Saturday 23 April 2016

ईश्वर वाणी-१४०, ईश्वर की देह और अंग

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों मैं समस्त प्राणियों की देह हूं और तुम सब इस देह के अंग हो,

हे मनुष्यों जैसे की तुम्हे पहले ही मैं बता चुका हूं की संसार मैं मैने कुछ भी अनावस्यक नही बनाया है,

हे मानव जाती ज़रा सोच तेरे शरीर पर केवल ऑख ही ऑख हो तो तू सुनेगा कैसे, या तेरे शरीर पर केवल कान ही कान हो तो तू देखेगा चलेगा अन्य कर्म कैसे करेगा, जैसे तेरे शरीर के सभी अंग आवश्यक हैं वैसे ही मेरे लिये तुम सब आवश्यक हो,

ये निम्न मत जिनके आधार पर तुम अक्सर लड़ते रहते हो, एक दूसरे को नीचा दिखाते हो ये सब मेरे ही शरीर का ही तो एक अंग है,

है मानवो तुम जिस हाथ से भोजन करते हो उसी से नित क्रिया करते हो फिर भी उसे अशुद्ध नही समझते, अब तुम कहोगे नित स्नान एंव नित हाथ साफ करते है, ऐसे मैं हाथ अशुद्ध कैसे हुये?

हे मानवों तुम जिस प्रकार शरीर का अंग धो कर साफ करते हो तो तुम्हे क्या लगता है मै अपने अंग साफ़ नही करता,

तुम लोंगों के जीवन मैं आने वाला कष्ट और दुख ही वो पल है जब मैं अपने गन्दे दूषित अंगो की सफाई करता हूँ,

हे मानवों तुम्हारा जाति-धर्म-समप्रदाय-भाषा-सभ्यता-संस्क्रति के लिये लड़ना मुझे दुख पहुँचाता है,

जैसे अगर कोई तुम्हारी किसी एक ऑख पर वार करे कष्ट तो पूरे शरीर को होगा, वैसे ही यदि तुम किसी निरीह जीव अथवा मनुष्य को ठेस पहुँचाते हो वो चोट मुझे लगती है"!!




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