Wednesday 16 May 2018

ईश्वर वाणी-254, ईश्वर की व्यवस्था

ईश्वर कहते हैं, "संसार में जितने भी प्राणी जितने भी जीव हैं मनुष्य उनसे अलग है, मैंने सभी जीवों के लिए व्यवस्था बनाई थी वो उस पर सदियों से चल रहे है जैसे-शेर हमेशा शिकार ही करता है, वो चाहकर भी सात्विक नही बन सकता (बड़े होने के बाद), मछली जल में ही रहती है, कुत्ता सदियों से वफादारी निभाता आ रहा है, पक्षी  हमेशा आसमान में उड़ते रहे, किन्तु कुछ जल व भूमि पर भी रहते हैं, सदियों से ये सभी प्राणी इस व्यवस्था पर कायम है, किंतु मनुष्य नही।

मैंने मनुष्य को व्यवस्था के अनुरूप समस्त प्राणियों की रक्षा हेतु भेजा था, जगत का व समस्त जीवों का सेवक बनने हेतु भेजा था, एक राजा का पद उसे दिया था जो अपनी प्रजा का पूर्ण ध्यान रख सके, एक राजा प्रजा का स्वामी नही सेवक होता है किंतु मनुष्य खुद को धरती का और सभी जीवों का स्वामी बन बैठा और मेरी बनाई व्यवस्था को नष्ट करने लगा।

निश्चित ही में मानव को दंड दूँगा और देता भी रहा हूँ किंतु मानव फिर से शक्ति के अभिमान में आ कर मेरी बनाई व्यवस्था को नष्ट करने में लगा है और यही एक कारण है मानव खुद अपने ही विनाश का कारण होगा।

हे मनुष्यों यही कारण है पृथ्वी के इस सबसे बुद्धिमान जीव की एक ही जाती मनुष्य जाति हो कर भी न सभी की भाषा एक है न रीति रिवाज, न रहन सहन और न पहनावा, यहाँ तक कि वो मुझे भी अनेक नाम व रूपो में इंसानी व्यवस्था के अनुरूप बाट कर आपस में लड़ते रहते हैं।

संसार में मनुष्य ही प्राणी ऐसा है जो एक जैसा हो कर भी एक दूसरे से कितना भिन्न है, ये भिन्नता खुद उसी ने बनाई है न कि मैंने, केवल मनुष्य ही है जो मेरी व्यवस्था से अलग खुद को ईश्वर समझ बैठा है और अपनी जाति में भी वहम फैला रहा है, मेरे द्वारा जो कार्य उसे दिया गया उसका गलत दिशा में उपयोग कर स्वार्थ सिद्धि में लगा है, किन्तु अन्य जीव मेरे द्वारा बनाई व्यवस्था पर सदियों से चलते आ रहे हैं और चलते रहेंगे, इस कारण अपनी  ही मनुष्य द्वारा बनाई व्यवस्था के साथ खुद ही अपनी जाति के विनाश का कारण होगा।

कल्याण हो

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