Tuesday 3 June 2014

पर्यावरण पर मेरी रचना -रह जाएगा मनुष्य इस धरती पे केवल किस्से कहानियों में एक दिन

कुदरत ने इस धरती को ऐसा तोहफा दिया, आग के गोले सी वीरान थी ये धरती इसको आबाद किया, झमा झम बरसा बरखा का जल   इसमें जीवन दिया, हर कही हर जगह यु ही वृक्षों का आगमन हुआ, जीवन जिसका निसान न था इसमें यहाँ पनपने लगा,


जीवों का आगमन हुआ, ये चमन चहकने लगा, कल तक था जो वीरान आज महकने लगा, सूनी पड़ी थी जो धरती आज गुलज़ार होने लगी, पेड़ों को अपनी गोद में ले कर जीवो को अपनी बाहों में ले कर ये भी इतराने लगी, कल तक जो कोई न था इसका आज माँ बन कर सबको पालने लगी,



फिर हुआ मनुष्य का जन्म धरती हिलने लगी, बन कर माँ धरती ने मनुष्य की भी परवरिश सबकी तरह ही की, पर वक्त के साथ मानव बदलने लगा, माँ समझता था कभी जिस धरती को आज उसे ही कुचलने लगा, धरती रोने लगी, आंसू बहाने लगी,


मनुष्य निकला स्वार्थी न आई उसे दया जरा भी, स्वार्थ में आ कर प्रकृति को उजाड़ने लगा, जो करती हरियाली हरी धरती माँ की उसे ही उजाड़ने लगा, थे जो जीव धरती पर उससे पहले उन्हें ही अपना शिकार बनाने लगा,


जीवन जीने के लिए बहुत कुछ दिया था धरती ने उसे लेकिन वो संतुष्ट न हुआ, आत्म संतुष्टि के लिए उसने सबको तबाह किया,


वृक्षों को काट कर अपनी बस्तिया वो  बसाने लगा, जिह्वा तृप्ति के लिए निरीह जीवो को मारने लगा, सूनी होने लगी ये धरती, कराहने लगी ये धरती, जब मानव ने नहीं बदली अपनी ये शोषणकारी रणनीति कुदरत बिगड़ने लगी,



आने लगे रोज तूफ़ान और ये धरती हिलने लगी, बाढ़ और आपदा, अनेक बवंडरों के साथ सूनामी  भी आने लगी,  रोती हुयी ये धरती भी रोज़ फटने लगी, बरसों से शांत भूमि की गर्मी ज्वालामुखी बन कर हर कही फटने लगी,



जो मिला था मानव को कुदरत से उससे छीनने लगा, आधुनिक कह कर खुद को मानव सांत्वना देने लगा, प्रकृति के इस प्रकोप के आगे वो बेबस रहा,


सोच रहा आज मनुष्य का संगठन जो न रोका गया प्रकृति का यु ही दोहन वो दिन दूर नहीं ख़त्म जाएगा सब कुछ और रह जाएगा मनुष्य इस धरती पे केवल किस्से कहानियों में एक दिन, किस्से कहानियों में एक दिन, किस्से कहानियों में एक दिन… 



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