Wednesday 8 November 2017

कविता-पास हो कर भी


पास हो कर भी कितना दूर है मेरा दिलबर मेरा सनम
मोहब्बत की सज़ा मिल रही है हमे हर पल हर कदम

नदिया के दो किनारे हुये हम,एक पर रहते हो तुम
दूसरे से तुम्हे हम देखते हैं ,करीब हो कर भी दूर है हम


इश्क की आग में जल रहे मोहब्बत करने वाले
आग की भेट कभी चढ़ रहे तुम, और मर रहे हम

कभी अपने कहने वाले होते थे कितने यहाँ
अब छोड़ तनहा हमे सब चले गये कहाँ

इंसानो की इस दिवार में कितने आशिक चिने
इश्क की आवाज़ को सदियो से वो कर रहे हैं बंद

मोहब्बत पर तो है बस मज़हब का पाबन्द
आशिक की लाशो को रोज़ गिनने लोग आते है

मोहब्बत करने वालो से लोग हमदर्दी दिखाते है
हुये जो सितम ये सबको सुनाये जाते है

देख 'मीठी' कैसे इश्क पर लोग पहरा लागए बैठे है
आशिकों के गम में 'ख़ुशी' अपनी छिपाये बैठे है

वादा कर और ना सहेगी 'मीठी' मोहब्बत में ये सितम
'खुशी' के लिये अब मर मिटेंगे ऐ ज़िन्दगी अब हम


पास हो कर भी कितना दूर है मेरा दिलबर मेरा सनम
मोहब्बत की सज़ा मिल रही है हमे हर पल हर कदम-२

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