Tuesday 22 July 2014

ईश्वर वाणी -57

ईश्वर कहते हैं इस श्रष्टी में जो वो दिव्या जल है जिसमे समस्त ग्रह नक्शत्र विचरण करते हैं वो में ही तो हूँ, वो सब मुझमे ही तो समाए हैं, में ही स्वर्ग और मैं ही नरक हूँ, प्राणी के इस भोतिक स्वरूप के द्वारा जो भी कार्य वो करता है उसके उन्ही कार्यो के अनुसार में ही उसे स्वर्ग और नरग का मार्ग दिखा कर वो ही रूप उसे दिखलाता हूँ, 


ईश्वर बताते हैं स्वर्ग क्या है और नरक क्या है, ईश्वर कहते हैं जो पवन हैं, पवित्र, सच्चा है, जो अनेतिक्ता और हर तरह के व्याभिचार से कोषो दूर है, सभी प्राणियों को सुख एवम् सम्रधि देने वाला है वो स्वर्ग है,

इसके विपरीत जो हर तरह की बुराई से ओत प्रोत है, जहाँ दुआचरण, व्यभिचार, जलन, ईर्ष्या, पाप, एवं केवल स्वार्थवश अपने हित के लिए कार्य करने एवं अपने लिए ही सोचने जगह का नाम नरक है,


ईश्वर कहते हैं प्राणी अपने करमो के माध्यम से इसी मृत्यु लोक में ही स्वर्ग और नरक के दर्शन कर लेता है किंतु उसका हृद्या इतना मलिन हो चुका है की सब कुछ देख और जान कर भी वो कुछ नही समझता और बुरे कर्मों में लीन्न रहता है और अंततः नरक को प्राप्त करने का भागी बनता है,



ईश्वर कहते हैं ईश्वर को अपनी इन्ही आँखो से देखा जा सकता है किंतु उसके लिए प्राणी का हृदय पाक होने आती आवश्यक है, यदि मानव चाहे जितनी भी पूजा-भक्ति और उपवास आदि रख ले यदि उसका मॅन मलिन है तो ऐसा व्यक्ति कभी प्रभु को नही पा सकता, हो सकता है कुछ पल के लिए वो ईश्वर की कृपा पा भी ले किंतु आजीवन ईश्वर्िय कृपा के लिए प्राणी के हृदय को पाक होना आती आवशयक् है,



ईश्वर कहते हैं उस गगन में दिव्य सागर के रूप में मैं ही तो हूँ, मानव ने वाहा जा कर मुझे ढूँदने की चेष्टा की किंतु मैं उसे वाहा नज़र नही आया क्योकि मानव ने पूर्ण श्रीधहा से मुझे नही ढूडा, तमाम तारह के पाप के साथ वो मुझे ढूड़ने चला इसलिए ना तो उस दिव्या जल के रूप में उसे वाहा मिला और ना ही उस रूप में जिस रूप में मानव मेरी पूजा करता है,


ईश्वर कहते हैं जिस दिन मानव कलियुग के चक्र से आज़ाद हो कर निःस्वार्थ भाव से मुझे ढूँदने का प्रयास करेगा उस दिन मैं उसे उसकी मृत्यु से पूर्वा आवश्या मिलूँगा, उसी दिन मानव आकाश में बिखरा वो दिव्या जल भी देख सकेगा जो समस्त ग्रह-नक्षत्रो को अपने में लिए इस अंतरिक्ष में तेरा रहा है क्योंकि वो दिव्य जल में ही तो हूँ.. 

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