Saturday 28 April 2018

कविता-ज़िन्दगी की तलाश में चलता रहा हूँ में

"मंज़िल की तलाश में भटकता रहा हूँ मैं
ज़िन्दगी की तलाश में चलता रहा हूँ में

मिली पग पग ठोकरे मुझे इस राह में
बस यहाँ खुद से ही तो हारता रहा हूँ मैं

खुद को हमसफर कहने वाले मिले बहुत
अपना समझ उन्ही से ठुकराता रहा हूँ मैं

रोती है आज ज़िन्दगी मेरे गमो पर फिर
कैसे खुद पर ही आज मुस्कुराता रहा हूँ मैं

बिखरे मोती माला के फिर पिरोने में लगा
 ख्वाब खुदको ज़िन्दगी के दिखाता रहा हूँ मै

मिल सकती है मंज़िल तुझे ज़िन्दगी सुन
बस हर बार ये कह खुदको बहलाता रहा हूँ मै

मंज़िल की तलाश में भटकता रहा हूँ मैं
ज़िन्दगी की तलाश में चलता रहा हूँ में-२"



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