Thursday 24 May 2018

कविता-एक नई ज़मीन और आसमान ढूंढता हूँ मैं



"सदियों से यू प्यासा हूँ बस एक कुआ ढूंढता हूँ
फिर से एक नई ज़मीन और आसमान ढूंढता हूँ

शायद मिल जाये जहाँ में मोहब्बत के निशां
ऐ ज़िन्दगी ऐसा हमनसी और यार ढूंढता हूँ

कम पड़ जाती है ज़िन्दगी बस वफ़ा के लिये
मिले उमर भर वफ़ा  बस वो प्यार ढूंढता हूँ

इश्क में खेलने वाले इन ज़ज़्बातों से मिले बहुत
जो समझे इन ज़ज़्बातों को वो संसार ढूंढता हूँ

मज़हब के नाम पर लड़ ज़ख्म देते हर रोज़ यहाँ
इंसां को इंसा बनादे वो गीता-कुरान ढूंढता हूँ

सदियों से यू प्यासा हूँ बस एक कुआ ढूंढता हूँ
फिर से एक नई ज़मीन और आसमान ढूंढता हूँ-२"

कॉपीराइट@अर्चना मिश्रा




Tuesday 22 May 2018

चंद अल्फ़ाज़

"मैंने आज इश्क का ये पैगाम लिखा
इस महफ़िल में फिर सरेआम लिखा
कबूल कर न कर मर्ज़ी तेरी हमनशीं
दिल ने धड़कनो पर तेरा नाम लिखा"


"इश्क का दरिया युही बहने दो
दिलकी बात ज़ुबा पर आने दो
न रोको तुम अपने ज़ज़्बातों को
दिल से धड़कन की बात होने दो"



Monday 21 May 2018

ईश्वर वाणी-255, ईश्वर के द्वारपाल

ईश्वर कहते हैं, “हे मनुष्यों जैसे तुम किसी बड़े ओहदे वाले व्यक्ति से मिलने जाते हो और सबसे पहले तुम उसके सेवक व दरबान से मिलते हो, जब उसकी इच्छा व उसके मालिक की आज्ञा होती है तब तुम उक्त व्यक्ति से मिलते हो।

वैसे ही मुझ निराकार ईश्वर से मिलने से पहले तुम्हें मेरे द्वारा नियुक्त निम्न दरवानो से मिलना होगा, यद्धपि ये मेरा ही एक अंश है, इन्हें मैंने ही बनाया और अपना दरबान नियुक्त किया ताकि सही व्यक्ति ही मुझ तक पहुँच सके न कि हर व्यक्ति।
देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप तुम मेरे जिन अंशो को मानते व पूजते हो वो तो मुझ तक तुम्हे लाने मात्र का मार्ग प्रशस्त करते हैं, मेरी ही आज्ञा यदि होती है तब तुम्हे मेरे पास लाते है, मेरी ही आज्ञा से तुम्हारे जीवन का दुःख-सुख वो तय करते हैं, यद्धपि मेरे द्वारपाल है वो किंतु पूजनीय प्रत्येक व्यक्ति के लिए उतने ही है जितना मैं हूँ।
 जैसे माता पार्वती से उतपन्न गणेश भगवान को माता ने अपने स्नान ग्रह के बाहर उन्हें द्वारपाल नियुक्त कर ये आदेश दिया कि कोई भी उनकी इच्छा के बिना भीतर प्रवेश न करे, जिसका पालन श्री गणेश ने अपने पिता द्वारा अपना सर कटवा कर भी पूरा किया, ठीक वैसे ही इस संसार के समस्त देवी-देवता देश काल परिस्थिति के अनुरूप मेरी ही आज्ञासे जन्मे व जीव और प्राणी जाती का कल्याण कर मनुष्य को उसके कर्म, उसके जीवन के उद्देश्य, संसार मे उसका पद, उसके कार्य याद दिला कर मुझमे लीन हो गए, किन्तु उनके उस भौतिक स्वरूप और उनके उस भौतिक स्वरूप में दिए वचनों पर चलने व मानने वाले व्यक्ति के लिए उनका वही रूप मेरे द्वारपाल के रूप में उपस्थित हो कर मुझसे मिलने और न मिलने का निर्णय मेरी ही आज्ञा से ले आत्मा को उसके लोक व जन्म का निर्धारण करते हैं।
हे मनुष्यों ये न भूलों मैं ही समस्त जीवों का, समस्त ब्रह्मांड का,कण कण का स्वामी परमेश्वर हूँ, परम*ऐश्वर्य=परमेश्वर। जिसका शाब्दिक अर्थ है
प=प्रथम
र=राजा
म=मैं, महान
ए=एक
श=शक्तिशाली
व=वीर, विशाल अनन्त
र=राज्य
अर्थात संसार का सृष्टि का प्रथम राजा एक इकलौता महानों में महान मैं हूँ, मेरे अतिरिक्त कोई नही, में ही सर्वशक्तिमान शक्तिशाली वीरों में वीर इस सृष्टि रूपी राज्य का स्वामी में ही हूँ।
किंतु अपने समान ही समस्त अधिकार दे कर मैं अपने अंशो को धरती पर देश काल परिस्तिथि के अनुरूप भेजता हूँ, धरती व धरती के समस्त जीवों के कल्याण हेतु, उनके मार्गदर्शन हेतु व सही उद्देश बताने व उनकी ओर अग्रसर करने हेतु। 
तत्पश्चात समस्त जीवों के कल्याण व प्रकति की देखरेख हेतु मनुष्य का जन्म हुआ, मनुष्य को मेरे अंशो द्वारा धरती पर केवल प्राणी व जीव जाती का सेवक अर्थात एक ऐसा राजा नियुक्त किया जो इन पर शाशन नही अपितु इनकी सेवा कर सके, निम्न कार्यो को कर जो मेरे अंशों ने बतलाये उन्हें पूर्ण कर अनन्त जीवन को पाये।

किंतु मनुष्य अपनी शक्ति के मद में सब कुछ भूल बैठा है, और खुद को ईश्वर समझ बैठा है किंतु समय समय पर उसको में याद दिलाता रहता हूँ तुम एक इंसान हो सिर्फ इस धरती व जीवो के सेवक न कि मालिक क्योंकि मैं परमेश्वर हूँ।

कल्याण हो








Wednesday 16 May 2018

चंद अल्फ़ाज़ अपने लिए

"उफ कितना मासूम है ये चेहरा
रह रह कर चुराता है दिल ये मेरा
देख कर जिसे आता है प्यार मुझे
रिश्ता है मीठी का खुशी से गहरा"

"खुदा ने महनत से संसार बनाया
खुदा ने रहमत से मेरा यार बनाया
चाहे उसे दिल दिन रात युही बस
धड़कन ने उसे यु मन मे बसाया"

ईश्वर वाणी-254, ईश्वर की व्यवस्था

ईश्वर कहते हैं, "संसार में जितने भी प्राणी जितने भी जीव हैं मनुष्य उनसे अलग है, मैंने सभी जीवों के लिए व्यवस्था बनाई थी वो उस पर सदियों से चल रहे है जैसे-शेर हमेशा शिकार ही करता है, वो चाहकर भी सात्विक नही बन सकता (बड़े होने के बाद), मछली जल में ही रहती है, कुत्ता सदियों से वफादारी निभाता आ रहा है, पक्षी  हमेशा आसमान में उड़ते रहे, किन्तु कुछ जल व भूमि पर भी रहते हैं, सदियों से ये सभी प्राणी इस व्यवस्था पर कायम है, किंतु मनुष्य नही।

मैंने मनुष्य को व्यवस्था के अनुरूप समस्त प्राणियों की रक्षा हेतु भेजा था, जगत का व समस्त जीवों का सेवक बनने हेतु भेजा था, एक राजा का पद उसे दिया था जो अपनी प्रजा का पूर्ण ध्यान रख सके, एक राजा प्रजा का स्वामी नही सेवक होता है किंतु मनुष्य खुद को धरती का और सभी जीवों का स्वामी बन बैठा और मेरी बनाई व्यवस्था को नष्ट करने लगा।

निश्चित ही में मानव को दंड दूँगा और देता भी रहा हूँ किंतु मानव फिर से शक्ति के अभिमान में आ कर मेरी बनाई व्यवस्था को नष्ट करने में लगा है और यही एक कारण है मानव खुद अपने ही विनाश का कारण होगा।

हे मनुष्यों यही कारण है पृथ्वी के इस सबसे बुद्धिमान जीव की एक ही जाती मनुष्य जाति हो कर भी न सभी की भाषा एक है न रीति रिवाज, न रहन सहन और न पहनावा, यहाँ तक कि वो मुझे भी अनेक नाम व रूपो में इंसानी व्यवस्था के अनुरूप बाट कर आपस में लड़ते रहते हैं।

संसार में मनुष्य ही प्राणी ऐसा है जो एक जैसा हो कर भी एक दूसरे से कितना भिन्न है, ये भिन्नता खुद उसी ने बनाई है न कि मैंने, केवल मनुष्य ही है जो मेरी व्यवस्था से अलग खुद को ईश्वर समझ बैठा है और अपनी जाति में भी वहम फैला रहा है, मेरे द्वारा जो कार्य उसे दिया गया उसका गलत दिशा में उपयोग कर स्वार्थ सिद्धि में लगा है, किन्तु अन्य जीव मेरे द्वारा बनाई व्यवस्था पर सदियों से चलते आ रहे हैं और चलते रहेंगे, इस कारण अपनी  ही मनुष्य द्वारा बनाई व्यवस्था के साथ खुद ही अपनी जाति के विनाश का कारण होगा।

कल्याण हो

ईश्वर वाणी-253, काला रंग

ईश्वर कहते हैं, “हे मनुष्यों यु तो कई बार आकाश देखा होगा, इसकी अनन्त गहराई के विषय मे सोचा होगा, इसी आकाश में इसकी गहराई में ही समस्त ब्रह्मांड समाया हुआ है ये भी तुम्हे पता होगा। किंतु आज तुम्हे बताता हूँ इस ब्रह्मांड के वास्तविक रंग के विषय मे, यु तो तुमने कई रंग बिरंगे झिलमिलाते तारे व ग्रह देखे होंगे जो देखने मे बहुत अच्छे लगते है।

धरती से रात्रि के समय आकाश में देखने पर लगता है जैसे किसी ने अपने घर को सजाने हेतु बिजली की सुंदर लड़िया द्वार पर लगा घर के अंदर की बिजली बुझा वो  चेन से सो गया हो, लेकिन कभी गौर किया  इतनी रोशनी होने पर भी आकाश में अंधकार रूपी काला रंग अधिक है, इतनी रोशनी होने पर भी काले रंग की अधिकता है।
ऐसा क्या है जब कोई दिया या मोमबत्ती जलाई जाती है तो हर जगह तो रोशनी होती पर उसकी नीचे अंधेरा साथ ही एक निश्चित दूरी पर जाने पर भी इनकी रोशनी नही बल्की अंधेरा ही अधिक होता है, ऐसा क्या है धरती पर एक स्थान पर दिन तो दूजे हिस्से में रात होती है, ऐसा क्या है जो सागर की असीम गहराई में भी अंधेरा। होता हूं, जीव की परछाई भी काली क्यों होती है।
उत्तर है संसार का प्रथम रंग काला है, संसार मे ज्ञान, सच्चाई, नेकी, दयाशीलता, प्रेम व भ्रातत्व की भावना, सत्कर्म, ईश्वरीय आदेशो की मानना कर उनके पथ पर चलने वाले कम है किंतु बुराई का अनुसरण कर बुरे कर्म करने वाले अधिक है, किंतु इन थोड़े से अच्छे लोगों के कारण ही संसार आज सुंदर  दिखता है।

यद्धपि ब्रह्मांड के इसी काले रंग से ब्रह्मांड का जन्म हुआ है, इसकी उतपत्ति से पूर्व अंधकार ही व्याप्त था,न कोई दूरी न नज़दीकी, न कोई  धरती न आकाश, न ऊँचाई न नीचाई, किंतु इसी काले रंग से पहले रोशनी का निर्माण हुआ फिर जल का फिर समस्त ब्रह्मांड का, इस प्रकार इस काले रंग को शून्य भी कहा जाता है, शून्य अर्थात कुछ नही पर खुद में पूर्ण बिना इसके कुछ भी सम्भव नही है, और यही एक कारण समस्त भौतिक वस्तुओं के जन्म का तभी जो भौतिक है उसी के साथ ये काला रंग शुरू से जुड़ा है चाहे परछाई बन कर या छाया बन कर, बिना इसके भौतिकता सम्भव नही है, अतः समस्त भौतिकता को जन्म देने वाला ये काला रंग ही एक दिन सभी को अपने मे समा लेगा, फिर सब शून्य हो जाएगा,फिर से यही शुरू होगा, अर्थात काला रंग जीवन का और भौतिकता का प्रतीक है।

यही कार्य है इस सर्वव्यापी काले रंग का,जो मेरी ही आज्ञा से निरन्तर इस कार्य मे लीन है और सदा रहेगा,क्योंकि  में ईश्वर हूँ सभी का स्वामी परमात्मा हूँ।“


कल्याण हो


Saturday 12 May 2018

ईश्वर वाणी-252, संसार की उतपत्ति, मनुष्य का अस्तित्व

ईश्वर कहते हैं,  “हे मनुष्यों यद्धपि मैं ही समस्त संसार का स्वामी हूँ, मेरी ही इच्छा से समस्त ब्रह्मांड व जीवन का जन्म हुआ, मेरी ही इच्छा से जन्म व मृत्यु होती है किन्तु इतने बड़े ब्रह्मांड को व जीवन को उत्पन्न करने हेतु पहले मैंने अपने निम्न अंशों को खुद से उत्पन्न किया जिन्होंने मेरी आज्ञा का पालन करते हुए समस्त ब्रह्मांड व जीवन की उत्पत्ति की।

“एक आदमी था, उसके मन में विचार आया क्यों न में अपना खुद का घर बनाऊं जहाँ न सिर्फ में बल्की मेरी आने वाली पीढ़ी भी सुख चैन से उसमे रह सके। तो पहले उसने एक ज़मीन का टुकड़ा खरीदने की सोची,  उसने ज़मीन बेचने वाले से ज़मीन खरीदी, फिर उसने एक ठेकेदार को ठेका दिया मकान बनाने का, ठेकेदार अपने पाँच मज़दूरों के साथ घर बनाने को तैयार हो गया, लेकिन अब उस आदमी को आवश्यकता थी मकान बनाने हेतु ईंट, पत्थर, मिट्टी, रोड़ी, रेत, व अन्य सामग्री की, इसके लिए वो एक दुकान पर गया जहाँ से निम्न समान तो लिया किंतु समान उस स्थान तक पहुचाने हेतु तीन आदमी उस व्यक्ति को लेने पड़े दुकानदार से ताकि समान उचित स्थान तक पहुच सके।
इस प्रकार उस व्यक्ति का मकान बन कर तैयार हो गया, किंतु कभी कभी ही शायद कोई उन मज़दूरों उस समान वाले दुकानदार व उसके भेजे उन आदमियों व ठेकेदार व उस जमीन वाले का नाम लेता हो जिससे उस आदमी ने ज़मीन ली थी, हालांकि इनमे से एक के अभाव के बिना उस आदमी के घर का बनना नामुमकिन था, किंतु घर बनने के बाद लोग केवल यही कहते सुने गए कि तुमने बहुत सुंदर घर बनाया है, किंतु बाकी के सहयोग को सबने भुला दिया।“
भाव ये है इस समस्त ब्रमांड व जीवन को जन्म देने की मेरी ही प्रथम इच्छा थी, अर्थात इस ब्रह्माण्ड रूपी घर को बनाने की प्रथम इच्छा मेरी थी, मैंने ही सर्वप्रथम अपने एक अंश को उतपन्न किया जिसने समस्त ब्रमांड के लिए स्थान दिया, फिर इसको बनाने हेतु मैंने अपने ही एक अंश को जन्म दिया जिसने अपने से देवता, दैत्य, गंधर्व, किन्नर व मानव व समस्त जीव जाति की रचना की, फिर ब्रह्मांड रूपी घर के लिए निम्न सामग्री हेतु अपने ही एक अंश को जन्म दिया जिसने अपने तीन नौकर बनाये जो इस प्रकार है 1-जीवन, 2-मृत्यु, 3-नवजीवन, अब इन सबकी सहायता से समस्त ब्राह्मण व जीवन व मृत्यु व नवजीवन का निर्माण हुआ।

यद्धपि देश काल परिस्थिति के अनुरूप मनुष्य चाहे उस ज़मीदार की स्तुति करे जिससे मैंने समस्त ब्रह्मांड हेतु स्थान लिया था, अथवा उस ठेकेदार को मानव पूजे जिसने निम्नो को जन्म दिया या उस समान वाले को जिसने अपने तीन मज़दूर भेजे। ये सब मुझसे ही निकले और मुझसे ही जुड़े हैं, मनुष्य चाहे मुझ निराकार ईश को माने जो वास्तव में इस पूरे ब्रह्मांड का व समस्त जीवों का स्वामी है अथवा उनकी आराधना करें जिन्होंने अपना अपना योगदान किया इस विशाल घर को बनाने में, सभी मुझे प्रिये हैं किंतु जो जाती धर्म के नाम पर अराजकता फैला रहे हैं, खुद को और खुद के द्वारा निर्मित जाती धर्म को श्रेष्ठ बता रहे हैं वो पूर्ण अज्ञानी है।

हे मनुष्यों ये न भूलो समस्त मानव जाति का जन्म महज़ कुछ हज़ार वर्ष पहले का नही अपितु लाखो करोड़ो वर्ष पहले का है, यद्धपि कुछ अज्ञानी मानव सभ्यता को मात्र 4000 वर्ष पुरानी ही बताते हैं तो उन्हें आज बताता हूँ मनुष्य इतना बुद्धिमान नही था जो मात्र 4000 वर्षो में खुद को आज जैसा बना सके, यहाँ 4000 वर्ष का अभिप्राय 4 युग से है, पहला सतयुग, दूसरा त्रेता युग, तीसरा द्वापर युग और चौथा कलियुग। प्रत्येक युग के बदलने का समय तुम्हारे लिए लाखों हज़ारो या करोड़ो साल हो सकते हैं किंतु मेरे लिए पलक झपकने के समान है। इसलिए जो अज्ञानी मानव सभ्यता को मात्र हज़ारो वर्ष की मानते हैं उन्हें ये अवश्य जानना चाहिए, साथ ही में बता दु मनुष्य जाति व अन्य कई जीव जाती खत्म हो गयी उस दौर में जहाँ जब महादीप एक दूसरे से अलग हुए तो इस बीच कही महासागर तो कही विशाल पहाड़ तो कही विशाल रेगिस्तान का जन्म हुआ, किन्तु इसके साथ कई जीवन का अंत भी हुआ, किन्तु फिर मनुष्य जाति का उस नए स्थान पर जन्म व नई सभ्यता व संस्कृति का उदय हुआ, चुकी मनुष्य अपनी पिछली महान सभ्यता को भुला चुका था इसलिए जो अब उसे याद रहा वही सत्य वो समझ वो खुद को आज महज़ 4000 साल पुराना कहता है, किंतु वो पिछले कई करोड़ो लाखो वर्षो पुराने मानव अवशेषों को जो उसे मिलते रहे हैं ठुकराता रहा है, सत्य से मुख फेरता रहा है। किंतु सत्य तो यही है मनुष्य हज़ारो नही अपितु करोड़ो वर्ष पुराना जीव है बस समय के अनुरूप अवस्य कुछ बदलाव हुआ है और आगे भी होता रहेगा।“

कल्याण हो