Wednesday 22 February 2017

कविता-गुज़रे वो पल

फिर वही दोस्त पुराने बहुत याद आते है
फिर अतीत के ज़माने बहुत याद आते है
हर गम से दूर यूँ खिलखिला कर हसना
गुज़रे वो हँसी तराने बहुत याद आते हैं


सपने थे आँखों में तब भविष्य को लेकर
पर नादान थे कितने ख्वाबो को लेकर
ज़िन्दगी थी न आसान जितना समझते थे
बेपरवाह थे शायद तब हर दिन को लेकर


काश वक्त का पहिया पीछे लौट जाता
बिछडा मेरा दोस्त फिर मेरे पास आता
गले लगा यूँ उसे दुनिया फिर भुला देते
काश भूला अतीत फिर आज हो जाता


ज़िन्दगी के फिर वही ज़माने याद आते है
तेरे लिये गाये हर वो गाने याद आते है
तेरे संग जो देखे थे सपने ऐ दोस्त मेरे
जीवन की राहों में वो बहाने याद आते है


फिर वही दोस्त पुराने बहुत याद आते है
फिर अतीत के ज़माने बहुत याद आते है
हर गम से दूर यूँ खिलखिला कर हसना
गुज़रे वो हँसी तराने बहुत याद आते हैं

Saturday 18 February 2017

ईश्वर वाणी-१९९, प्रत्येक योनि में सात बार जन्म जीवात्मा लेती है

ईश्वर कहते है, ''हे मनुष्यो यूँ तो तुमने सुना ही होगा कई मतानुसार व्यक्ति पुनःजन्म में विश्वाश करते है, मनुष्यों को अपने बुरे कर्म करने पर नीच योनि जैसे-कीड़े, मकोड़े, जानवर, पक्षी में जन्म लेना पड़ता है तत्पश्चात पुनः मानव जीवन प्राप्त कर उद्धार पाता है।

हे मनुष्यों निम्न  मान्यता के अनुसार जीवात्मा 84 लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य जन्म पाती है। 84 लाख योनियां निम्नानुसार मानी गई हैं।
* पानी के जीव-जंतु - 9 लाख
* पेड़-पौधे - 20 लाख
* कीड़े-मकौड़े - 11 लाख
* पक्षी - 10 लाख
* पशु - 30 लाख
* देवता, मनुष्य, भूत, पिशाच, प्रेत, चुड़ैल, डाकिनी-शाकिनी इत्यादि - 4 लाख।

हे मनुष्यों प्रत्येक योनि में जीव आत्मा को सात बार जनम लेना पड़ता है, किंतु ये जन्म एक ही योनि में तुरंत नही मिलता, जैसे आज तुम मनुष्य हो तो सात बार मनुष्य बन कर जन्म लोगे किंतु इस जन्म के तुरन्त बाद नही अपितु अपने कर्म फल भोगने के बाद तुम्हे नई देह तुम्हारे कर्म के अनुसार मिलेगी वो तुम्हारे कर्म पर निर्भर है जैसे तुमने यदि छल किया पिछले जन्म में तो इस जन्म में कुत्ते का जन्म होगा ताकि प्रायश्चित रूप में वफादार बनो।

इसी प्रकार हर योनि में सभी जीव आत्मा को सात बार जन्म लेंना पड़ता है किंतु जो आत्मा भूत, पिसाच, प्रेत, चुड़ैल, डाकिनी-शाकिनी जैसी योनियो में भटक रहे है उनकी आयु यदि एक लाख वर्ष पूर्व अर्थात जो इनकी वास्तविक पूर्ण आयु है इससे पहले इससे मुक्त हो जाते है तब भी पुनः इन्हें निश्चित योनियो में भटकने के बाद इसमें आना पड़ता है किन्तु यदि इन्होंने आत्मा की पूर्ण आयु अर्थात एक लाख साल पुरे करने के बाद कही जन्म लिया है तब इन्हें भूत, प्रेत, पिसाच, चुड़ैल, डाकिनी-शाकिनी जैसी अति नीच योनि में जन्म नही लेना पड़ता।

हे मनुष्यों किंतु तुम जो सुख या दुःख इस जीवन में पाते हो वो इस जीवन के कर्म से नही अपितु अनेक जीवन के कर्म से पाते हो किन्तु यदि पाप इस जीवन में करते हो तो अनेक योनियो में अर्जित पुण्य फल में कमी करते हो और अपने लिये खुद ही नीच योनि को प्राप्त करने का मार्ग प्रसस्त करते हो।"

कल्याण हो


Thursday 16 February 2017

ईश्वर वाणी-१९८, रिश्ते-नाते

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों तुम जिस देह के रिश्तों को अपना समझते हो ये अपने नहीं अपितु इस जीवन रूपी यात्रा में तुम्हारे सह यात्री है, तुम्हारा वास्त्विक घर मेरा लोक और सच्चा परिवार तो में ही हूँ।

तुम्हारे माता, पिता, भाई, बहन, पति, पत्नी, मित्र, रिश्तेदार सभी इस यात्रा में तुम्हारे सह यात्री मात्र है, जब तुम देह त्यागोगे और दूसरा जन्म लोगे तब जो आज तुम्हारे माता, पिता, भाई, बहन, पति, पत्नी, मित्र, रिश्तेदार है वो वहा नही होंगे, ऐसे ही ये व्यक्ति जहाँ जन्म लेंगे वहा तुम नही होंगे, इसलिये क्योंकि इस जीवन रुपी यात्रा के यात्री ये सब बस यही तक है, आगे की यात्रा के लिये नए यात्री मिलेंगे।

हे मनुष्यों किन्तु मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ था और रहूँगा, मैं उस समय से तुम्हारे साथ हूँ जबसे तुमने जीवन यात्रा प्रारम्भ की, मैं जब तक साथ हूँ जब तक सृष्टि का अस्तित्व है, मैं तुम्हारा आदि पिता, माता, भाई, बहन व् संबंधी हूँ, मेरे लिये तुम्हारा देह त्याग कर दूसरी देह ग्रहण करना आत्मा के वस्त्र बदलने के समान है, मैं तुम्हे तुम्हारी देह से नही तुम्हारी आत्मा से तुम्हे देखता हूँ, मैं तुम्हारा और तुम मेरे अपने हो क्योंकि आत्मा सदा है और रहेगी किंतु देह तो मिटने वाली है।

इसलिये जो रिश्ते भौतिक देह से बने है वो सच्चे नही केवल सह यात्री समान है, किन्तु सच्चा रिश्ता मेरा और तुम्हारा है, सच्चा रिश्ता-नाता तुम्हारा  और मेरा है, तुम्हारा अपना केवल मैं हूँ मैं ईश्वर हूँ।"


कल्याण हो

ईश्वर वाणी-१९७, इन्द्रियाँ

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यद्धपि तुमने इन्द्रियों एवम् उनके प्रकार के विषय में सुना व् पड़ा होगा, उनके कार्यो के विषय में सुना होगा, अक्सर ही कहते सुना होगा लोगो से अपनी इंद्रियो को वश में रखो।

इंद्रिया जो सभी जीव मात्र को अपने संवेदनाओ का बोध कराती है जैसे-सुख, दुःख, हसना, रोना, सुनना, देखना, सोना, जागना, बोलना, चुप राहना जैसे अनेक भाव दिमाग तक पहुचाती है और कैसा व्यवहार तब करना है ये दिमाग तय करता है।

किन्तु जो व्यक्ति इन्द्रियों पर नियंत्रण करना सीख जाते है वह हर स्थिति में  सदा एक से ही रहते है, उनका दिमाग समय के अनुसार व्यवहार बदलने के निर्देश नही देता, किन्तु ऐसा केवल एक सच्चा सन्यासी ही कर सकता है, बाकी तो सभी माया के अधीन हो कर खुद ही इन्द्रियों के वश में हैं।

हे मनुष्यों यद्धपि प्रत्येक जीव की आत्मा जन्म से पूर्व इंद्री विहीन होती है, इंद्री का जन्म शिशु के जन्म के बाद ही होता है किन्तु जब आत्मा जन्म लेने वाली होती है तब उसमे इंद्री नही होती जिसके कारण उसके किसी भी प्रकार की संवेदना का बोध् नही होता।

किन्तु जैसे ही देह धारण करती है अनेक सवेंदना को महसूस करने लगती है कारण इन्द्रियों के कारण सन्देश मष्तिष्क और मष्तिष्क उसके अनुसार व्यवहार करने लगता है।

हे मनुष्यों आत्मा और उसका  बल ही इस पर नियंत्रण कर सकता है, अक्सर मनुष्य सोचते है अच्छे बुरे कर्म तो देह करती है फिर परनाम आत्मा क्यों भोगती है, बुरे कर्म करने पर आत्मा कष्ट क्यों  भोगती है जबकि बुरे कर्म तो देह ने करे है।

इसका उत्तर है आत्मा पुरे शरीर की चालक है, ये ही इंद्री और मष्तिस्क को काबू करने में सक्षम है, यदि किसी की देह बुरे कर्म कर रही है तो इसका अर्थ आत्मा का नियंत्रण शरीर पर नही हो रहा, जैसे एक चालक का नियंत्रण उसके वाहन से जब बिगड़ जाये और कोई हादसा हो जाये तो दंड तो चालक ही पाता है न, न की वो वाहन, इसी कारण आत्मा को ही अच्छे बुरे का फल मिलता है।

इसलिये आत्मा का कार्य है शरीर में निरंतर उत्तपन्न होते भावो पर नियंत्रण रखना, यही क्रिया अर्थात इसे ही इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना भी कहा जाता है, यदि इस पर नियंत्रण कर लिया तो न मष्तिष्क तुम पर हावी होगा और न उसके अनुसार व्यवहार करोगे, अपितु सभी स्थितियों में समान बन मेरी कृपा के पात्र बनोगे, एक सच्चे साधू/संत/सन्यासी बन जगत का कल्याण करोगे।"


कल्याण हो

Tuesday 14 February 2017

ईश्वर वाणी-१९६, सन्यास का मार्ग


ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यु तो तुम्हे मैं साधू, संत और सन्यासी के बीच क्या भेद है बता चूका हूँ, किन्तु आज बताता हूँ सन्यास और सन्यासी के विषय में थोडा और विस्तार से।
सन्यास एक व्रत है जिसे हर व्यक्ति नहीं कर सकता, इसलिए साधू और संत जग में अधिक मिल जाते है किन्तु सन्यासी नहीं, एक सन्यासी वह होता है जिसने सबसे पहले अपने विषय में सोचना त्याग सभी जीव मात्र के लिए सोचना व् कार्य करना प्रारम्भ कर दिया हो, एक सन्यासी जाती, धर्म, सप्रदाय, भाषा, रंग, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, रीती-रिवाज़ जैसी किसी भी कुरीति को नहीं मानता, सभी जीवो में अपने परिवार को देखता है, पूरी धरती ही उसका घर है, जीवो को वो देह से नहीं अपितु आत्मा से देखता है तभी उसकी दृष्टि में कभी किसी की मृत्यु नहीं होती, क्योंकि आत्मा कभी मरती नहीं, साध ही समाज व् समस्त प्राणी की भलाई के विषय में ही सोचता है, निजी स्वार्थ उसमे नहीं होता, समाज की मुख्या धारा में न हो कर भी वो समाज के कल्याण हेतु की कार्य करता है।
साधू और संत के बाद ही आखिरी पड़ाव आता है सन्यासी का जिसे वैरागी भी कहते है, साधू जो साधक है, जो तुममे से कई होंगे ईश्वर अर्थात मुझ पर असीम आस्था रखने वाले, साधू जो घर में रह कर गृहस्थ जीवन का पालन कर रहे है वो भी है किन्तु गृहस्थी के बाद जो अर्थात गृहस्थ जीवन के बाद मेरी साधना के लिये घर से अलग हो जाते है वो भी है, ये सन्यासी की श्रेणी में नहीं आते क्योंकी कही न कही मन इनका परिवार में ही होता है।
इस पड़ाव के बाद आता है संत, ऐसे व्यक्ति भी गृहस्थ और अग्रहस्थ दोनों ही हो सकते है, जो व्यक्ति अपने परिवार और अपने पर आश्रित परिवार वालो के हित के कार्यो में लग कर भी सदा मेरे ही विषय में निःस्वार्थ सोचता रहे, भजता रहे, उपासना करता रहे, अपने कष्टो में भी मुझे दोष न दे, सभी कुछ सह कर भी मुझ पर असीम श्रद्धा रखे वही संत है, संत में सबसे पहला नाम इसलिए संत सुदामा का आता है।
तत्पश्चात आता है सन्यासी, साधू और संत के पड़ाव पूर्ण करने के बाद किन्तु जो विवाह जैसी संस्था में नहीं बधते एवं ईश्वर की भक्ति के लिये घर, परिवार व् समस्त रिश्तों को त्याग कर समस्त जगत को ही अपना मान लेते है वही सन्यासी है, अपने अंदर की समस्त बुराई का त्याग कर केवल इश्वरिये मार्ग पर चलने वाला, समस्त जीवो से सामान स्नेह रखने वाला, आवश्यकता पड़ने पर समाज के कल्याण के लिये ही कार्य करने वाला ही सन्यासी है।
ये मार्ग बहुत ही कठिन है, अधिकतर व्यक्ति इस मार्ग पर चलते तो है पर टिक नही पाते कारण वो अपने अंदर के कपट का त्याग नही करते, अपने अंदर की बुराई का त्याग कर इन्द्रियों को वष में नही करते, इसलिये इस मार्ग पर भटक जाते है।
हे मनुष्यों यदि कोई तुम्हे पीले, सफ़ेद, नारंगी या विशेष रंग के परिधान में व्यक्ति आ कर कहे की वो सन्यासी है तो उसके वस्त्रो से उसके सन्यासी होने पर यकीं करने से पहले पता लगा लेना की कि आखिर सत्य क्या है, अधिकतर कलयुग में ऐसे छलिया बहुत है।
अगर सच्चे सन्यासियो की बात की जाये तो चैतन्य महाप्रभु और स्वामी विवेकानंद का नाम पहले आता है।
एक सच्चा सन्यासी अपने ज्ञान का निःस्वार्थ प्रचार प्रसार करता है, सभी के कल्याण के विषय में विचरता है, मुझ पर असीम श्रद्धा रखता है, इसलिये मेरी भी विशेष कृपा को प्राप्त कर पाता है, इस व्रत और इस मार्ग पर केवल वही चल सकता है जिसकी आत्मा पावन हो अर्थात अपने पिछले कई जन्म उसने बुराई रहित जिए हो साथ ही जिसे मैंने स्वम इसके लिये चुना हो, तभी बहुदा बहुतो में से केवल एक ही सच्चा सन्यासी होता है।"
कल्याण हो

Saturday 11 February 2017

कविता


वो ठुकराते रहे हमें हम चोट खाते रहे
जख्मो पर वो मेरे सदा मुस्कुराते रहे,
खता उनकी भी नही खता हमारी थी
उनकी बेरूखी पर भी प्यार लूटाते रहे

उमर भर सदा यूँ वो हमे रुलाते रहे
दर्द दे कर हमेशा मुझे वो सताते रहे
बनी रहे सदा लबो पे मुस्कान उनकी
बेवफाई पर भी उनकी उन्हें चाहते रहे

उन्हें करीब लाने की हम हसरत करते रहे
प्यार भी उन पर यूँ बेशुमार हम लुटाते रहे
 तोड़ कर दिल मेरा खुश बहुत होते थे वो
 उनकी खुशी के लिये हर दर्द छिपाते रहे

गीत

गीत
ज़िन्दगी में कभी मैंने ऐतबार किया था
दिल का सौदा मैंने भी एक बार किया था
ख़ुशी की चाहत दिल में कभी थी मेरे
किसी की मीठी बातो पर इकरार किया था

मुस्कराहट थी लबो पर साथ उसका पा कर
उस बेवफा से इतना जो मैंने प्यार किया था

दर्द दे कर ख़ुशी से हस्ता रहा वो मुझ पर
मीठी ने तो बस इश्क़ का इज़हार किया था

बस एक मोहब्बत भरी नज़रे चाही थी उनसे
आखिर इज़हारे मोहब्बत पहली बार किया था

जीवन में ऐसा बस एक बार किया था
बस मैंने तो सिर्फ तुमसे ही प्यार किया था
ज़िन्दगी में कभी मैंने ऐतबार किया था
दिल का सौदा मैंने भी एक बार किया था-२"