Sunday 11 February 2018

ईश्वर वाणी-232 , ईश्वर के शरीर के अंग

ईश्वर कहते हैं, "हे मनुष्यों यूँ तो पहले भी तुम्हें मैं बता चुका हूँ आकाशीय दिव्य सागर और तैरते ग्रह नक्षत्रों के विषय में।

हे मनुष्यों इस समस्त ब्रह्मांड का निर्माण एक विशाल अंडे के विश्वोट व उसके निरन्तर विस्फोटों से हुआ। उसी में से जो तरल पदार्थ निकला उसी से श्रिष्टि में में विशाल सागर व पृथ्वी पर सागर, नदियां, हिमकुण्ड व धरती के नीचे पानी का विशाल भंडार बना।

जैसे ब्रह्माण्ड का कोई छोर नही, ये अनन्त है, ठीक वही मेरा एक रूप है जिसे तुम अपनी इन भौतिक आंखों से देखते हो। ब्रह्माण्ड के समुचित ग्रह नक्षत्र तारे मेरे ही शरीर के अंग है, जैसे तुम्हारे शरीर मे रक्त निरन्तर बहता रहता है जो तुम्हे जीवित रखता है वैसे ही ब्रह्मांड के वो निरन्तर बहने वाले छोटे बड़े पत्थर हैं जो किसी ग्रह से नही निकलते किन्तु निरन्तर आकाश में घूमते रहते हैं।
जैसे तुम्हारे शरीर मे कोई कमी आ जाती है जिससे रक्त दूसित हो जाता है साथ ही दूसित रक्त शरीर के निम्न भाग को बुरी तरह प्रभावित करता है वैसे ही जब आकाश के इन पत्थरों में कोई खराबी आ जाती तभी किसी ग्रह नक्षत्र से टकरा कर उसको नुकसान पहुँचाते हैं।
हे मनुष्यों इसलिये ये न भूलो की मैं ही आदि अंनत अविनाशी ईश्वर हूँ , हालांकि में निराकार हूँ किंतु जैसे तुम किसी जीव की मृत्यु के पश्चात उसकी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करते हों क्योंकि उसकी भौतिक देह मिट चुकी है और तुम केवल भौतिक देह से ही उसे जानते पहचानते व जीवित समझते हो।
वैसे ही तुम मेरे निराकार रूप को नही मानोगे, इसलिए आकाशीय दिव्य रूप को मैंने धारण किया, समस्त ग्रह नक्षत्रों को अपना अंग बनाया ताकि जब तुम आकाश को देखो तो मेरा अस्तित्व याद करो साथ ही अपने कर्तव्य जो तुम्हें मैंने करने को दिये"।

कल्याण हो


सद्गुरु श्री अर्चना जी की ईश्वर वाणिया

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