Thursday 6 June 2013

परंपरा, व्यवस्था और नारी-आर्टिकल (parampara, vyavshtha aur naari- article)

स्त्री कभी पत्नी बन कर तो कभी बेटी, बहन, माँ  आदि बनकर अनेक रिश्तों के साथ जुड़ कर हमेशा से ही पुरुष के साथ उसके हर कर्म में उसकी सहयोगिनी बन कर रही है, सदियों से ही स्त्री पुरुष के साथ उसके दुःख-सुख में बराबर की भागीदार रही है, उसके साथ हर कदम पर कंधे से कन्धा मिला कर चली है नारी, पुरुष का हर मोड़ पर नारी ने साथ दिया है, जब से प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और इस दुनिया में मनुष्य रूप में जबसे स्त्री और पुरुष आये हैं उस दौर से लेकर आज तक स्त्री ने पुरुष का हर मोड़ पर साथ दिया है बिना किसी अहं के।


पर सदियों से जिस नारी ने पुरुष के हर कदम पर साथ दिया है आज एवं बदलते सामजिक ढाँचे में उसकी अपनी छवि क्या रही है, वो खुद को कहाँ पाती है, उसका इस समाज में क्या अस्तित्व है, पुरुष क्या सोचता है उसके बारे में, कहते हैं की जब मानव इस दुनिया में आया था तब न सभ्यता हुआ करती थी और न संस्कृति, पर जैसे जैसे मानव ने अपने परिवार बढाने शुरू करे तब इसमें नेतिकता को प्रमुख मानते हुए अवं कई सारे सामजिक एवं मानव हित की भलाई हेतु कुछ सामजिक नियमों को शामिल कर लिया गया जो धीरे धीरे सभ्यता का रूप लेने लगे और वो सभ्यता बदलते वक़्त के साथ संस्कृति के रूप में विकसित होती गयि।


कहते हैं जब सामजिक नियम अपने शुरूआती चरण में थे उस वक्त स्त्री और पुरुष दोनों के हितों को ध्यान में रख कर ही इन्हें  बनाया गया था ताकि किसी का भी अहित न हो और न ही शोषण हो, किन्तु वक्त के साथ इन नियमों में परिवर्तन होने लगे और ये परिवर्तन धीरे धीरे स्त्री के खिलाफ जाने लगे।  शुरुआत में ये नारिविरुख परिवर्तन केवल कुछ ही अवश्ताओं में नारी के विरुद्ध थे किन्तु धीरे धीरे बदंलते सामजिक ढाँचे ने इन नियमों को पूरी तरह नारी के विरुद्ध कर दिया ।


आज  आलम ये है की दुनिया में हर कही और हर संप्रदाय में नारी का स्थान दोयम दर्जे का है.और उसे कही न कही किसी ना किसी रूप में अनेक प्रकार के शोषणों का शिकार होना पड़ता है, जो नियम समाज ने अपने शुरूआती दौर में बनाए थे आज का समाज उनसे एक दम उलट है और एक प्रकार से उसने पुराने नियमों की आड़ में नारी विरुद्ध नियम बना लिए है, परंपरा,व्यवश्ता के नाम पर उसने ऐसे नियम बना लिए हैं और उनमे नारी को बाँध दिया है जो पूरी तरह से नारी के विरुद्ध हैं और उनका शोषण करते है।


पर दुःख और आश्चर्य की बात है की स्त्री ने भी उसका शोषण कर रहे इन नियमों को सहज ही ग्रहण किया और उसी को अपना जीवन और अपना कर्तव्य मान कर अपना शोषण करवाती रही, उसने  अपने ही विरुद्ध बन रहे इन  नियमों के खिलाफ जाने की कोशिश नहीं की, उसने इन बदलते और उसका शोषण करने वाले सामजिक नियमों के खिलाफ कोई आवाज़ कभी बुलंद नहीं की और जिसका  नतीजा ये हुआ की नारी जिसकी आबादी पूरी दुनिया में लगभग आधी है आज एक दोयम दर्जे का जीवन जीती है या फिर मर्दों की दया पर निर्भर है, वो नारी जिसने पुरषों का आदि काल से ले कर अब तक हर मोड़ पर साथ दिया है, वो नारी जो पुरुष से ज्यादा सहनशील है, वो नारी जिससे जन्म ले कर ही पुरुष इस दुनिया में आता है आज वो ही नारी एक शोषित वर्ग बन कर रह गयी है और  पुरुष की दया पर ही वो निर्भर हो गयी है । दुनिया में परम्परा और व्यवस्था के नाम पर उसका शोषण होता है, किसी न किसी रूप में उसका इसलिए अपमान होता है क्योंकि वो एक स्त्री है, वो  निर्बल है, अपने हक़ के लिए कभी खड़ी  नहीं हो सकती, नियमों के मुताबिक़ वो अपने अधिकारों को माँगना तो दूर इस विषय में चर्चा तक नहीं कर सकती क्योंकि वो एक स्त्री है और उसे सिर्फ वैसे ही जीवन जीना है जैसे पुरुष चाहते हैं, और यही वज़ह है की    कही तो देवी मान कर पूजा जाता है तो कही उसे अशुद्ध मान कर विभिन्न धार्मिक कृत्यों से दूर रखा जाता है और  उससे केवल उसी कार्य को करने की इच्छा की जाती है जो पुरुषों को पसंद हो, नारी की पसंद नापसंद से इस समाज को कोई लेना देना नहीं है, लेना देना है तो केवल पुरषों की पसंद से और नापसंद से, तभी तो शादी के बाद एक लड़की से ही ये उम्मीद की जाती है की वो खुद को नए परिवेश में ढाल ले खुद को, अनेक प्रकार के नियम उसपे थोप दिए जाते हैं की तुम्हे ये करना है वो नहीं, यहाँ जाना है वह नहीं, ये पहनना है वो नहीं, यहाँ बैठना है वह नहीं इत्यादि किन्तु पुरुष जैसा वो शादी से पहले था शादी के बाद भी वैसा ही है और उसे कोई विशेष बंधन नहीं है हाँ ये उसकी दया है की वो अपने पत्नी पर कितना मेहबान होता है किन्तु उसके लिए समाज में कोई नियम नहीं है जैसे वो विवाह कर के स्त्री को नहीं लाया है अपितु किसी युद्ध में जीत कर कोई निर्जीव चीज़ अपने पास ले आया हो, समाज ये यी ही नियम नारी विरुद्ध जाते हैं और उसके न सिर्फ अधिकारों का हनन करते हैं अपितु उसका अनेक प्रकार से शोषण भी करते है। 


प्रारंभिक मानव नियम एवं प्राचीन शाश्त्रोंनुसार ऐसा पता चलता है की प्राचीन मानव सभ्यता में दुनिया में कहीं भी इस प्रकार नारी विरोधी व्यवश्ता नहीं थी, उनका स्थान पुरषों के बराबर ही था एवं उन्हें हर स्तिथि में समस्त धार्मिक कृत्या करने की पूरी आज़ादी थी, किन्तु बदलते सामजिक दौर में नारी की स्तिथि निम्न से निम्न होती गयी, किन्तु सवाल ये उठता है की ऐसा क्या हो गया जो इस समाज ने नारी को इस स्तिथि में पहुचा दिया, कही ऐसा तो नहीं की पुरुष को नारी के व्यक्तिव और उसके आचार-व्यवहार से खतरा महसूस होने लगा हो और इस खतरे को कम करने या फिर सदा के लिए ही ख़त्म करने हेतु ही समाज के नियम बदलने शुरू कर दिए और स्त्री को आज इस स्तिथि में पहुचा दिया । 



किन्तु जो हालत आज सम्पूर्ण जगत में नारी की है वो अचानक ही नहीं हुई और न ही समाज के नियम ही अचानक बदले हैं, समाज के नियम न तो एकाएक बने थे और न ही एकाएक ही बदले हैं, पुरषों ने इन नियमों को स्त्री को अपने विश्वास में ले कर एवं उसे फुसला कर  और भ्रमित कर के ही इन नियमों में परिवर्तन  करे हैं, नारी जो हमेशा से ही पुरुष के साथ रही हैं, हर कदम पर उसका साथ दिया है वो उसकी कुटिल चाल को ना समझ सकी और  और उसकी बातों में आ कर इन नियमों के परिवर्तन में अनजाने में ही अपने विरुद्ध हो रहे इन नियमों की सहयोगिनी बनी और पुरषों को ये कहने का अवसर मिला की खुद नारी ऐसे नियमों का समर्थन करती है। , इस प्रकार सदियों से नारी का शोषण करने वाले नियम समाज में आज भी विधमान हैं और जो नारी को ना सिर्फ दोयम दर्ज़ा देते हैं अपितु विभिन प्रकार से उसका शोषण भी करते है।


ऐसा नहीं है की इन नियमों के बन्ने और उन्हें लागू  होने के बाद प्राचीन काल से ले कर अभी तक कोई आवाज़ बुलंद  नहीं हुई, सच तो ये है की इन नियमों के खिलाफ कई आवाज़ बुलंद हुई और जो ना सिर्फ नारी ने इन्हें बुलंद किया अपितु कई पुरुष भी इन नियमों के खिलाफ खड़े नज़र आये और उन्होंने इन नियमों का पुर्जॊर विरोध किया।   किन्तु शोषक वर्ग इतना मज़बूत हो चूका था उस वक्त तक की इन आन्दोलनो और इन क्रांतिकारी आवाजों का उस पर कोई असर नहीं हुआ अपितु इन्हें दबाने हेतु ही उसने अनेक प्रकार के कड़े नियम बना कर इस वर्ग का और भी ज्यादा शोषण करना प्रारम्भ कर दिया। 


नारी जो आज भी समाज का अति शोषित वर्ग है, कुछ लोग कहेंगे की आज की नारी प्राचीन काल की नारी की तरह नहीं है, आज वो आत्मनिर्भर है, आर्थिक आज़ादी के साथ अनेक प्रकार की आज़ादी है उसे, इसलिए आज की नारी की स्तिथि दयनीय कहाँ है, वो आत्मविश्वासी होने के साथ पूर्ण रूप से स्वतंत्र है, किन्तु ऐसा कहने वाले जरा अपने आस पास नारी की स्तिथि को देख कर और अपने हृदय पर हाथ रख कर कहे क्या वाकई में नारी आज पूर्ण रूप से स्वंत्र है, क्या अनेक प्रकार से उसका शोषण नहीं हो रहा, अगर एक लड़की शादी ना करने की इच्छा रखती है और वो बात किसी पुरुष को पता चल जाए की ये लड़की कुवारी है तो पुरुष उसका हर प्रकार से शोषण करने की कोशिश करता है, एक अकेली स्त्री अपनी ज़िन्दगी अपने हिसाब से नहीं जी सकती, अकेले कही आ या जा नहीं सकती, हर कदम पर उसे पुरुष का सहारा लेना पड़ता है लेकिन फिर भी वो सुरख्षित नहीं और इस दर के  में वो जीती है की कही उसके साथ कुछ गलत ना हो जाए और ये पुरुष अपने पुराने नियमों को बदल कर समाज में ऐसे रॉब से जीता है जैसे वो कोई भगवान् हो, खुद हो, गॉड हो और उसी ने सृष्टि बनायी और अपनी खिदमत के लिए उसने नारी नामक दासी की उत्पात्ति की जो उसकी उसकी गुलाम होने के साथ उसकी साड़ी इछाये पूरी करे और जो ना करे उसे अनेक प्रकार से प्रताड़ित किया जाए हर प्रकार से उसका शोषण किया जाए, पुरुष ने केवल खुद को नारी से श्रेष्ट दिखाने के लिए प्राचीन सामजिक नियमों को बदल ताकि उस का सदा नारी से ऊँचा स्थान रहे और वो जब चाहे जैसे चाहे नारी को दबा सके और उसका हर तरह से शोषण कर सके और नारी इसके खिलाफ कुछ न कह सके ये समझ कर की ये ही उसका नसीब है, ये ही उसकी संस्कृति और ये ही उसके समाज की सभ्यता की वो बस पुरुष को खुश करने हेतु ही उसके अनुरूप ही आचरण करे, और ये ही काररण है की  कभी धर्म के नाम पर तो कभी समाज के नाम पर तो कभी सभ्यता और संस्कृति के नाम पर आज भी उसका शोषण हो रहा है, और अनेक प्रकार से नारी को पुरुष  नीचा दिखा कर उसका शोषण कर रहा है।  


पर मेरा सवाल है की आखिर ऐसा कब तक होगा, क्या कोई मसीहा आएगा जो नारी को इस दयनीय स्तिथि से मुक्त कराएगा या फिर कोई जादूगर आएगा जो नारी को इस स्तिथि से उबारेगा, सच तो ये है की ना तो कोई मसीहा आएगा और ना ही कोई जादूगर आएगा जो नारी को उसका अधिकार दिलाएगा और उसे एक दोयम दर्जे के इस शोषित वर्ग से मुक्ति दिलाएगा, नारी को इससे मुक्ति तभी मिल सकेगी जब दुनिया में पायी जाने वाली इस नारी नामक जीव को खुद ही अपने खिलाफ बने इन नियमों को तोड़ने के लिए कमर कसने होगी, उसका किसी भी प्रकार से शोषण करने वाले के खिलाफ उसे मोर्चा खोलना होगा चाहे वो अपने परिवार का ही कोई हो, दोस्त, रिश्तेदार, पडोसी जाना या फिर अनजाना जो भी किसी भी प्रकार उसका शोषण करता है, उसे दोयम दर्ज़ा देता है उसके खिलाफ नारी को खड़ा होना होगा, मोर्चा खोलना होगा और अपना अधिकार प्राप्त करने हेतु आन्दोलन करना होगा, यदि आज की नारी खुद को सचमुच में आधुनिक कहती है तो उसे यक़ीनन इन प्राचीन नियमों के खिलाफ मोर्चा खोलना होगा और ना सिर्फ अपने लिए अपितु जिस भी स्त्री को ऐसे शोषित वो देखे उसके हक़ के लिए समस्त नारी जाती एकत्रित हो कर आन्दोलन प्रारंभ  करने होंगे  और अपने एवं हर नारी को उसका उचित, सम्मानित एवं श्रेष्ट स्थान दिलाने हेतु कार्य में सहयोग करना होगा , यदि नारी इस इस प्राचीन तथ्य को झुट्लाकर की "औरत ही औरत की दुश्मन होती है " समस्त नारी एक हो जाए और प्राचीन नारी विरोधी नियमों का विरोध कर अपने अधिकारों ,उचित एवं श्रेष्ट स्थान को समाज से अपने लिए पाने हेतु संघर्ष करे तो निश्चित रूप से एक दिन नारी फिर से उस स्थान को समाज में हासिल कर सकती है जो आदिकाल में उसे प्राप्त था ।।



  


 

कही तो होगा वो




 दुनिया में सबसे वो प्यारा होगा, आसमान के सितारे से भी हसीं जिसका नज़ारा होगा, किसी और को नहीं पर हमे वो जग में सबसे  प्यारा  होगा, औरों का नहीं बस वो हमारा होगा, कही तो होगा इंतज़ार में हमारे भी डूबा वो, ढूँढती होंगी नज़रे उसकी भी हमे हर कही, कोई तो होगा जहाँ में ऐसा जिसकी हर धड़कन में नाम सिर्फ हमारा होगा,
कही तो होगा वो जिसे सिर्फ हम से  ही प्यार होगा, कोई तो होगा जिसपे हक़ सिर्फ हमारा होगा, दुनिया में सबसे हसीं वो दिलबर बस हमारा होगा, आकाश में चमकते उस चाँद से भी दिलकश वो हमनासीन सिर्फ हमारा होगा, दुनिया में सबसे न्यारा वो हमसफर बस हमारा होगा, मेरी ज़िन्दगी की वो आस कभी तो मेरे पास होगा, दुनिया में कही तो होगा वो कोई  तो होगा वो। 





Friday 31 May 2013

वक्त के हाथों हुए कितने मजबूर हम





वक्त के हाथों हुए कितने मजबूर हम, रहते थे कभी एक दुसरे के दिल में और आज दूर हुए हम, करते थे कितनी मोहब्बत तुमसे कभी हम, लुटाते थे तुम पे अपनी ये ज़िन्दगी भी हम, होती थी ख़ुशी कभी साथ रह कर तेरे संग, आज वक्त के साथ हुए कितने मजबूर हम, थे करीब कभी बेइन्तेहा और आज दूर हुए हम,
वक्त के हाथों हुए कितने मजबूर हम
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"दिल में रहने वाले दूर कभी नहीं जाते हैं


"दिल में रहने वाले दूर कभी नहीं  जाते हैं, जब भी याद उनकी आती है आँसू  बन के चले आते हैं,  होते हैं  दूर भले वो नज़रों से पर दिल  की गहरायी में अक्सर वो ही समाये रहते हैं, जब भी आती है याद उनकी  दिल की गहरायी से निकल कर आँखों से अश्रु बन कर चले आते हैं, होते नहीं जुदा कभी दिल में रहने वाले, मिटते नहीं वो कभी दिल में बसने वाले, हो जाते हैं  वो भले इस दुनिया से विदा लेकिन अपने चाहने वालो की आँखों में  अक्सर आँसू  बन के नज़र आते हैं दिल में रहने वाले ये दिल में बसने वाले...

Thursday 30 May 2013

ईश्वर वाणी-ishwar vaani(main hi hoon) **41**

ईश्वर कहते हैं "इस सम्पूर्ण जगत में केवल एक मैं ही सत्य हूँ बाकी सब असत्य है, मैं ही आदि हूँ और मैं ही अंत हूँ, मैं ही जीवन हूँ और मैं ही मृत्यु हूँ, मैं ही आज हूँ मैं ही कल था और मैं ही आने वाले समय में रहूँगा, मैं ही अतीत हूँ और मैं ही वर्तमान हूँ और मैं ही भूतकाल भी हूँ, मैं ही शून्य हूँ और मैं ही आकर हूँ, मैं ही लौकिक हूँ और मैं ही पारलौकिक हूँ, मैं ही वायु हूँ और मैं ही अग्नि हूँ, मैं ही जल हूँ और मैं ही जीवन हूँ, इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वश्तु में केवल मैं ही मैं हूँ, प्रत्येक प्राणी में भी मैं ही हूँ, मैं ही आत्मा हूँ और मैं ही परमात्मा हूँ, मैं ही सुख हूँ और मैं ही दुःख हूँ, मैं ही हसी हूँ और अश्रु भी मैं ही हूँ,  इस संसार की गति भी मैं हूँ और गड़ना भी मैं ही हूँ, चेतना भी मैं हूँ और अवचेतना भी मैं ही हूँ , मैं ही आकर हूँ और मैं ही निराकार हूँ, मैं वही हूँ जो प्राणी चाहता है, इसलिए हे मनुष्य आपसी बेर भुला कर तू मुझे जब भी सच्ची आस्था से जिस भी रूप में याद करेगा एवं अगर तेरे कर्म मुझे अपने तक लाने के काबिल हुए तो तेरे ह्रदय के रूप के अनुरूप तू मुझे सदा अपने ही समीप पायेगा, क्योंकि इस धरा का आदि और अनादि मैं ही हूँ, मैं ही स्वर्ग हूँ और मैं ही नरक हूँ, मैं ही तीन लोक हूँ  और मैं ही अथाह अन्तरिक्ष भी हूँ,  इसलिए हे मानव अपने अज्ञान की पट्टी अपने नेत्रों से खोल और मेरी शरण में आ ताकि तेरा कल्याण हो सके और तू मोक्ष को प्राप्त कर जन्म-जन्मान्तरों की पीड़ा से मुक्ति पा सके क्योंकि मैं ही पालनकर्ता हूँ और मैं ही संहारंक हूँ, मैं ही माता हूँ और मैं ही पिता हूँ, मैं ही भ्राता हूँ और मैं ही बहना हूँ, मैं ही मित्रा हूँ औरमैं ही शत्रु भी हूँ, अन्धकार भी मैं हूँ और उजाला भी मैं हूँ, इसलिए हे मनुष्य तू खुद पर अहंकार न कर क्योकि तू कुछ भी नहीं है क्योंकि तुझमे भी मैं ही हूँ, इसलिए अपने अहंकार तो त्याग और मेरी शरण में आ ताकि तेरा कल्याण हो सके" । 

हर शख्स मुझे बेदर्द नज़र आता है,

हर मर्द मुझे नामर्द नज़र आता है, हर शख्स मुझे बेदर्द नज़र आता है, ये ज़माना मुझे शेतान नज़र आता है, हर अपना मुझे बेगाना नज़र आता है, घूरती हुई नज़रों वाला भी हर कोई मुझे हेवान नज़र आता है, नज़ारे झुखा कर चलने वाला भी मुझे जिस्म का अभिलाषी नज़र आता है, कितने धोखे मिले हैं मुझे लोगों से, लगी हैं कितनी ठोकरे बस अपनों से, दिला कर ऐतबार अपनी वफ़ा का बेवफाई मिली है बहुत मुझे ज़माने से, खुद को मर्द कहने वाले, अक्सर अपनी बातों पे डटे रहने का ढोंग करने वाले मुझे फरेबी नज़र आते हैं, अक्सर साथ चलने का वादा करने वाले मुझे बीच राह में छोड़ने वाले नज़र आते हैं, ये मेरी नज़रों का धोखा है शायद या फिर बीते दिनों का दर्द है कही इस दिल में जो  ज़िन्दगी में मुझे हर अपना  दूर नज़र आता  हैं, वासना में डूबा हर शख्स मुझे रावण नज़र आता है, दिल लगा कर छोड़ जाने वाला हर मर्द भी मुझे नामर्द नज़र आता है.. 

ईश्वर वाणी(ishwar vaani) maanav vikratiyaan **40**

ईश्वर कहते हैं हमारे हाथों की जो उंगलियाँ हैं वो पांच प्रकार बुराइयां हैं अर्थात पांच प्रकार की बुराइयों की अर्थात व्याधियों की  प्रतीक हैं जिन्हें मनुष्य को त्याग कर प्रभु भक्ति, सत्कर्म एवं अछे एवं नेतिक आचरण का अनुसरण करते हुए मोक्ष प्राप्ति हेतु अग्रसर रहना चाहिए।

ईश्वर बताते हैं ये पांच प्रकार की बुराइयां मानव में कौन-कौन सी हैं  जिनके वशीभूत हो कर मानव इश्वरिये  कार्यों  की अवहेलना करके सदा दुःख को  प्राप्त  है। प्रभु बताते हैं ये बुराईयाँ हैं 'काम', 'क्रोध', 'लोभ', 'मोह' और अहंकार, प्रभु कहते हैं मनुष्य अपने इश्वरिये उद्देश्यों को  भूल कर इस मृत्यु लोक में केवल अपने शारीरक सुख एवं भोगों में लिप्त हो कर इन पांच तत्वों का गुलाम हो कर इश्वरिये कृपा को खो देता है एवं अपने इस मानव जीवन में दुःख पाता जो की प्रभु ने उसे मोक्ष पाने के लिए दिया है, इनमे लिप्त हो कर मनुष्य फिर सदा जन्म-मरण के चक्र में उलझा रहता है और दुखों को प्राप्त करता रहता है।