Sunday 16 October 2016

ईश्वर वाणी-१५७, धर्म की व्याख्या

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों धर्म के नाम पर तुम लड़ते हो किंतु ये है  क्या जानते भी हो,

हे मनुष्यों आदिकाल मैं जब कोई धर्म नही था केवल मानव और मानव कर्म ही थे समय के साथ मानव को मानव समुदाय मैं व्यवस्था लानी पड़ी, अन्यथा जैसे जैसे मानव की संख्या बड़ रही थी वैसे वैसे अव्यवस्था फैल रही थी, मानव समूहों मैं बट रहा था, नये नये अविष्कार कर रहा था, ऐसे मैं विभिन्न नियम समुदाय के हित हेतु उसने बनाये जिसे वय्वस्था कहा गया,

किंतु देश/काल/परिस्तिथी के अनूरूप मानव ने स्वार्थवस जब इसमें परिवर्तन कर निरीहों का दोहन शुरू कर मेरी सत्ता को चुनोती दी मैने वहं जन्म लेकर मानव को उसके करत्वयों, कर्मों का बोध कराया, जो मानव इस विचारधारा का अनुशरण करते गये जो मैंने उन्हे बतायी समय के साथ उन अवधारणाऔं को धर्म का नाम दिया गया,

किंतु देश, काल, परिस्तिथी के अनुसार जब जब मानव मैरी सत्ता को चुनोती देगा मैं आता रहूँगा और मानवता की सीख देता रहूँगा चाहे मेरी सीख को वो कोई भी नाम देकर नये नये धर्म बनाता रहे..

कल्याण हो"

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