Saturday 31 December 2016

ईश्वर वाणी-175, आध्यात्म कि आवश्यकता

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों युँ तो तो तुम्हें मैं पहले भी आध्यात्म का अर्थ बता चुका हूँ, किंतु आज़ तुम्हें मैं बताता हूँ मानवीय जीवन मैं आध्यात्म का क्या महत्व है??

आध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है आत्मा का अध्यन अर्थात आ+त+म+आ= आत्मा

आ= आदी
त= तत्व
म= मैं
आ= आवश्यक, आदि, अनादि, अनंत,

अर्थात:- आदी तत्व मैं,आवश्यक, अनंत, अनादी आदी

अध्यन अर्थात मंथन गहन चिंतन,
अ+ध+य+न अध्यन

अ= आवश्क
ध= ध्यान
य= योग
न= नियम 

मुझे पाया जा सकता है केवल आवश्यक ध्यान योग और नियम से,

हे मनुष्यों आध्यात्म केवल पुष्तक पड़ने और उस पर विश्वास करने से हासिल नही होता, जब तक  आत्म का चिंतन नही होगा आध्यात्म की प्राप्ती नही होती,

हे मनुष्यों आध्यात्म तुम्हें मुझसे जोड़ता है, यदि तुमने आध्यात्म को समझ लिया आत्मसात कर लिया तब तुम्हें मुझसे जोड़ने से कोई नही रोक सकता,

इसलिये प्रत्येक मनुष्य के लिये आध्यात्म अति आवश्यक है, केवल आध्यात्म ही तुम्हें और पशुऔं मैं भेद करता है, केवल तुम ही आध्यात्म को आत्मसात कर मोझ को प्राप्त कर सकते हो, केवल इसके माध्यम से तुम अपने मानव जीवन के महत्व और उद्देश्य जान सकते हो।

हे मनुष्यों इसलिये केवल पुष्तकिय ग्यान (जो देश, काल, परिस्तिथी के अनुसार) परिवर्तित होते रहते है उन पर ही केवल विश्वास न कर कर श्रेष्ट गुरू जन(जो किसी धर्म, जाती, भाषा, सम्प्रदाय, रंग-रूप) का पछ न कर  सम्पूर्ण मानव जाती व प्राणी जाती के हित एवँ मेरे निराकार रूप कई शिक्षा देता हो।

हे मनुष्यों यदि ऐसा कोई गुरू तुम्हें न मिले तो मुझे ही अपना गुरू बनाओ मैं ही तुम्हें आध्यात्म की दीक्षा दुँगा।"

कल्याण हो




Tuesday 27 December 2016

ईश्वर वाणी-१७४, मेरे अंश

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों देश/काल/परिस्तिथी के अनूरूप  मैंने ही अपने ही एक
अंश को भौतिक देह धारण कर धरती पर जन्म लेने के लिये भेजा,
देश/काल/परिस्तिथी के अनुरूप तुमने उसे कही मसीहा कहा कही फरिश्ता तो कही
अवतार,

उसने तुम्हें देश/काल/परिस्तिथी के अनुसार वह बातें कही जिन्हें तुम भूल
गये अथवा भुला दिये गये (बुरे कर्मों द्वारा),
हे मनुष्यों जो व्यक्ति उनके द्वारा बतायी गयी सुझाई गई धारणा पर चलने
लगा वह उस पर विश्वास करने लगा मानव ने एक नाम दे दिया धर्म और इस प्रकार
मानव के साथ मुझे भी बॉट दिया,
हे मनुष्यों संसार का प्रथम तत्व मै ही हूँ, मैने ही जगत की रचना हेतु
प्रक्रति की रचना की, प्रक्रति ने ही ब्रम्हा के द्वारा धरती पर जीवों व
जीवन की रचना की, सबको समान बनाया, और जगत के कल्याण के लिये कुछ व्यवस्थायें  बनायी,

किंतु मानव को संसार का प्रहरी बनाया, सभी जीवों का कल्याणकर्ता बनाया, इस प्रकार मैंने मानव धर्म की स्थापना की,
लेकिन समय के साथ शक्ति के मद मैं मानव अपने उन कर्मों को भूल गया, अपने वास्तविक धर्म को भूल गया, जो
मैंने उसके लिये निर्धारित करे थे,और इस प्रकार मानव न सि्र्फ अपनी जाती
का अपितु अन्य जीवों का दोहन करने लगा,
मानव को उसके वास्तविक कर्म याद दिलाने हेतु मै निराकार परमात्मा खुद
उसका मार्गदर्शन कर सकता था किंतु मानव मेरे इस स्वरूप को न सहज़ स्वीकार
करता न ही मेरे द्वारा दी गयी शिछा का प्रचार प्रसार कर अन्य मनुष्यों को
इस पर चलने की प्रेरणा देता,

मैने ही इसलिये अपने ही एक अंश को प्रक्रति द्वारा धरती पर भौतिक शरीर
मैं जन्म कराकर देश/काल/परिस्तिथी के अनुरूप ग्यान का व शिछा का (जो जगत
व प्राणी जाती के हित मै है) प्रचार प्रसार कराया और. अंत: उन्हें भी
भौतिक देह त्यागना पड़ा ताकी मानव जान सके जीवन अमूल्य है किंतु देह सदा
नाशवान है, साथ ही जो व्यक्ति मेरे द्वारा धरती पर जन्म लेने वाले अंश पर
यकिं करते गये, विश्वास करते गये मैंने उनके विश्वास की लाज़ रख कर फिर
यही संदेश दिया 'मैं ईश्वर निराकार हूँ, भौतिकता मैं बधॉ नही हूँ,
अजन्मा, अविनासी, अदभुत, आदि शक्ति मैं ही हूँ, मैं ईश्वर हूँ'!!!"

कल्याण हो

कविता-जीवन की इन राहों पर मैं नित नित बड़ते जाता हूँ



"जीवन की इन राहों पर मैं नित नित बड़ते जाता हूँ
संघर्षों से घिरा हुआ था आज़ अपनी कथा सुनाता हूँ

मंजिलों से दूर कही मैं भटक रहा था इन सूनी राहों मै
बिखर कर फिर बना हूँ आज अपनी बात बताता हूँ

ना कोई साथी था साथ मेरे ना ही था कोई हमराही
अकेले बड़ जो जीत लिया जग खुशी अपनी जताता हूँ

रूलाया सताया बहुत जहॉ ने था मुझे कभी इस कदर
पर आज़ हसाके सबको ना किसी को रुलाता हूँ

कहते थे ज़माने वाले मैं हूँ नही किसी काबिल यहॉ
फलक का तारा बन आज मैं अपने ही गीत गाता हूँ

रहा कितना तन्हा और अकेला इस महफिल मैं
दुख अपना पी कर सदा मैं युंही तो मुस्कुराता हूँ

मिले जो धोखे ज़माने से मुझे और लगी जो ठोकरे
आज़ जीत कर आसमान उन्हें ये जिन्दगी दिखाता हूँ

छोड़ गये थे साथ जो मेरा मज़लूम मुझे बताकर
दिखा अपने लबों पर हसी आज़ उन्हें मैं जलाता हूँ


जीवन की इन राहों पर मैं नित नित बड़ते जाता हूँ
संघर्षों  से घिरा हुआ था आज़ अपनी कथा सुनाता हूँ-२"

Monday 26 December 2016

ईश्वर वाणी-१७३ तीन सागर

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों धरती पर तीन प्रकार के सागर हैं १-तरल
सागर, २-कठोर सागर, ३-सूखा सागर
हे मनुष्यों वह सागर जिसने धरती के एक बड़े भाग को घेरा हुआ है वह 'तरल' सागर है,
उसी प्रकार धरती पर एक भाग बर्फ से सदा ढ़का हुआ है वह है 'कठोर' सागर,
और जो धरती पर रेगिस्तानी स्थान है वह है 'सूखा' सागर,
जिस प्रकार तरल सागर मैं लहरें आती हैं तूफान आते हैं प्रलय तक होती है
वैसे ही कठोर सागर व सूखा सागर मै भी होता है,
हे मनुष्यों आज़ जहॉ कठोर सागर व सूखा सागर हैं कभी वहॉ तरल सागर होता
था, साथ ही आज़ जो जैसा है हमेशा वैसा भी नही होगा, समय के साथ परिवर्तन
ही प्रक्रति का नियम मैंने निर्धारित किया है,
है मनुष्यों जिस प्रकार धरती पर तीन सागर मौज़ूद है उसी प्रकार समस्त
ब्रमाण्ड मैं भी तीन सागर मौज़ूद है,
तरल आकाशिय दिव्य सागर की रेत से ही ब्रह्माण्ड की व ग्रहों व नछ्त्रों
की रचना हुई है व उनमैं उलब्ध बर्फ व गैस (निम्न वायु) कठोर सागर के कारण
ही है,
हे मनुष्यों क्या तुमने कभी विचार किया है आकाश मैं पत्थर व ग्रहों मैं
पहाड़ मिट्टी व अनेक गैस व बर्फ कैसे आये??
हे मनुष्यों ये सब उन सागरों के कारण ही आये जो अनंत आकाश मैं मौजूद है व
श्रश्टी की उत्पत्ती का कारक,
हे मनुष्यों मैं तुम्हे परहले भी बता चुका हूँ धरती समस्र ब्रह्माण्ड की
प्रतीक मात्र है इसलिये समस्त ब्रह्माण्ड की की एक छोटी सी झॉकी इस धरती
पर ही मौजूद है,
आकाशिय दिव्य सागर आकाश रूप मैं सदा तुम्हारे उपर है और तुम इसके नीचे
ठीक वैसे ही हो जैसे समुन्दर के जीव समुन्दर के नीचे होते है,
हे मनुश्यो जगत  व प्रक्रति का निर्माण करने वाला समस्त ब्रह्माण्ड को
ढकने वाला वह दिव्य सागर मैं ही हूँ मैं ईश्वर सदा तुम्हारे साथ हूँ,

हे मनुष्यों  तभी ईश्वर को याद किया जाता है तो आकाश को देखते हो, जब कोई अपना भौतिक शरीर त्यागता है तब कहते हैं वो उपर चला गया भगवान के पास, मनुष्यें आकाश बन कर मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ, पर मुझे उस दिव्य सागर के रूप मैं केवल परन ग्यानी व पवित्र आत्मा ही देख सकती है क्यौंकि  मैं ईश्वर हूँ"

कल्याण हो

भक्ति कविता

मेरे मीत तुम्ही हो हारी हर बाजी़ की जीत तुम्ही हो,
मैं तो हूँ एक सरगम यहॉ जिसका संगीत तम्ही हो

हे प्रभु तुम्हीसे मेरी सुबह है होती तुमसेही हर शाम
लेता हूँ पल पल नाम तुम्हारा मेरे तो गीत तुम्ही हो

भक्तीहीन अल्पविश्वासी जगसे हारा मैं दास तुम्हारा

अधूरे से मेरे जीवन की बस प्रभु एक प्रीत तुम्ही हो

ना मानू बंधन कोई ना मानू दुनिया का रिवाज़ प्रभ

दिलसे माना जिसे अपना इस प्रेम की रीत तुम्ही हो


मेरे मीत तुम्ही हो हारी हर बाजी़ की जीत तुम्ही हो,
मैं तो हूँ एक सरगम यहॉ जिसका संगीत तम्ही हो-२

Sunday 25 December 2016

ईश्वर वाणी-१७२, देवता, यछ, दानव, रिषि-मुनि तुम ही हो

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों श्रष्टी निर्माण के समय सबसे पहले मैंने जिसको उत्पन्न किया वह है प्रक्रति, प्रक्रति ने ही त्रिदेव (ब्रह्मा,विष्णु व महेश) की रचना की, ब्रह्मा जिसने समस्त प्राणियों की रचना की ब्रह्माण्ड की रचना की, विष्णु जो सभी का पालन पोषण करते हैं अथवा उनकी ही इच्छाशक्ती से समस्त ग्रह नक्छत्र शक्ति प्राप्त कर आकाश मैं विचरण करते हैं, महेश जो संहारकर्ता हैं, जब जब श्रश्टी पर पाप अपनी चरम सीमा पार कर लेता है तब उसका विनाश सुनिश्चित हो जाता है, इस विनाश के बाद फिरसे नयी श्रश्टी का निर्माण होता है!!

हे मनुश्यों ब्रम्हा को ब्रम्ह लोक मैं स्थान प्राप्त है, अर्थात जीवन देने वाला सदा ही उच्च स्थान का अधिकाऱी होता है इसलिये वह अनंत ब्रह्माण्ड मैं ब्रम्ह लोक मैं रहते हैं,

वही विष्णु छीर सागर मैं रहते हैं, ये सागर धरती पर बहने वाला कोई साधारण सागर नही अपितु जिसके पावन जलसे समस्त श्रष्टी का निर्माण हुआ है वहॉ रहते हैं, जल जो जीवन प्रप्त करने व जीवन यापन की प्रथम मूलभूत आवश्कता है, तभी समस्त नदीयों का श्रोत ऊँचे पहाड़ों पर ही है, जहॉ से भगवान विष्णु समस्त धरती को जीवन यापन हेतु जल की व्यवस्था करते है,

महेश जो संहारक है, उनका निवास धरती अर्थीत म्रत्यु लोक है, एक निश्चित समय के बाद सभी को अपना भौतिक शरीर त्यागना ही पड़ता है, इस म्रत्यु लोक मैं सभी की म्रत्यु निश्चित है, संहारक होने व म्रत्यु के कारण उनका स्थान धरती है,

है मनुष्यों इन त्रिदेवों के साथ पत्नी रूप मै त्रदेवीयॉ है जो प्रक्रति है अर्थात जिसके बिना त्रिदेव भी कुछ नही, व अन्य देवता, दानव, यछ, रिषी-मुनि समाज़ का ही प्रतीक है

सत्तकर्मी जो अपने दायित्वों को कुशलता के साथ पूरा करता है वही देवता है,

जो व्यकति अपने लिये नही अपितु अन्य प्राणयों के विषय मैं सोचता व उनका कल्याण करता है, ईश्वर के वचन पर चलता है, वही रिषी-मुनी है,

जो व्यकति समय व स्वार्थ के साथ स्वभाव बदल लेते है वही यछ है,

जो व्यक्ति अपने अतिरिक्त किसी के विषय मैं नही सोचते, सदा अपने हितों को साधने के लिये दूसरों का भी बुरा करने से नही चूकते, छल कपट व झूठ का साथ सदा अपनाते है, निरीहों पर अत्याचार करते है, रक्त रंजित  भोज पदार्थ का सेवन करते है वही दानव है!!

कलियुग मैं निम्न व्यक्ति ही देवता, यछ, रिषी-मुनि व दानव है , ये कोई पारग्रही नही अपितु तुम्हारे कर्म ही तुम्हें ये बनाते है, प्राचीन काल के समय ये ही धरती रहते थे तुमने श्रेश्ठजन से सुना होगा, किंतु ये व्यक्ति उस समय भी ऐसे ही थे जैसे आज तुम हो, और आज भ तुममे ही इनका निवास है, अब तुम इसे पड़ कर सनकर खुद मूल्यांकन करो की तुन खुद क्या हो"

कल्याण हो

Friday 23 December 2016

कविता-कुछ लिखूँ मैं

"आज फिर दिल ने कहा कुछ लिखूँ मैं
मोहब्बत की कोई कहानी लिखूँ

या मिले हैं जो अश्क इश्क मैं तेरे मुझे
तेरी इस बेवफाई की बयानी लिखूँ

रूलाया बहुत मुझे तूने कर के ये बेफाई

अपने दर्द की क्या निशानी लिखूँ

फिदा था ये दिल तुझपर कभी इसकदर

अपने प्यार की आज रवानी लिखूँ


आज फिर दिल ने कहा कुछ लिखूँ मैं
मोहब्बत की कोई कहानी लिखूँ"-2