Tuesday 3 June 2014

पर्यावरण पर कविता -जाने कहाँ खो गयी

कभी जहाँ हरियाली की चादर थी बिछती, कभी जहाँ डाली पर  वो कलि थी खिलती, फूलों से लदी होती थी कभी उसकी हर शिखा, फलों से झुकी  होती थी हर टहनी हर कही और हर जगह, 


पंक्षियों का मधुर संगीत  पड़ता था सुनाई हर शाम और  सुबह, जिस डाली पर बैठते थे कभी तोता और मेना, जिन्हे पकड़ने के लिए भागते थे मैं और बहना, 


वो हरियाली जाने कहाँ खो गयी, जिस डाली पर खिलती थी कली वो डाली जाने कहाँ गुम हो गयी, फूलो से लदी वो शिखा जाने कहाँ  रह गयी, वो फलों से झुकी टहनी  जाने कहाँ खो गयी,


पंक्षियों का वो संगीत भी अब नहीं पड़ता कही सुनाई, मशीनो की ध्वनि के आगे नहीं पड़ती अब किसी की आवाज़ अब सुनाई, नहीं दिखते अब बैठे कही वो तोता और मैना, दिखता है अब हर कही चिमनियों से आता ये काला  वो धुंआ,


वो पंक्षियों का संगीत जाने कहाँ खो गया, वो तोता और मेना का मेरे आँगन में आना क्यों रह गया, वो हसीं पल जाने कहाँ अब खो गया,





नदिया भी कभी बहती थी निर्मल, होता था जिसका जल भी कितना पावन और शीतल,पी जिसे हो जाता था  ह्रदय भी कितना पाक और कोमल, 

वो नदियां हमारी कहाँ खो गयी, हर नदी अब यहाँ मेलि हो गयी, तरक्की के नाम पर आज ये नदिया अब बस नाली हो गयी, पाप हमारे सारे सर अपने ले गयी, वो नदिया हमारी कहाँ खो गयी,



 कभी जहाँ बिखरा था जंगले, रहते थे जिसकी बाहों में सेकड़ो पंक्षी और जानवर हरदम, वो जंगल जाने कहाँ खो गए,हर जगह अब यहाँ मनुष्य हो गए, कौन सुने उन बेजुबानों की जिनके आशियानों पर मानव के कब्जे हो गए, ये जंगल जाने कहाँ खो गए ,




है आज दुनिया में अथाह विशाल समंदर, रहते हैं जिसमे अनेक जीव भी उसके अंदर,  फैल  रहा है दुनिया में समंदर का व्यास, आ रहा है वो और भी करीब और भूमि के पास, लेकिन विलुप्त होने लगे  जीव समंदर के, उन्हें नहीं मिल रहा इसका लाभ, जीभ के स्वाद से विवश मनुष्य बना रहा है उन्हें अपना ग्रास, जीते थे  कभी सुकून से समंदर की गहराई में वो जीव जाने कहाँ खो गए ,




था खड़ा कभी हिमालय अपना सीना तान कर, रखता था दूर हर कहर और तूफ़ान को अपनी शान मान कर, आते थे लोग पूजने उसे गंगोत्री, यमुनोत्री का पावन स्थान मान कर, शुद्ध होती थी उसकी ऐसी हवा दूर हो जाती थी सबकी बीमारी बिना किसी दवा, कुदरत का ये इशारा था, प्रकृति का ये  बेहतरीन नज़ारा था,


ये नज़ारा जाने कहाँ रह  गया, दूर रखता हिमालय जिस कहर और तूफ़ान को आज आ कर वह हर लेता है जाने कितनी मासूम जान को, पूजन करते थे जिस पावन  धरती का लोग  आज दूर भागते है उस पावन मिटटी से सब लोग , शुद्ध होती उस हवा में ऐसा ज़हर आया हर बीमारी  का कीटाडु  भी इसमें अब है  समाया, कुदरत वो इशारा जाने कहाँ  खो गए ,प्रकृति का ये नज़ारा जाने कहा रह गया,



 कभी जहाँ हरियाली की चादर थी बिछती, कभी जहाँ डाली पर कलि थी वो  खिलती, वो हरियाली की   चादर कहाँ खो गयी, जिस डाली पर खिलती थी कली वो डाली जाने कहाँ गुम हो गयी, 

 कभी जहाँ हरियाली की चादर थी बिछती, कभी जहाँ डाली पर कलि थी वो  खिलती, वो हरियाली की   चादर कहाँ खो गयी, जिस डाली पर खिलती थी कली वो डाली जाने कहाँ गुम हो गयी, 


 कभी जहाँ हरियाली की चादर थी बिछती, कभी जहाँ डाली पर कलि थी वो  खिलती, वो हरियाली की   चादर कहाँ खो गयी, जिस डाली पर खिलती थी कली वो डाली जाने कहाँ गुम हो गयी,



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