"मेरे प्रभु ,तेरे जैसा कोई नही
हे येशु ,तेरे जैसा कोई नही
ये सूरज, चाँद, सितारे
ये दिन, रात और हसीं नज़ारे
देखे है हमने बहुत
पर मेरे येशु जैसा कोई नही
मेरे प्रभु तेरे जैसा कोई नही
मेरे प्रभु , तेरे जैसा कोई नही
हे येशु, तेरे जैसा कोई नही
पापियो को भी तूने माफ़ किया
हर किसी का तूने इंसाफ़ किया
कितनो को ये वरदान दिया
मृतको को भी जीवन दान दिया
मेरे येशु तू करुणा का सागर
तू ही है प्रभु प्रेम की गागर
मेरे मालिक, तुमसा यहाँ कोई नही
मेरे प्रभु ,तेरे जैसा कोई नही
हे येशु ,तेरे जैसा कोई नही
मेरी हर फरियाद सुनता है तू
पल पल मुझे याद करता है तू
तुमने सिखाया हमे प्रेम का पाठ
दुनिया के लिये त्यागे अपने प्राण
मेरे प्रभु ,तेरे जैसा कोई नही
हे येशु ,तेरे जैसा कोई नही
तू सादा तेरा जीवन भी सादा
नही तोड़ी तूने कोई मर्यादा
जब जब जिसने तुझको पुकारा
तुम बने सदा प्रभु उनका सहारा
आगे तुम्हारे वो शैतान भी हारा
फिरता रहा वो फिर मारा-मारा
मेरे प्रभु ,तेरे जैसा कोई नही
हे येशु ,तेरे जैसा कोई नही-४"
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Tuesday, 12 December 2017
प्रभु येशु गीत
Sunday, 10 December 2017
कविता-शादी
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"सुना है दिलो से घरों को जोड़ती है शादी
सुना है एक गैर को अपनों से जोड़ती है शादी फिर क्यों टूट रहा रिश्तों का विश्वाश यहाँ अब केवल दो दिलो को ही जोड़ती है शादी मनाते है जश्न टूटते रिश्तों का उस दिन खूब जब दो अजनबियों को एक कराती है शादी मात-पित, भाई-बहन, सखा-सहोदर होते खुश गैर से रिश्ता जोड़ जब अपने की करते है शादी नही जुड़ता कोई जब इस टूटे हुए नए रिश्ते से ये जीवन अभिशाप बता कर दी जाती है शादी नए नाते ऐसे मिले पुराने हुये यहाँ अब माटी नए से नाता जोड़ पुरानो से मिली आज़ादी खून के रिश्तों की खूब करते आज बर्बादी अकेले नही अब हम दो है सदा करके शादी अब बढेगा संसार मेरा आँगन गाये गीत प्रिय-प्रीतम संग रहेंगे बढेगी फिर आबादी टूट कर बिखर जाये चाहे खून के आँसु रोये छोड़ कर खून के रिश्ते हमने तो की है शादी पूछे मीठी -ख़ुशी से क्या है मोल अपनों का दिलो को जोड़ क्यों अपनों को तोड़ती है शादी ज़िन्दगी का हसीं पल लगने लगता है कड़वा यूँ आखिर इन रिश्तों को किस और मोड़ती है शादी
सुना है दिलो से घरों को जोड़ती है शादी
सुना है एक गैर को अपनो से जोड़ती है शादी-२" |
Wednesday, 6 December 2017
कविता--तेरी याद दिन रात मुझे रुलाती है
"'मीठी' सी तेरी याद दिन रात मुझे रुलाती है
तेरी हर बात 'ख़ुशी की मुझे बहुत सातती है
तुम छोड़ गए तनहा इस महफ़िल में मुझे
फिर भी धड़कन तुमको ही बस बुलाती है
कहते है सब तुम नही अब जहाँ में कही
इन अश्को मे तुम्हारी ही सूरत नज़र आती है
कैसे मान लू जग की बात की तुम नही हो
हवाओ में खुशबू तुम्हारी मुझे महकाती है
रहते हो मेरी साँसों में तुम ज़िन्दगी बनकर
ज़िन्दगी लम्हा लम्हा मुझे ये बतलाती है
ज़िन्दगी के हसीन वो पल जो साथ जिये हम
'मीठी' 'ख़ुशी' को पल पल पुकारे जाती है
वो गीत प्रेम के साथ गुनगुनाते थे कभी हम
तेरी याद में अकेली बैठी 'मीठी' गाये जाती है
आँखों का पलक सा रिश्ता था हमारा कभी
बेवफा निकली साँसे बुझ गयी दिये से बाती है
तड़पती हूँ हर पल यहाँ पुकारा तुझे करती हूँ
'ख़ुशी' के बिना 'मीठी' अधूरी बस कहलाती है
'मीठी' सी तेरी याद दिन रात मुझे रुलाती है
तेरी हर बात 'ख़ुशी की मुझे बहुत सातती है-२"
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Monday, 20 November 2017
ईश्वर वाणी-२२६, अज़र अमर भौतिक देह
ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यद्दपि तुमने ये अवश्य सूना होगा की ये देह
पंच भौतिक तत्वों से बनी है और अंत में इन्ही में मिलकर समाप्त हो जाती
है अर्थात उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है किंतु उसका सूश्म शरीर अर्थात
आत्मा सदा विचरण करती रहती है जब तक उसे कोई नई देह नहीं मिल जाती।
हे मनुष्यों आज तुम्हें बताता हूँ मैं की किसी भी जीव की मृत्यु के
पश्चात भी उसकी आत्मा अर्थात सूक्ष्म शरीर के साथ उसका भौतिक शरीर भी इस
भौतिक जगत में विराजित रहता है, जैसे:- 'एक कुंभार मिटटी से कोई पात्र
(बर्तन) बनाता है जिसकी उसे आवश्यकता है, फिर उसमे अपनी आवश्यकता अनुसार
कोई वस्तु रखता है, किंतु समय के साथ वो पात्र पुराना हो जाता है, कही से
दरार तो कही से टूटने लगता है, अब कुंभार सोचता है क्यों ना इसका पुनः
निर्माण करू और अब इस मिटटी से दूसरा पात्र बनाऊ, अथवा कभी कभी कुंभार
आवश्यकता बदलने पर फिरसे उस मिटटी के पात्र को नष्ट कर उसमिट्टी से नए
बर्तन बनाता है फिर अपनी आवश्यकता के अनुसार वस्तुओ को रखता है।'
हे मनुष्यों वैसे ही ये भौतिक काया है, यद्दपि तुम जिसे कहते हो की ये
देह नष्ट हो कर पंच तत्व (आकाश, वायु, अग्नि, जल, मिटटी) में विलीन हो
गयी किंतु ऐसा नही है, अपितु ये काया ब्रह्माण्ड में घूमती रहती है बिलकुल उस कुंभार के बर्तन की बिखरी मिटटी की भाति जिसने अपनी अवश्यक्ता के अनुसार पुराना पात्र नष्ट कर दिया अथवा पुराना एवं जर्जर होने के कारण कुंभार को वो नष्ट करना पड़ा ताकि फिरसे उस मिटटी से नया पात्र बना सके और आवश्यकता अनुसार उसमे सामग्री रख सके।
हे मनुष्यों ये काया भी अपने पंच तत्वों के साथ ब्रह्माण्ड में विचरण करती रहती है बिलकुल कुंभार के उस बर्तन की बिखरी हुई मिटटी की भाति जिसे अपने पुनः निर्माण की जल्द ही उम्मीद होती है कुंभार से।
हे मनुष्यों इस समस्त श्रष्टि का कुंभार मैं ही हूँ, मैंने ही समस्त ब्रह्मांड, जीव, जंतु, ग्रह, नक्षत्रो का निर्माण किया है, मैं ही उन्हें उनके कार्य पूर्ण कर नष्ट करता हूँ, जीवो की देह भी उस मिटटी के बर्तन की तरह है और आत्मा वो वस्तु है जो उस बर्तन में रखी जाती है।
हे मनुष्यों तुम्हारे कर्म अनुसार फिर उसी कुम्हार की मिटटी जेसे ही तुम्हारी देह इन पंच तत्वों से बनाई जाती है और आत्मा रुपी वस्तु उसमे रखी जाती है।
हे मनुष्योंओ समस्त ब्रह्मांड में ये पंच तत्व उपलब्ध है जिनसे ये समस्त जीवो की भौतिक देह बनती है, ये किसी काया के नष्ट होने के पश्चात पुनः ब्रह्मांड में पहले की ही भाति विचरण करने लगती है और निश्चित समय के बाद पुनः आकर देह धारण कर आत्मा रुपी वस्तु को अपने में समा कर कर्म करने मृत्यु लोक में पुनः जन्म लेती है, ऐसा ही आदि काल से होता आ रहा है और अनंत काल तक होता रहेगा।
भाव यही है जैसे आत्मा अज़र अमर है वैसे ही भौतिक देह भी अज़र अमर है बस उसका रूप परिवर्तित होता रहता है समय समय पर जो आवश्यक भी है, अतः भौतिक देह के मिटने पर जीवो के अंत का शोक न करे क्योकि आत्मा की तरह वो भौतिक शरीर भी जीवित है, यही श्रष्टि का नियम है जिसे मैंने बनाया है और मैं ईश्वर हूँ।"
कल्याण हो
Saturday, 18 November 2017
कविता-तुम मुझमे रहते हो
"में तुझमें और तुम मुझमे रहते हो
दूर जा कर भी क्यों पास होते हो
क्या ये जादू किया है तुमने सनम
पल-पल सजन मेरे दिलमे रहते हो
खुद को किया दूर तुमसे जितना भी
करीब उतना ही हर बार होते हो
पूछती है'मीठी'क्या इश्क है तुमसे
हर 'ख़ुशी' में हमदम तुम्ही होते हो
ख्वाब कहु तुम्हें या तुम हो हकीकत
दिल की धड़कन में तुम धड़कते हो
किया तुमने हमे खुद से दूर जब भी
छिप छिप के सनम तब तुम्ही रोते हो
पहचान लेते हो अश्क मेरी आखो के
भीगी इन पलको को तुम पोछ देते हो
कैसे कहु तुम्हें तुम हो जुदा मुझसे
तुम्ही तो दो ज़िस्म एक जान कहते हो
में तुझमें और तुम मुझमे रहते हो
दूर जा कर भी क्यों पास होते हो-२"
दूर जा कर भी क्यों पास होते हो
क्या ये जादू किया है तुमने सनम
पल-पल सजन मेरे दिलमे रहते हो
खुद को किया दूर तुमसे जितना भी
करीब उतना ही हर बार होते हो
पूछती है'मीठी'क्या इश्क है तुमसे
हर 'ख़ुशी' में हमदम तुम्ही होते हो
ख्वाब कहु तुम्हें या तुम हो हकीकत
दिल की धड़कन में तुम धड़कते हो
किया तुमने हमे खुद से दूर जब भी
छिप छिप के सनम तब तुम्ही रोते हो
पहचान लेते हो अश्क मेरी आखो के
भीगी इन पलको को तुम पोछ देते हो
कैसे कहु तुम्हें तुम हो जुदा मुझसे
तुम्ही तो दो ज़िस्म एक जान कहते हो
में तुझमें और तुम मुझमे रहते हो
दूर जा कर भी क्यों पास होते हो-२"
Wednesday, 15 November 2017
मुक्तक
देखो फिर वही रात हो गयी,
अंखियो की पलको से बात हो गयी
मीठे सपनो में वो आने लगे धीरे धीरे
पिया से मेरी आज मुलाकात हो गयी
अंखियो की पलको से बात हो गयी
मीठे सपनो में वो आने लगे धीरे धीरे
पिया से मेरी आज मुलाकात हो गयी
Saturday, 11 November 2017
वो मज़बूर हैं और हम (एक सच्ची कहानी)
नोट-ये कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है जो भारत के ही किसी जंगल में घटी थी, कहाँनी के अनुरूप कुछ परिवर्तन अवश्य यहाँ किये गए है किंतु इससे कहानी के मूल तत्व में कोई परिवर्तन नही हुआ है साथ ही ये सोचने पर मज़बूर करता है मासाहारी जानवर मज़बूर है मासाहार और जीव की हत्या के लिये क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प नही है लेकिन इंसान जो केवल जीभ के स्वाद के लिए किसी की हत्या करता है उसे क्या सचमुच इंसान कहना चाहिये, सोचिये और सम्भव हो तो कहानी पड़ने के बाद अपने कमेंट जरूरलिखे।
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