Sunday 11 February 2024

धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्ति- लेख

 एक आध्यात्मिक व्यक्ति और धार्मिक व्यक्ति मे बहुत फर्क होता है, आमतौर पर दोनों को एक समझ लेते हैं जैसे- भगवान्, परमात्मा, देवता, और ईश्वर को, किँतु ये सब अलग है, ठीक वैसे ही धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्ति मे फर्क है,। 

धार्मिक व्यक्ति चाहे जिस भी धर्म का हो, वही पुरानी धार्मिक किताबो पर लिखें हुए पर चलता रहता है, खुद कभी सवाल नही करता, ईश्वर से जुड़ कर कभी परम सत्य जो उस किताब मे नही लिखा या पडा उसके बाहर जानने की चेष्टा नही करता, उसने अपनी सोच को एक सीमा मे कैद किया है और वो उससे बाहर निकलना ही नही चाहता, जो परंपरा विरासत मे मिली उसको ही निभा रहा है ये जाने बिना की क्या ये सत्य है भी, पर चला रहा उस परंपरा को। 
एक मिथ जो सदियों से फेलाया हुआ है की महिलाएं मासिक धर्म मे अशुद्ध होती है, इसलिए पूजा नही कर सकती, खाना नही बना सकती, और महिलाएं इस झूठ को सदियों से ढो रही है और आगे भी ढोती रहेंगी। 

लेकिन आध्यात्मिक व्यक्ति पुरानी रुदीवादी इस सोच का खंडन करता है, आध्यात्मिक व्यक्ति सिर्फ किसी किताब, मूर्ति या धार्मिक स्थल तक सीमित नही, उसकी सोच व्यापक होती है, वो जिस समुदाय मे जन्म लेते हैं, वहा मौजूद बुराई को खत्म करने का कार्य करते, अपने समुदाय से बुराई मिटाने के लिए गलत को गलत बोलने का साहस रखते हैं न की धर्म का चोगा ओड कर इस परंपरा को आगे बढ़ाते हैं, धीरे- धीरे उनकी बात से जो व्यक्ति सहमत होते जाते हैं वो जुड़ते जाते हैं, उनका एक समूह बन जाता है, नतिजतं परंपरवादी सोच के व्यक्ति उन्हे अपने अपने समुदाय से बेदखल कर देते हैं, प्रताड़ित करते हैं जैसे प्रभु येशु को यहूदियों ने किया, बुद्ध को हिंदुओं ने अपने समुदाय से पृथक कर दिया, महावीर को भी हिंदुओं ने ख़ुद से पृथक कर दिया, क्योंकि इन्होंने धार्मिक विचारधारा को नही बल्कि आध्यात्मिक सोच और विचारधारा को अपनाया। 

वही मीरा बाई को देखिये, कृष्ण भक्ति मे डूबी एक महिला, बहुत से तो उसको द्वापर मै किसी गोपी का रूप तक कहते हैं, उसने परंपरवादी सोच को अपनाया, मूर्ति पूजा की, कुछ नया समाज के सामने नही लाई, वही रटी रटाई धर्मिकता दिखाई इसलिए हिंदू बहुत मानते हैं। 

किंतु यहाँ एक समस्या और है, जो व्यक्ति आध्यात्मिक हो जाता है, उसकी सोच से जो समाज प्रभावित हो जाता है, वो उस आध्यात्मिक व्यक्ति को ही धर्म बना लेता है, प्रभु येशु ने न बाईबल लिखी न ईसाई धर्म बनाया, न भगवान् बुद्ध ने कोई धर्म बनाया, अपितु इन्होंने आध्यात्मिक परम सत्य से जग को परिचित करवाने का प्रयास किया तो लोगों ने इनको ही धर्म बना दिया 

यही मुख्य अंतर है धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्ति मे, धार्मिक व्यक्ति को धर्म के नाम पर मूर्ख बड़े आसानी से बनाया जा सकता है क्योंकि उसकी अपनी कोई सोच समझ नही, लेकिन आध्यात्मिक व्यक्ति को धर्मिकता और ईश्वर के नाम पर मूर्ख नही बनाया जा सकता क्योंकि वो सवाल करना जानता है, उसने रट्टा मार के ज्ञान हासिल नही किया अपितु गहन साधना और सवाल जवाब द्वारा ज्ञान हासिल किया  है, इसलिए उसको मूर्ख नही बनाया जा सकता, आध्यात्मिक व्यक्ति जाती, धर्म, संप्रदाय, भाषा, वेश भूषा इत्यादि से परे सत्य का साथ देता है, निरंतर खोज मे रहता है किंतु धार्मिक व्यक्ति सीमित सोच रखता है और उसको ही सत्य मानता है। 
एक कविता जो बचपन मे पड़ी थी वो धार्मिक व्यक्तियों के लिए है 
"सबसे पहले मेरे घर का अंडे जैसा था आकार
तब मै यही समझती थी की इतना सा ही है संसार"

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