Sunday 17 December 2017

कविता--इस जहाँ में मैं भी पंख फेलाना चाहती हुँ(आधुनिक परिवेश में नारी की पीड़ा)

"बस जहाँ में मैं भी पंख फेलाना चाहती हुँ
ऐ दुनिया मैं भी तो अब उड़ना चाहती हुँ

बंद कमरे का अँधेरा और कब तक सहु में
मैं भी तो अब ये उजियारा देखना चाहती हूँ

बेगुनाह हो कर भी सदियो से कैद हूँ में यहाँ
तोड़ इन जंजीरो को में अब जीना चाहती हुँ



अस्मत का हवाला दे मुझे गुलाम बनाया
आज यहाँ आज़ादी से साँस लेना चाहती हु

नारी हूँ तो क्या हुआ आखिर निर्जीव नहीं
बोझ नही आखिर में भी आधी आबादी हूँ

बहुत रख लिया कैद मुझे बता तुम हो नारी
है जगत की जननी नारी ये बताना चाहती हूँ

क्यों रहु कैद कितना आखिर अपराध बता
गुड़िया नही मैं माटी की ये जताना चाहती हूँ

है भावनाये मुझमे भी है उमंग ज़िन्दगी की
क्यों रखते हो कैद मुझे आखिर कैसे अपराधी हूँ

बस जहाँ में मैं भी पंख फेलाना चाहती हुँ
ऐ दुनिया मैं भी तो अब उड़ना चाहती हुँ-२"



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