Thursday 2 February 2017

ईश्वर वाणी-१९१, आत्मा जो परम है अर्थात परमात्मा को पहचानो

ईश्वर कहते है, "हे मनुष्यों यद्धपि संसार में मैंने अपने ही एक अंश को अपने समान अधिकार व् शक्तियाँ दे कर धरती पर भेजा जब जब जहाँ जहाँ मानवता की हानि व् प्राणी जाती का दोहन और जगत का शोषण हुआ, शक्तिशालियो ने निरीहों को सताने की सभी सीमाये जब भी पार हुई, धरती से जब जब रक्त के अश्रु गिरे, जहाँ जहाँ इसका रंग लाल हुआ मैंने अपने एक अंश को सभी अपने समान शक्ति व् अधिकार दे कर देश, काल, परिस्तिथि के अनुरूप भेजा, जिसे तुमने अपने रीति-रिवाज़ व् भाषा के अनुरूप कही मसीह कही खुदा कही भगवान कहा।

हे मनुष्यों मेरे इन्ही अंश ने देश, काल, परिस्तिथि के अनुरूप जो ज्ञान व् शिक्षाये संसार व् मानव जाती व् प्राणी जाती के लिए दी, उन्हें अपना कर चलने वालो को उन पर विश्वाश करने वालो को नाम दे दिया गया इंसान द्वारा ही 'धर्म', अर्थात वो व्यक्ति उक्त धर्म का अनुयायी है, इस प्रकार तुम्हारे द्वारा जन्म हुआ तुम्हारे द्वारा बनाये गए इस भेद-भाव पूर्ण धर्म का जो खुद को सदा श्रेष्ट और अन्य को नीचा कहता है।

हे मनुष्यों तुम आज धर्म के आधार पर लड़ते हो, इसलिये क्योंकि वो लोग मेरे अंश द्वारा दी गयी उस शिक्षा का पालन कर रहे है जिसका तुम  नहीं कर रहे, इसलिये तुम उसे नीची निगाह से देख रहे हो उसकी निंदा कर रहे हो क्योंकि वो मेरे उस अंश अथवा रूप पर आस्था रख मेरे वचनो का पालन कर रहे है जिसका तुम नहीं कर रहे, किन्तु ऐसा करके अपने ही पापो को बड़ा रहे हो।

ऐसा इसलिये तुम कर रहे हो क्योंकि तुमने मेरे द्वारा धरती पर भेजे मेरे अंश को उसके भौतिक रूप से जाना, देश, काल, परिस्तिथि, भाषा, रीती-रिवाज़, पहनावा जो उसने वहाँ के अनुरूप अपनाया उसे उसके ही आधार पर समझा, किन्तु तुमने उस आत्मा को नही देखा जो अनंत वषो से एक है,
'जैसे तुम किसी वस्त्र को धारण करते हो, फिर कल दूसरा फिर अगले दिन तीसरा किन्तु तुम तो वही रहे न केवल वस्त्र ही बदला',
'जैसे तुम शहर से गाँव रहने गये वहा के अनुरूप ही भाषा, रीती, रिवाज़, वेशभूषा तुम्हे अपनी पड़ती है, वैसे ही गाँव से शहर आने पर यहाँ के अनुरूप खुद को ढालना पड़ता है।
यदि तुम दूर देश जाओ रहने तब भी तुम्हे वहाँ के अनुरूप ही खुद को ढालना पड़ता है, देश, काल, परिस्तिथि के अनुसार भाषा, वेशभूषा, रीती-रिवाज़ सब बदल जाते  है जब तुम अपने एक स्थान से दूसरे दूर किसी स्थान पर जाते हो किन्तु मूल भाव तुम रहते तो वही हो न, न की बदल गए, कुछ और बन गये, परिवार और मित्रों के लिये तुम प्रेम भाव तो वही रखोगे न चाहे कितनी भाषा बदल जाये, वेशभूषा, रीती रिवाज़ दूसरे स्थान और वहा की परिस्तिथि के अनुसार बदल जाए।

हे मनुष्यों जब तुम नही बदले तो मेरा ही अंश जो मुझसे ही निकला है, अर्थात एक रूप से मैं स्वम अपने अंश के रूप में धरती पर देश, काल, परिस्तिथि के अनुसार जन्म ले कर आता हूँ मैं खुद कैसे बदल सकता हूँ।

हे मनुष्यों ये तुम्हारी बड़ी ही अज्ञानता है जो तुम सिर्फ इसलिए अपने बंधुओं से लड़ते हो व् उनके धार्मिक स्थानो को नुकसान पहुचाते हो जो मुझे अल्लाह, मसीह या भगवान कहते है, क्योंकि तुम्हारे पापो ने तुम्हारी आँखों को अँधा कर दिया है, तुम मुझे केवल भौतिक देह के आधार पर ही मान रहे हो, केवल उसे ही और उस रूप को ही सत्य मान रहे हो जिस पर तुम्हारी आस्था है, बाकी मेरे स्वरुप को नकार कर मुझपर विश्वाश करने वालो को नुक्सान पंहुचा रहे हो ऐसा करके तुम मुझ पर ही अश्रद्धा दिखा रहे हो और अपने पुण्यो को कम कर रहे हो।

हे मनुष्यों यही अज्ञानता और मूर्खता तुम्हारे अंत का कारण बनेगी, संभल जाओ और मेरे भौतिक नहीं वास्तविक रूप को पहचानो उसकी उपासना करो, मानव धर्म का पालन करो तभी उद्धार पाओगे, आत्मा जो परम है परमात्माँ मुझे पहचानो, मुझे मेरे अंश अथवा भौतिक रूप से नहीं उस सत्य से पहचानो से अनंत काल से है और रहेगा और जो तुम्हारा और समस्त जीवो व् समस्त ब्रह्माण्ड का जनक है।"

कल्याण हो

Monday 30 January 2017

कविता

"सब कुछ मिलता है बस एक सच्चा यार यहाँ नही मिलता
मिल जाता है सब कुछ पर सच्चा प्यार यहाँ नही मिलता

कदम कदम पर नित मिलते है हमराही इन रास्तो पर यहाँ
उमर भर साथ निभाए ऐसा वो दिलदार यहाँ नही मिलता

हमसफर हमनशीं कहने वाले बहुत है लोग यहाँ जगत में
इश्क़ को पूजता हो रब की जगह वो दमदार नही मिलता

झुक जाये जहा आसमान भी जिसकी देख कर ये आशिकी
दुनिया में ऐसा कोई शख्स मुझे यहाँ असरदार नही मिलता

महफिले तो मोहब्बत की सजती हर दिन मिल जाती है यहाँ
बिन कामना के मोहब्बत का हसीं वो संसार यहाँ नही मिलता

सब कुछ मिलता है बस एक सच्चा यार यहाँ नही मिलता
मिल जाता है सब कुछ पर सच्चा प्यार यहाँ नही मिलता"

Sunday 29 January 2017

ईश्वर वाणी-१९०,जन्म जनम


ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों जैसे किसी भी
जीव का जन्म उसके पिछले जन्म
के कर्म अनुसार होता है वैसे ही उसके कर्म
ही तय करते है देह त्यागने के
बाद उसे क्या बनना है।
हे मनुष्यों जिसे तुम मृत्यु समझ अंत मान लेते हो ये मृत्यु
नही अपितु ये
तो एक नया जन्म है।
जीव जब भौतिक देह धारी होता है, वो जैसे
कर्म करता है वैसे ही देह
त्यागने के बाद उसे क्या बनना है उसके भौतिक देह पर निर्भर है।
इसके साथ ही समस्त ग्रहो की दशा भौतिक
देह और जीवन पर प्रभाव डालती है
वैसे ही उस जीवन पर भी प्रभाव
डालती है, कर्मो के अनुसार ग्रहो की दशा तय
करती है कोन क्या बनेगा।
हे मनुष्यों कर्म व् गृह-नक्षत्र ये तय करते हैं की
भौतिक देह त्यागने
वाली आत्मा क्या और कौन बनेगी, अर्थात
पुण्य कर्म और श्रेष्ट नक्षत्र
धारी उदार हृदय धारी पित्र लोक जा कर सुख
की भागी बनती है। वही
अनेक बुरे9
कर्म वाली आत्मा भूत, पिशाच, प्रेत

सदगुरु श्री अर्चना जी के सच्चे आत्मिक प्रेम पर विचार

"मित्रों मैंने अक्सर देखा है लोग प्रेम शक्ल-सूरत, आयु, धन-दौलत,
रूप-रंग देख कर अर्थात जो भौतिक और नाशवान है उसे देख कर
ही करते है।
ऐसा प्रेम कभी भी आत्मिक न हो कर भौतिक
रह जाता है, और जो भौतिक है वो तो नष्ट होगा ही,
फलस्वरूप रिश्ते टूटने लगते है, कभी कभी
टूटते नही लेकिन ज़िन्दगी भर बोझ
की तरह ढोने लगते है।
यदि प्रेम को आत्मिक रूप से किया जाता, मन की आँखों से
दोनों प्रेमियो ने एक दूसरे को देखा होता, चाहा होता तो रिश्तों में कटुता
कभी नहीं आती न ही ये
रिश्ता टूट कर बिखरता।
धन-धन्य, शक्ल-सूरत, आयु, अमीरी-
गरीबी, रंग-रूप तो बाहरी है, मिटने
वाला है, आयु भी भौतिक देह की लोग आंकते
है, अगर आत्मा से प्रेम करोगे तब अहसास होगा की
दोनों प्रेमियो की असल आयु क्या है, आत्मा जो युगों से है
और आगे भी रहेगी वही
उसकी आयु है।
रूप रंग जो आत्मा का है वही सत्य है, जो शक्ल सूरत
आकर आत्मा का है वही सत्य है, बाकी तो
मिटटी का पुतला है जो मिटटी में ही
एक दिन मिलने वाला है।
इसलिए जो माया अर्थात नाशवान और धोखा है प्रेम उससे न करे,
आत्मा से करे, आत्मिक प्रेम से और क्या लाभ है ये तुम्हे इसे
करके ही पता चलेगा।"
कल्याण हो

Friday 27 January 2017

एक सच्ची कहानी



एक बहुत बड़े खगोलविद थे, भगवन पर बड़ी  आस्था थी, पर उनके एक परम मित्र थे जो कि पूरी तरह नास्तिक थे, अक्सर दोनो के बीच इस बात पर बहस हो जाती थी, खहगोलविद् कहते भागवान है जिन्होंने पूरी श्रष्टि बनाई है, किन्तु उनके मित्र खहते भगवान नही है, सब अपने आप बन गया अचानक।

इक दिन खगलविद् ने अपने मित्र को सबक सिखाने की सोची, एक दिन जब उनके वह दोस्त उनके घर से गये तो एक बड़ा से ग्लोब बनवाया, कुछ दिन बाद जब वह दोस्त उनसे मिलने उनके घर गया और ग्लोब देखा तो पूछा ये पहले तो नही था, ये कब बनवा लिया, इस पर खगोलविद ने कहा ये अपने आप बन गया मैंने नही बनवाया, उनके दोस्त बोले अपने आप कैसे बन सकता है मज़ाक छोडो सच बताओ, इस पर खगोलविद बोले ये सच है ये ग्लोब मैंने ही बनवाया है,अपने आप नही बना, सोचो पूरा ब्रमांड अपने आप कैसे बना होगा, इसे बनाने वाला जो है वो परमेश्वर है।

खगोलविद की बात उनके दोस्त को समझ आ गयी, और वो नास्तिक नही आस्तिक बन गये।

मुक्तक

मिलता नही यहाँ यूँ कुछ भी आसानी से
खो जाता है सब कुछ बस एक नादानी से
अपना कहने वाले मिलते बहुत हे लोग यहाँ
ज़ख्म गहरा वही दे जाते है अपनी बेमानी से

Thursday 26 January 2017

ईश्वर वाणी-१८९, ब्रह्माण्ड

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों संसार बनाने के लिए उसे
चलाने एवम् विनाश
करने (ताकि पुनः उसे बनाया जा सके) मैंने त्रिदेवोल
को भेजा, ब्रम्हा ने
विशाल अंडे नुमा आकर की रचना की, ये बिलकुल
उसी प्रकार था जैसे एक थैला
तुम लेते हो और उसमे जो तुम्हारी आवश्यकता है उसमे
डालते जाते हो, फिर सब
कुछ डालने के बाद देखते हो सब डाला है या नहीं,
निश्चित समय बाद सब
निकलते हो वो सब वस्तु जो तुमने डाली थी।
ब्रम्हा जी ने भी वही किया, इस विशाल अंडे के
आकर के अंदर जो उन्हें
अच्छा लगा सब दाल दिया, फिर निश्चित समय बाद
एक भयानक विष्फोट हुआ, और उस
विशाल अंडे से समस्त ब्रमांड का अविष्कार, तभी
पृथ्वी सहित सभी गृह अंडे
के आकर के है एवम् सभी गृह अंडे व्यास के अनुसार ही
अंतरिक्ष में भ्रमड
करते है।
हे मनुष्यों अभी तक तुमने यही सुना होगा की
अंतरिक्ष निराकार है किन्तु
आज तुम्हे बताता हूँ ये निराकार नहीं अपितु
अंडाकार है।
जिस प्रकार विशाल सागर में ज़हाज़ निश्चित दुरी
और निर्धारित जल सीमा को
ध्यान में रख कर सागर में घूमते है, वेसे ही आकाश में
सभी गृह उस विशाल
अंडे रुपी सागर में विचरण करते है।
हे मनुष्यों विशाल ब्रमांड की रचना जिस विशाल
अंडे से हुई वही प्रक्रिया
समस्त जीव-जन्तु, पेड़-पोधे की भी है, जीवन की प्रथम
क्रिया अथवा जीवन का
प्रथम चरण अंडा ही है।
अंडा जिसे ध्यान से देखो एक ज्योति अर्थात बिंदु
जैसा आकर नज़र आता है, ये
बिंदु उस विशाल शून्य से निकल आता है, भाव यही है
ब्रह्माण्ड भी जो भले
अंडाकार अथवा विशाल अंडा ही क्यों न हो शून्य से
ही इसका निर्माण हुआ है,
शून्य अर्थात कुछ नहीं किन्तु कुछ न हो कर भी सब
कुछ।
ऐसा ही अंडा जो कहने को कुछ नही पर एक जीवन
देता है जो इससे पहले नही था।
हे मनुष्यों इसलिए ब्रमांड अर्थात ब्रह्या का बनाया
सबसे पहला जीवन और
जीवन योग्य वस्तुओं को देने वाला अंडा।
हे मनुष्यों देश, काल परिस्तिथि के अनुसार तुम ब्रम्हा
पर यकीन करो न करो
पर उस विशाल अंडे पर यकीन अवश्य करना जो ब्रमांड
का जनक है।"

  • कल्याण हो