Saturday 13 January 2018

मुक्तक, कविता-क्यों ज़िन्दगी गम मुझे हर बार देती है

"कितनी अकेली और तन्हा हूँ  मैं
जीवन से कितनी बेपरवाह हूँ मैं
ज़िन्दगी को जीना सीख रही हूँ
देखो कितनी लापरवाह हूँ मैं"


"क्यों ज़िन्दगी गम मुझे हर बार देती है
क्यों ज़िन्दगी ये दर्द मुझे बार बार देती है

'खुशी' की चाहत दिलमे रखी थी बस
'मीठी' को अश्क ये जिंदगी हर बार देती है

जीने की वजह हर रोज़ ढूंढते है हम यहाँ
मरने की वजह ये जिंदगी हर बार देती है

मुस्कुराहट लबों पर रोज़ खोजते है हम
रुला हर पल ये ज़िन्दगी बार बार देती है

'खुशी' पूछती है आज 'मीठी' से हर दिन
क्यों ज़हर मुझे ये ज़िन्दगी हर बार देती है

क्यों ज़िन्दगी गम मुझे हर बार देती है
क्यों ज़िन्दगी ये दर्द मुझे बार बार देती है



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