत को समझ कर लगता है डर की न मिल जाए मुझे भी कही मोहब्बत के नाम पे लुटेरा कोई,
डर लगता है न मिल जाए मोहब्बत के नाम पे हवस का देवता कोई, क्या पता मुझे भी मिल जाए आशिक के नाम पे कोई व्याभिचारी, डर लगता है अब उस रिश्ते से भी जिसका इंतज़ार था मुझे कभी कही मिलने का, था एक सपना संग उसके एक छोटा सा आशियाना बसाने का,
पर अब डर लगता है न मिल जाए मुझे अब कोई दुराचारी, डर लगता है उसी से न मेरी शादी हो जो हो किसी का बलात्कारी ,
डर लगता है अब हर शख्स से, डर लगता है अब हर साए से, डर लगता है अब खुद से, न बन जाऊ मैं किसी का शिकार कही, न मिल जाए ज़िन्दगी में मुझे जिस्म के भूखे और हवस के पुजारी ये बलात्कारी।।
करते हैं तुमसे कितना प्यार
“Karte hain tumse kitna pyaar ye tumhe hum bata nahi sakte,
rah nahi sakte bin tumhare ye bhi tumhe hum jataa nahi sakte, bade bebas hain
hum tumhare ho bhi nahi sakte aur tumhe paa bhi nahi sakte”
" करते हैं तुमसे कितना प्यार ये तुम्हे हम बता नहीं सकते, रह नहीं सकते बिन तुम्हारे ये भी तुम्हे हम जता नहीं सकते, बाद बेबस हैं हम तुम्हारे हो भी नहीं सकते और तुम्हे पा भी नहीं सकते "
ईश्वर वाणी -34, ishwar Vaan-34
नमस्कार दोस्तों आज फिर हम हाज़िर है ईश्वर वाणी में आपसे ईश्वर द्वारा बताई गयी बातों को आपसे शेयर करने यानि की बाटने, दोस्तों हमने कुछ सवाल प्रभु से करे जो हमारे मन में उठे थे और उन सवालों का जवाब प्रभु ने बड़े ही सहज और आसन शब्दों में हमे दिया, आप अब सोच रहे होगे की आखिर हमने क्या सवाल प्रभु से करे और उनका क्या जवाब उन्होंने हमे दिया, चलिए हम और इंतज़ार आपको नहीं करवाते और बताते हैं की क्या सवाल हमने उनसे करे और क्या उन्होंने हमे उनका जवाब दिय।
प्रश्न-१ ? हमने प्रभु से पूछा की भगवंत पाप और गलती करने में क्या अंतर है??
प्रश्न- २? हमने प्रभु से पूछा की भगवंत पाप और गलती करने वाला मनुष्य क्या छमा का पात्र होता है या फिर नहीं या फिर गलती करने वाला होता है और पाप करने वाला नहीं या फिर पाप करने वाला छमा के काबिल होता है और गलती करने वाला नहीं, प्रभु कृपया मार्गदर्शन करे?
उत्तर-१*
पाप
प्रभु बोले " जो कार्य अपने स्वार्थवश किया जाता है तथा जिसमे केवल खुद को ही फायदा होता है किन्तु दुसरे किसी निर्दोष प्राणी को तकलीफ होती है, लेकिन ऐसा कार्य करने वाला जानता है की उसके कार्य से किसी निर्दोष को तकलीफ होगी किन्तु फिर भी वो अपने स्वार्थ के वश में और केवल खुद के फायदे के लिए और खुद की ख़ुशी के लिए ऐसे कार्य करता है तो ऐसे कार्य पाप की श्रेणी में आते हैं, प्रभु कहते हैं की पाप करने वाला जातना है की वो क्या कर रहा है और उसके इस कार्य से किसे नुक्सान और उसे फायदा हो रहा है किन्तु फिर भी वो ऐसा करता चला जाता है, ऐसे व्यक्ति के कार्य को पाप कहा जाता है जो सब कुछ जान करा और समझ कर करते है। "
गलती
प्रभु बोले " जो कार्य नादानी और अज्ञानतावश किया जाता है यधपि उसके कार्य से किसी को नुक्स्सान भले हुआ हुआ हो वो गलती की श्रेणी में आता है क्यों की ऐसा करने वाले को सही और गलत का अंदाजा ही नहीं था, यदि होता तो वो ऐसा कार्य कदापि नहीं करता जिससे किसी का अहित होता, गलती करने वाले व्यक्ति को जब भी अपनी गलती का अहसास होता है तो वो अपने कार्यों के लिए छमा याचना करता है अवं अपने कर्मों का प्रायश्चित करने को सदा तत्पर रहता है,
प्रभु गलती करने वाले को एक अबोध बालक के सामान मानते हैं, वो कहते हैं जिस प्रकार एक अबोध बालक अज्ञानतावश खेल ही खेल में कोई कीमती वष्टु खो देता है अथवा तोड़ देता है फिर भी दंड का भागी नहीं बनता क्यों की उसने ऐसा अज्ञानतावश किया है, यदि वो जानता की उसने किया क्या है या कर क्या रहा है तो वो ऐसे नुक्सान वाले कार्य को करता ही नहि। "
इस प्रकार प्रभु ने हमे गलती और पाप में अंतर समझाया।
उत्तर- २* पाप
प्रभु कहते हैं की जो कार्य अपने स्वार्थ सिध्ही के लिए किये जाते हैं तथा जिनके करने से किसी निर्दोष प्राणी का अहित होता है ऐसे कार्यों को पाप कहते हैं जो कदापि छमा के काबिल नहीं होते, क्यों की ऐसे कार्य स्वार्थवशऔर केवल अपने हित के लिए किये जाते है और करने वाले को सही और गलत की पूर्ण समझ होती है फिर भी व्यक्ति अपने स्वार्थ की पूर्ती हेतु दुसरे निर्दोष प्राणी को नुक्सान पहुचाता है, ऐसे मनुष्य छमा के काबिल नहीं होते।
प्रभु कहते है भले पापी व्यक्ति दंड से भयभीत हो कर छमा मांग ले, अपने पापों के प्रय्च्चित करने को भी तैयार हो जाए फिर भी उसे दंड मुक्त नहीं करना चाहिए क्यों की जब वो पाप कर रहा था तब भली प्रकार वो अपने कार्यों के लिए नियुक्त डंडों को भी वो जानता था किन्तु फिर भी वो ऐसे कार्य करता गया, इस प्रकार ऐसे मनुष्यों को छमा करना अनुचित होग।
गलती
प्रभु कहते हैं जो कार्य नासमझी में किये जाते हैं तथा जिनके करने करने का सही गलत का ज्ञान नहीं होता उन्हें गलती कहते हैं, ऐसे कार्य अज्ञानता के अभाव में किये जाते हैं तथा ऐसे कार्य करने वाले व्यक्ति छम के पात्र होते हैं, क्यों ऐसे व्यक्तियों को जब अपनी गलती और अपने कार्यों का ज्ञान होता है तब वो बिना विलम्ब करे अपने कार्यों के प्रायश्चित के लिए तैयार हो जाते हैं, तथा ऐसे मनुष्य को छमा करना उचित होता है।
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