Tuesday 17 January 2017

Muktak

"Ateet ki fir wahi baat yaad aati,
Ashqo ki fir wahi raat yaad aati hai,
Bewafa se dil lagane ki khata kya ki,
Tanhaiyo ki ye saugat yaad aati hai"

Sunday 15 January 2017

ईश्वर वाणी-१८४, धरती की अवस्थाये

ईश्वर कहते हैं, ''हे मनुष्यों जैसे मानव के भैतिक देह की एवम् सभी देह धारी जीवो की मुख्य चार अवस्थाये होती हैं वेसे ही पृथ्वी की चार अवस्थाये हैं, इन सभी अवस्थाओ को 'काल' नाम दिया है, ऐसा नहीं है केवल ये अवस्थाये पृथ्वी की ही है अन्य ग्रहो की नहीं, ये तो सभी ग्रहो की अवस्थाये है किन्तु जीवन केवल धरती पर होने के कारण धरती की प्रत्येक अवस्था का प्रभाव सीधा धरती के जीवो पर पड़ने के कारण मैं आज इसके जन्म पूर्व से लेकर अंत तक के विषय में संछिप्त ज्ञान दूंगा।

हे मनुष्यों जब धरती विभिन्न परिस्तिथियों में बन रही रही थी एवं सभी गृह उस समय इसी अवस्था में ही थे, ये बिलकुल वेसी ही प्रक्रिया थी जैसे किसी देह धारी के जन्म लेने से पूर्व की होती है, इसके पश्चात् आदि सतयुग व् सतयुग ये वह समय है जब धरती अपने शैशवास्था में थी, जैसे एक शिशु किसी भी बुराई से दूर होता है, ठीक उस युग में धरती अपने शैशव काल के समय थी।

त्रेता युग धरती का बाल्यकाल है, जैसे एक बालक अपने आस पास के वतावरन को देख कर व्यवहार करता है, कभी झूठ बोलता है कभी चोरी करता है, इस प्रकार छोटी छोटी बुराई उसमे आने लगती है, वेसे ही पृथ्वी पर बुराई जन्म लेने लगी, ये धरती का बाल्यकाल था।

द्वापर युग धरती का एक युवा युग था, जिस प्रकार कुछ युवा सत्कर्म करते है तो कुछ बुरे कर्म करते है, एक जोश और ताकत से सदा भरे होते है, ठीक वेसे ही धरती के युवावस्था के काल द्वापर युग में था, तभी उस काल में 'महाभारत'  जैसे युद्ध हुए, ये सब यव अवस्था के उस अधिक जोश और शक्ति प्रदर्शन के कारण हुआ जोकि धरती के उस युवा काल द्वापर युग में हुआ।

धरती की अंतिम अवस्था वृद्धवस्था अर्थात कलियुग, जैसे वृद्ध के पास अनुभव का अपार सागर होता है वैसे ही धरती के इस युग 'कलियुग' अर्थात वृद्ध अवस्था 
में अनेक अनुभव का अथाह भंडार है किन्तु जैसे वृद्ध अपनी इस अवस्था में कुछ स्वार्थी हो जाते है, सब कुछ जानकर भी अनजान हो जाते है, स्वार्थ में फस कर अंत की चिंता न करते हुए केवल भौतिक सुख को सब कुछ समझ कर उसे पाने में लगे रहते है, वेसे ही कलियुग रुपी धरती की वृद्धवस्था अर्थात कलियुग है, वृद्धवस्था के बाद मृत्यु एक सत्य है फिर नव जीवन भी सत्य है, उसी प्रकार इस युग के बाद फिर धरती की मृत्यु एवं फिर पुनः जन्म होता है,

हे मनुष्यों ये क्रिया अनंत काल से हो रही है और होती रहेगी, किन्तु हे मनुष्यों तुम सोच रहे होंगे ये निम्न अवस्थाये तो धरती की है फिर हम प्रभावित कैसे हुए, धरती को होना चाहिए, किन्तु हे मनुष्यों जैसे तुम्हारे जन्म से पूर्व से ले कर मृत्यु तक तुम्हारे शारीर के अंग प्रभावित होते है वेसे ही धरती पर समय के साथ परिवर्तन से तुम सब प्रभावित होते हो, तुम इसके उन अंगो के समान हो जैसे तुम्हारे शारीर के वह अंग जो तुम्हारी खाल से ढके तो है लेकिन तुम्हारी शारीरिक अवस्था में परिवर्तन के कारण प्रभावित होते है और तुम्हारी मृत्यु के साथ ये भी मृत्यु को प्राप्त होते है।"

कल्याण हो

Saturday 14 January 2017

ईश्वर वाणी-183, अतुल्य संस्कृति

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यूँ तो तुम्हें में पहले भी चारों युग की जानकारी दे चूका हूँ। किंतु आज आदि सतयुग के विषय के बारे में थोड़ी और जानकरी देता हूँ।

हे मनुष्यों आदि सतयुग वो 'काल' जब संसार में जीवन आ ही रहा था, उस समय इस धरती पर कोई मृत्यु भी नहीं होती थी, सभी जीव प्रेम और भाईचारे से रहते थे, उस समय धरती को मृत्यु लोक का नाम भी नहीं दिया गया था, सभी जीव एक समान ही थे, किसी भी तरह का न भेद भाव और न कोई बुराई थी, सभी आत्माए एक दूसरे का सम्मान करती थी,

हर एक जीव खुद को देह और अन्य को भी देह से नहीं अपितु आत्मा से अपना मानता था, हर तरफ केवल जीवन ही जीवन था।करोडो वर्षो तक ये सब ऐसे ही चलता रहा, बिना किसी बुराई के सभी जीव खुद को एक पवित्र आत्मा मान धरती की रक्षा कर इसे पावन करती रही,

किन्तु सतयुग के समापन और त्रेता के शुरू होने से पूर्व जीव आत्माओ में अनेक बुराइयां उत्पन्न होने लगी, देह के अभिमान में आ कर शक्तिशाली निर्बल को दबा कर उन पर शाशन करने की कोशिश करने लगा।।

किन्तु हे मनुष्यों आदि सतयुग में जहा धरती अनेक खंडो में न बट कर एक ही थी और अथाह सागर दूसरी तरफ,प्राणी जाती के आपसी बेर को देख कर सतयुग के आखिर और त्रेता युग के शुरुआत में भयन्कर भूस्खलन हुआ, फलताह जहाँ कभी भूमि थी वहाँ सागर आ गया और सागर के स्थान पर भूमि, कई जीव इस परिवर्तन को न झेल सके और मृत्यु को प्राप्त हुए, इस प्रकार धरती का नाम मृत्युलोक पड़ा, हर एक काल के बाद इसमें भारी परिवर्तन होता है जिसमे कई प्राणी मृत्यु को प्राप्त होते है, ये क्रिया है जो चलती रहती है साथ ही त्रेता से कलियुग तक सदा जीवन और मृत्यु साथ साथ चलेंगे।

हे मनुष्यों सतयुग आखीरी चरण व् त्रेता के प्रारंभिक चरण से ही मानव ने अपने समुदाय हेतु कुछ व्यवष्ठए और नियम बनाये ताकि कोई किसी का अहित न कर सके

हे मनुष्यों जब सतयुग के आखिर और त्रेता युग के शुरू में भूस्खलन हुआ और नए दीपो का उदय हुआ, वहाँ जो मानव जीवित बचे समय और परिस्तिथि के  अनुसार सभी ने कुछ नियम व् व्यवस्था बनायीं।

हे मानवो यही आगे चल कर रीति रिवाज़ व् संस्कृति कहलायी, समय के साथ बोली बदली भाषा बदली, सब कुछ काल के अनुसार हुआ। किन्तु जब जब जहाँ जहाँ मानव ने अपनी शक्ति के मद में आ कर मेरी सत्ता को चुनोती दी और प्रकति और प्राणी जाती का दोहन किया मैंने ही अनेक स्थानों पर एक अंश के रूप में उन स्थानों पर जन्म लिया।

हे मनुष्यों ये सब जान लेना तुम्हारे लिए अति आवश्यक है क्योंकि तुम ये अभिमान नहीं कर सकते की तुम्हारी संस्कृति सबसे प्राचीन है क्योंकि देश काल परिस्तिथि के अनुसार सारी संस्कृति ही प्राचीन है अतुल्य है किन्तु समय के अनुसार हर सभ्यता संस्कृति में बदलाव तो हुआ है और आगे भी होता ही रहेगा, जो जैसा है हमेशा वैसा नहीं होगा, इसलिए केवल खुद की संस्कृति को प्राचीन न बोल और घमंड मत दिखा, सब सामान है सब श्रेष्ठ है ये याद रख।

कल्याण हो
"Fir se us milan ki aas hai dil mein,

Jo kabhi na bichhade aisi pyas hai dil mein,

Kho jaaye ek doosre ki baaho mein ab bas,

dhadkan ban ek dusre ke hai rahe paas dil mein"

सदगुरु श्री अर्चना जी के आध्यात्मिक विचार

सदगुरु श्री अर्चना जी के अनुसार

सन्सार में सबसे सुखी वो नहीं जिसने अपनी मनचाही वस्तु को प्राप्त कर लिया है क्योकि इच्छाये कभी समाप्त नहीं होती, जिसे जो मिला वो और पाने की चाहत मन में रख कर दुखी होता है।
किन्तु केवल वो ही सुखी रह सकता है जिसने सब कुछ त्याग दिया हो, सच्चा सुख प्राप्त करने मैं नहीं अपितु त्याग में है।
एक गृहस्थ की अपेक्षा एक सच्चा सन्यासी अधिक सुखी और संपन्न होता है कारण-एक ग्रहस्थ की इच्छाये कभी पूरी नहीं होती, हमेशा और की भावना बनी रहती है, एक इच्छा पूरी हुई तभी दूसरी की लालसा, यही भावना दुःख का कारण है।
किन्तु सच्चा सन्यासी जिसे कोई लालसा नहीं, जिसने केवल प्रभु को चाहा उसकी भक्ति के अतिरिक्त किसी की लालसा नहीं की, केवल भक्ति का मार्ग चाहा और उस पर चला,
उसे जो परम सुख की अनन्त अनुभूति हुई वो भौतिक सुख की प्राप्ति में किसी को नहीं मिलती।।
एक सन्यासी जो सभी भौतिक वस्तु का मोह त्याग कर केवल ईश्वर से मोह रखता है वही सच्चा सुखी है।।
इसलिए सच्चा सुख कुछ पाने में नहीं अपितु त्यागने में है, जब हम भौतिकता त्यागेंगे तभी परम सुख दाता परमेश्वर को प्राप्त कर परम सुख प्राप्त कर सकते है।।

Tuesday 10 January 2017

ईश्वर वाणी-१८२, सच्ची पूँजी

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों युँ तो तुम अपने इस वर्तमान भौतिक देह को तमाम सुख सुविधा देने के अनन्य प्रयास करते हो, धन कमाते हो ताकी अधिक से अधिक सुख सुविधा पा कर आत्मसंतुष्टी प्राप्त कर सको,
किंतु क्या तुमने वास्तविक वो धन कमाया है जो इससे भी अधिक कीमती है!!

हे मनुष्यों तुम्हारे कर्म ही जीवन की सबसे कीमती पूँजी है, अच्छाई व सच्चाई के मार्ग पर यदि तुम चलते रहे बिनी डगमगाये तब तुम्हें वो सुख मिलेगा जो अनंनत है साथ ही अगला जन्म भी वही होगा जहॉ किसी भी वस्तु का अभाव नही होगा,

किंतु यदि तुमने बुराई का मार्ग अपनाया तो निसंदेह तुम अपने कर्मों से उस पूँजी का नाश कर रहे हो जो तुम्हे अनंनत सुख देकर एक सुखी व सम्रध्ध परिवार देती, तुम्हारे कर्मो व लालसाओं ने वह सब नष्ट कर दिया जो तुम्हे मिलने वाला था, मानव जन्म ही तुम्हे इसलिये मिला था ताकी इस जन्म मैं नेक कर्म कर अगला जन्म सुद्रण बना सको ऐसी पूँजी अर्जित कर सको!!

हे मनुष्यों ये भी सत्य है तुम्हारे सच्चे और नेकी के रास्ते पर चलते हुये मैं ही अनेक व्यवधान तुम्हारी परीक्षा हेतु डालता हूँ, मैं देखता हूँ मुसीबत मैं कैसे खुद को सम्भालते हो, कैसे अपनी सबसे कीमती पूँजी की रक्षा कर पाते हो, यदि तुमने मुसीबतों का सामना करके भी इस कर्म रूपी धन की रक्षा की तो अनंनत सुख के पात्र बन सुख प्राप्त करोगे किंतु मेरी परीक्छा से घबरा कर बुराई का मार्ग अपना कर्म रूपी पूँजी में कटोती की तो अनेक जन्मों तक दुख प्राप्त करोगे!!

हे मनुष्यों इस लिये इस भौतिक पूँजी के पीछे मत भाग, भाग तो उस धन के लिये जो तुझे अननंत सुख देने वाला है, तेरे भौतिक देह को ही नही अपितु तेरी आत्मा को सम्पन्न करने वाला है, इसके लिये थोड़ा कष्ट तुझे सहना पड़े तो सह, जैसे- तू किसी अच्छी नौकरी के साक्षत्कार के लिये गया, तुझे ये नौकरी तभी मिल सकती है जब इसे उत्तीर्ण करेगा, नौकरी देने वाला तुम्हारी कीबिलियत देखने के बाद ही तुम्हें नौकरी देगा और अनेक तरह से तुम्हें परखेगा और जब संतुष्ट होगा तब ही नौकरी देगा,

हे मनुष्यों एसे ही मैं तुम्हें परख कर ही जन्म व किस्मत देता हूँ, तभी कुछ व्यक्ति बहुत शीघ्र सफलता प्राप्त कर लेते है तो कुछ उमर भर इसके इंतज़ार मैं रहते हैं, सब कुछ पिछले जन्म मैं अर्जित पूँजी के कारण है, 

हे मनुष्यों यदि तुम्हें अगला जन्म सुख सम्रध्धी से पूर्ण चाहिये तो इस जीवन के सुख के पीछे न भाग कर आत्मा की उन्नती के पीछे भाग, आत्मा की उन्नती तेरे कर्म सुधार अननंत सुख देगी साथ ही अगले जन्म को हर सुख सम्रध्धी से परिपूर्ण करेगी किंतु तुझे प्रयास आज़ से अभी से प्रारम्भ करना होगा!!

कल्याण हो



Sunday 8 January 2017

ईश्वर वाणी-१८१, मानवता की शिक्षा

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों मैने ही आवश्यकता अनुसार देश, काल, परिस्तिथी के मुताबिक अपने ही एक अंश को धरती पर भेजा जब-२ धर्म व मानवता की हानी हुयी, आगे भी मैं अपने ही एक अंश को भेजता रहूँगा जब जब मानवता ही हानी  होगी,

हे मनुष्यों युँ तो मैं खुद सक्षम संसार को सत्य का मार्ग दिखाने के लिये किंतु तुम माया के अधीन हो इसलिये सहज़ मुझ निराकार परमेश्वर पर यकिं नही कर सकते, तुम्हें केवल इन भौतिक देह पर यकीन है, देह का उत्पन्न होना अर्थात नया जीवन आना देह का त्यागना अर्थात म्रत्यु होना, तुम्हारे लिये सब कुछ देह से जुड़ा है इसलिये तुम्हारे विश्वास के लिये मुझे भी देहधारी बना कर ही अपने एक अंश को धरती पर भेजा!!

हे मनुष्यों ये भी सत्य है तुम्हारे ह्रदय मैं जो सोच है उसे मैं ही लाता हूँ किंतु ये सब तुम्हारे पिछले जन्मों के कर्मों पर निर्भर है, इसलिय प्रेम व कटु भावना, ईर्ष्या द्वेष अनेक भाव, भक्ति व नास्तिक भाव, मेरे कौनसे रूप मैं आस्था तुम्हारी जागेगी ये सब मेरे द्वारा ही तुम्हारे पिछले जन्म के कर्मों से तय होता है!!

हे मनुष्यों देश, काल, परिस्तिथी के अनुसार मैंने ही अपने एक अंश को धरती पर भेज मानवता की होती हानी रोकने हेतु भेजा, जिसे वहॉ के रीति-रिवाज़ और भाषा के अनुरूप कही भगवान, कही गॉड कही फरिस्ता कहि मसीहा कहा गया, इसके साथ मानवता की रक्षा हेतु जिन शिक्षाऔं का प्रसार प्रचार किया उन पर विश्वास कर चलने वाले व्यक्तियों को अलग पहचान करने के लिये केवल मानव द्वारा नाम दे दिया गया धर्म!!

इस प्रकार भाषा व देश, काल, परिस्तिथी के अनुसार न सिर्फ मेरे अंश का नाम बदल मेरा नाम बदला मानवों द्वारा अपितु मेरी शिक्षा मेरे मानने वाले के द्वारा अन्य देश में गयी वहॉ मुझे और मेरे मानने वालों को उसी नाम से जाना जाने लगा जहॉ मेरे ही अंश ने मानवता का ग्यान दिया और ग्यान के प्रचार प्रसार हेतु जो व्यक्ति गये और वहॉ अन्य व्यक्तियों द्वारा इसपर विश्वास किया गया, उन्हें अलग कर पहचान देने के लिये नाम दिया गया 'धर्म', अमुक व्यक्ति उस धर्म का अनुयायी है, साथ ही जिन व्यक्तियों ने उन शिक्षाऔ को आत्मसात किया वह भी अपना नाम व मेरा नाम अपने क्षेत्र व भाषा के अनुसार न रख जिस रूप व नाम पर मुझपर आस्था रखी वहॉ की ही भाषा अनुसार उसने नाम भी रखा जो की आवश्यक नही है!!

आवश्यक केवल इतना है जिस रूप नाम व मेरे ग्यान पर विश्वास रखो किंतु मानव धर्म का सदा पालन करते रहो, देश, काल, परिस्तिथी के अनुसार मैंने हर बार तुम्हें केवल मानवता की ही शिक्षा दी है!!"

कल्याण हो